बुधवार, 7 दिसंबर 2011

ठंड के वो दिन

           वातावरण के तापमान ने करवट बदलना शुरू कर दिया है.हेमन्त ऋतु दरवाजे पर दस्तक दे चुकी है.गुलाबी सर्दी के साथ वातावरण खुशनुमा हो चुका है.कम्बल, लिहाफ,ऊनी वस्त्र संदूक से बाहर आ चुके है.घरो मे विभिन्न प्रकार के लड्डुओ की खुशबू कभी-कभार ही महसूस हो रही है,क्योंकी बच्चे अब इन पौष्टिक लड्डुओ पर कम  रूझान रखते है,उन्हे तो पिज्जा और पस्ता मे ज्यद आनंद आता है.वो मेथी के लड्डू ,गाजार का हलवा कही खो गये है,मोटापे का डर दिखाकर.बच्चे ये समझने को तैयार हई नहिं कि मेथी के लड्डू ठंड मे हड्डीयों मे कितनी ताकत भरते है जो साल भर हड्डीयों मे ग्रीसिंग (machin ke lubrication) का काम करती है
                          सबसे बुरा हाल तो ऊन के गोले और सलाइयों का है जो चूपचाप एक कोने मे पडे हुऎ है.रेडिमेड के जमाने ने नानी-दादी और माँ से उनकी रचनात्मक खूबियाँ छिन ली है.मुझे याद हे ठंड के आते ही १०-१२-१४ नंबर की सलाइयों कि आपसी कशमकश ,ऊन की लच्छीओ क गोले मे बदलना और फिर सलाइयों से ज्यामितीय य फूल पत्ती के डिजाइन बनाना.इक दूसरे से मानो होड सी लगी रहती थी कि कौन सबसे अच्छा  और नया(unique) डिजाइन तैयार करता है.बुनाई करते-करते दसो बार उसकि नप्ती करना ये एहसास दिलाता था कि बुनने वाला कितनी प्यार से उसके लिये बुनाई कर रह है.वाकई स्वेटर कि वो गर्माहट अब महसूस हि नहीं होती.सलाइयों कि वो आपसी टकराहट जो प्यार कि गर्मी पैदा करती थी कहि खो गई है.वो प्यार का एहसास हम खो चुके हैं.