गुरुवार, 24 मार्च 2016

मेरे विचार--नया लेखन व लघुकथा के परिंदे ५वी प्रस्तुति

"अरे विचार! कहाँ चल दिये अचानक मुझे  यू अकेला छोड़कर" मीनी (कहानी) ने पूछा
"तुम बडी संकुचित और लघु हो गई हो आजकल. मैं कुछ दिन अपनी पुरानी सहेलियो  के साथ मुक्त विचरना चाहता हूँ"
"मतलब...."
 "मीनी मे तुम्हें छोड़कर कही नही जा रहा,बस कुछ दिन  मुक्ता, सरिता,कादम्बिनी से मिलने को उत्सुक हूँ। कई दिन बीत गये उनसे मिलकर। भावना मुझे ले जाने वाली है उनके पास
"मगर फ़िर मेरा क्या?"
" अरे मीनी!  मैं तो तुम्हारे साथ हूँ हरदम।  तुम अभी तंज और विसंगति  के पालन-पोषण... ऐसे मे मैं कुछ दिन के लिए...."
"रुको रुको विचार! ये दोनो ... सिर्फ़ मुझे दोष मत दो। सब लोग अब बडे समझदार हो गये है.लोगो के पास  अब ज्यादा वक्त कहाँ होता है। वो देखो कितनी धुंध और कुहासा छाया है चारों ओर.
लोग ज्यादा दूर का देख भी नहीं पाते


नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल

सोमवार, 21 मार्च 2016

दबा हुआ आवेश--लघुकथा के परिंदे-- दिल की ठंडक---- केक्टस मे फूल


पड़ोस के गुप्ता आंटी के घर से आती तेज आवाज़ से तन्मय के कदम अचानक बालकनी मे ठिठक गये। अरे! ये आवाज़ तो सौम्या की है।  यथा नाम तथा गुण वाली सौम्या को उसमे हरदम बस घर के कामों मे ही मगन देखा था या फ़िर चुपचाप कॉलेज जाते हुए।  हरदम उनका एक जुमला जबान पर होता काम ना करेगी तो ससुराल वाले लात मार बाहर कर देंगे।  वो भी बस चुपचाप क्यो सहती समझ ना पाया था और फ़िर वह ब्याह कर चली गई थी शहर छोड़कर...
"माँ! समझती क्यो नहीं हो भाभी पेट से है उनसे इतने भारी-भारी काम ..."
"सुन सौम्या! अब तुझे इस घर मे बोलने का कोई हक नहीं है. जो भी कहना सुनना है... और अब भाभी के रहते तुझे कोई काम को छूने की जरुरत नही है।  वैसे भी वो तेरी परकटी आधुनिक सास कुछ काम ना करती होगी। सारे दिन पिसती होगी तुम कोल्हू सी। "
"बस करो माँ! कई दिनो से सौम्या का दबा  आवेश बाहर निकल आया था।  जिसे तुम  परकटी  कह रही हो ना वो लाख गुना बेहतर है तुमसे।  समझती है मेरे मन को भी।  पुरी आज़ादी है मुझे वहाँ काम के साथ-साथ अपने शौक पूरे करने की और... ना ही भाई की तरह तुम्हारे दामाद को उन्होने मुट्ठी मे कर रखा है। "
"माँ!आखिर एक औरत ही औरत को कब समझेगी। "
पड़ोस के आँगन के केक्टस मे आज फूल खिल आये थे और तन्मय के दिल मे ठंडक।

 मौलिक एंव अप्रकाशित
नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल




बुधवार, 16 मार्च 2016

बदलाव का मतलब--लघुकथा के परिंदे--"सर चढा"

 "देखो जी! दिन चढ़ आया मगर अभी तक इनके कमरे का दरवाज़ा अटा (बंद) पडा है.तुम्हारी माँ तो सुबह चार बजे से बर्तन जोर-जोर से पटक कर मुझे उठने को मजबूर कर देती थी और मैं जुटी रहती ढोरो की तरह सारा दिन बस काम ही काम. दम मारने को फ़ुरसत ना मिलती.ये आजकल की बहूए तो पढ-लिख गई तो ...."
"चुप करो भगवान!   क्यो चिल्ला-चिल्ला के बोल रही हो बहू   भी तो खटती है सारा-सारा दिन ऑफ़िस में. किसके लिये हमारे लिए ही ना वरना क्या मेरी बीमारी...हमारा बेटा क्या अकेला इतना..."
"तो बोलो अब क्या करूँ? क्या सर चढाऊ  या कांधे पे बैठा के  नाँचू ..."
तभी बेटे के कमरे से निकलते हुए  बोला...
"माँ! काश  आपने  मुझे पहले  सर ना चढ़ाया होता तो ये नौबत..."

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
मौलिक एंव अप्रकाशित

शनिवार, 12 मार्च 2016

सफ़ेद चादर

कितनी हुलस थी केशवा को पढने की मगर सुखी पडी धरती ने उसकी माँ का खून भी सुखा दिया था और दिमाग की सोच भी. .क्या करती कब तक आटे मे सूखे घास को पीसकर मिला-मिला उसे खिलाती। इन्द्र देवता की इतनी लंबी नाराज़गी कि स्कूल का हेंडपम्प भी २०-२५ हाथ मारने पर दो लौटा पानी दे पाता. दिल पर पत्थर रखकर आखिर शहर जाने वाली गाड़ी मे बैठा लौट आई थी कैलासो। कुछ तो दो वक्त खा ही लेगा. मेरे पेट मे पडे बल तो मैं सह लूँगी पर... जवान होता बेटा...
वक्त गुज़र रहा था एकाध बार खबर आई भी केशवा की, कि वो ठिक है, मगर मुंबई की भागदौड़ उसे रास नही आ रही.सब एक दूसरे को कुचलते आगे बढने की होड मे है मगर...।
सूरज पूरे ताप पर चल रहा था कि अचानक एक बादल का टुकड़ा उसे कुछ पल को उसे ढक आगे निकल गया.बडी आंस से वो बाहर आई तो क्या...।
"इसे पहचानो अम्मा..कही ये केशवा...जैसे ही सफ़ेद चादर हटाई..।"
धरती मे पडी सुखी दरार आँसुओ से सिंच गई।
नयना(आरती)कानिटकर

गुरुवार, 10 मार्च 2016

मेरी माँ

माँ तो बस माँ होती है हमेशा मेरी नज़रों के सामने चाहे वह समा गई हो अनंत में किन्तु, मेरे हृदय मे समाई वो सदा खड़ी है मेरे पिछे मेरा आधार, मेरा संबल वो तो एक अनंत आकाश है जब भी याद करूँ वो ना बहन, ना बहू, ना ही लड़की किसी की वो तो सिर्फ़ माँ हैं अपने बच्चों की वो आशियाना होती हैं सब सहते हुए माँगती है अंजूली भर आशीर्वाद ,बेहतरी का बच्चों के ख़ातिर जिस दिन चले गये थे, मेरे बाबा मैने देखा है उन्हें सम्हलते खुद को,मेरे लिए पिता होते हुए. मूळ कविता ---प्रकाश रेडगावकर अनुवाद--नयना(आरती)कानिटकर १०/०३/२०१६

बुधवार, 2 मार्च 2016

"हस्ताक्षर"


पूरा घर गेंदे के फूलों की महक और छोटे-छोटे बल्ब की लडियों से दिप-दिप कर रहा था। हँसी-ठिठौली से सारा वातावरण आनंदमय था। वह भी अपनी सबसे अच्छी साड़ी निकाल हाथों से सिलवटो को दूर कर पहन के आईने के सामने...दंगो मे अगर सब कुछ ना लूटा होता तो...।
श्रेया के विवाह का अवसर और ...बीना उपहार शादी मे आना...मगर परिस्थितियाँ...।
" श्रीलेखा! चलो जल्दी बारात आने वाली है और हा! ये लो गहने एकदम खरे सोने के समान दिखते है. पहन लो जल्दी से आखिर बिरादरी मे हमारा भी कोई रुतबा...।"
" आपका...बस कुछ दिनों की बात है भैया। व्यवसाय  सम्हलते ही ...।"
"बारात घर के दरवाज़े तक ..." बस बहना जल्दी से इन कागज़ात पर हस्ताक्षर कर  आ जाइए।"
"बारात के स्वागत मे बुआ का सबसे आगे होना जरुरी है।"

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल.

मंगलवार, 1 मार्च 2016

"मातृछाया"-तीर्थयात्रा विषय पर-लघुकथा गागार मे सागर

"मातृछाया"
अटैची मे सामान जमाते-जमाते  एक  तस्वीर हाथ लग गई और खो गई पुरानी यादों मे....
कोख हरी ना होने पर घर-परिवार के तानो से तंग आकर आखिर उसने सुधीर को दूसरे विवाह की इजाज़त दे दी थी और स्वयं चली आई थी  "मातृछाया" में.
शुरुआती दिनों मे जो काम हाथ आता झाड़ू-पोंछा,बच्चों के कपड़े धोना, नहलाना, कभी-कभी खाना बनाना ...सब करती 
आखिर उसका सेवा भाव देखकर संस्था के संचालको ने उन्हे रहने का कमरा देकर बच्चों की देखभाल के लिये नियुक्त कर लिया.बस तब से दिन-रात अनाथ नवजात बच्चों की माँ हो गई थी
"सुनंदा अम्मा! जल्दी करो आपके स्टेशन जाने का वक्त हो गया है"
बच्चों का सब सामान करीने से रखते हुए सुनंदा अपनी मैनेजर से कहती जा रही थी...
देखो खुशी! सब बातों का ध्यान रखना बच्चों को कोई तकलीफ़ ना हो और...
"हा! हा! अम्मा आनंद से तीर्थयात्री कर आओ. मैं सब सम्हाल लूँगी। कोई बहुत दिनो की बात तो है नहीं जब लौट आओ तो फ़िर सारे डोर ले लेना अपने हाथ चलो  अब आपका आटो आ गया"
अपना सामान ले बाहर निकलने को थी कि अचानक आँगन मे रखे झूले से नवजात के रोने की आवाज़ गूँजी
दौडकर बच्चे को सीने से लगाया
"खुशी! मेरी अटैची अंदर ले जाओ."

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल