बुधवार, 16 मार्च 2016

बदलाव का मतलब--लघुकथा के परिंदे--"सर चढा"

 "देखो जी! दिन चढ़ आया मगर अभी तक इनके कमरे का दरवाज़ा अटा (बंद) पडा है.तुम्हारी माँ तो सुबह चार बजे से बर्तन जोर-जोर से पटक कर मुझे उठने को मजबूर कर देती थी और मैं जुटी रहती ढोरो की तरह सारा दिन बस काम ही काम. दम मारने को फ़ुरसत ना मिलती.ये आजकल की बहूए तो पढ-लिख गई तो ...."
"चुप करो भगवान!   क्यो चिल्ला-चिल्ला के बोल रही हो बहू   भी तो खटती है सारा-सारा दिन ऑफ़िस में. किसके लिये हमारे लिए ही ना वरना क्या मेरी बीमारी...हमारा बेटा क्या अकेला इतना..."
"तो बोलो अब क्या करूँ? क्या सर चढाऊ  या कांधे पे बैठा के  नाँचू ..."
तभी बेटे के कमरे से निकलते हुए  बोला...
"माँ! काश  आपने  मुझे पहले  सर ना चढ़ाया होता तो ये नौबत..."

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
मौलिक एंव अप्रकाशित