गुरुवार, 21 सितंबर 2017

बेटा, मैं और पिता

बेटे की मांग पर
लेकर दी थी एक नयी छतरी उसे
रंग-बिरंगी कार्टून्स से सजी
तब मुझे दिखाई दिए थे
इंद्रधनुषी रंग
उसकी आँखो में
फिर...
अपना छाता खोल
उसके बारीक़-बारीक़ छिद्रों से
देख लिया
काले घुमडते बादलों को
घर आकर, कैलेंडर को देख
मन ही मन गिन लिए थे
बरखा के दिन

बाजार से लौटते वक्त
एकबार फिर जिद से
ले ही लिया उसने, वो
बंदर वाला खिलौना
नये खिलौने के खेलते, उछलकूद  करते
आनंद से नज़रे मिला  रहा था माँ से
तो कभी मुझसे
किंतु, मैं देख रहा था
अपने आप को उस खिलौने में

मुझे भी याद आ गये
मेरे बाबा
मेरी भी ऐसी ही  मांगो पर
क्या आता होगा उनके मन मे?
शायद आती होंगी मेरे जिद की
कुछ ऐसी ही सिलवटे
उनके मुरझाए चेहरे पर

मूळ कविता:-अरूण नाना गवळी, कल्याण
अनुवाद प्रयास:- नयना(आरती)कानिटकर, भोपाळ