मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

" ओव्हर टाईम"-लघुकथा के परिंदे

अलभौर ही उसके काम की शुरुआत हो जाती पानी भरने से .यू तो नल घर मे था मगर छत की टंकी तक पानी जाने मे वक्त लगता  तो सारे काम चलते नल मे करने की जल्दी मे भागम भाग करना पड़ती.फिर घर बुहारना,बच्चों के स्कूल का टिफ़िन,चाय-नाश्ता,दोपहर के भोजन की व्यवस्था और घर को समेट उसे भी काम पर जाना होता.लौटकर आती तो फिर वही धुले बरतन जमाना, कपड़े समेटना,अगले दिन की भाजी-तरकारी की व्यवस्था,रात का खाना(घर वालो की फ़रमाईश का) सारा दिन चक्करघिन्नी सी घूमती काम करती रहती थी.शायद अब उम्र का तकाजा था शरीर इतने सारे काम के लिए साथ ना दे पा रहा था.मगर कहती किससे वो भी तो सुपर वुमन बनने की होड मे बिना किसी गिले-शिकवे के यह सब करती रही  और हम भी कभी मन से उसे काम मे हाथ ना बटा पाए.
अचानक गश खाकर गिरने पर तुम्हारे माथे की चोट इतनी गहरी लगी है कि सारी भावनाएँ उसमे गहरा गई है.मैं तुम्हें इस अवस्था मे नही देख सकता "अनुराधा",तुम्हें जल्द ही  कोमा  की स्थिति से लौटना ही  होगा मेरी जान.
कही ये ओव्हरटाइम,टाइम ओव्हर ना हो जाए.

नयना(आरती) कानिटकर.
२९/१२/२०१५

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

आदमी जिंदा है-लघुकथा के परिंदे --जिंदादिली

डायलिसीस सेंटर के वेटिंग एरिया मे बैठे स्मिता का सारा ध्यान चिकित्सा कक्ष की तरफ़ था सचिन को अभी-अभी अंदर ले गये थे.भगवान की मुर्ति सामने थी लेकिन  उसका मन अशांत था .
इतने मे सामने से एक खूबसुरत ,करिने से पहना हुआ सौम्य पहरावा,कोई भी आकर्षित  हो जावे ऐसा आभायमान व्यक्तित्व की धनी महिला आती है.
वो अपने डब्बे से सभी को मतलब हर आने-जाने वाले को तिल-बर्फ़ी ’चिक्की देते हुए कह रही थी "तिल-बर्फ़ी लो मीठा-मीठा बोलो".सभी डाक्टर्स,सिस्टर्स,वहाँ के सारे मरीज,मरीजो के रिश्तेदार सभी संग अपनी  खूबसुरत हँसी और अपनापन  बाँट रही थी
 स्मिता अशांत थी,अधिर हो रही थी लेकिन डाक्टर साहब ने उसकी मनस्थिती ताड ली .बोले--
"स्मिता ये जोशी आंटी है अपने पति संग लम्बे समय से यहाँ आ रही है.इनके सारे त्योहार दशहरा,दिवाली,राखी सब यही मनते है वो यहा की सबसे सिनियर पेशेंट रिलेटिव्ह है .बडी जिन्दादिल महिला है,सब पेशेंट रोज उनका इंतजार करते है और हा सचिन भी ठिक है अब जल्दी छुट्टी मिल जायेगी उसे.
 स्मिता ने अपने दु:ख का अपने चारो और मानो कोश सा निर्माण कर लिया था,लेकिन जोशी आंटी ने तो अपने प्रयत्नो से परिस्थीति को उलट दिया था,हार नहीं मानी थी.
उनको देख स्मिता ने सोच लिया जिंदगी हमेशा जीते रहने मे है,हौसले और जज्बे मे है.
जब तक जिंदादिली कायम है,आदमी जिन्दा है.

नयना(आरती) कानिटकर.
२२/१२/२०१५

मुँह दिखाई-नयी रीत लघु कथा के परिदे

 धूम-धड़ाके के साथ विवाह पश्चात जब बारात घर लौटी तो चारों ओर ख़ुशियों का माहौल था. सुरेखा ने आरती उतार घर मे प्रवेश कराया.भिन्न-भिन्न रस्मो मे समय कब गुजरा पता ही ना चला.तभी दादी माँ का आदेशात्मक स्वर सुनाई दिया.
"सुरेखा बहूरिया!! लगे हाथ मुँह दिखाई की रस्म भी कर लो,आसपास के घरो मे बुलावा भेज दो,लल्ली(नई बहू) जो दहेज़ लाई है उसे करिने से  सजा  लो ताकि जब वे आए तो उन्हे मुझसे  पूछना ना पडे --"तेरी पोते री बहू क्या लाई है संग"
"ना अम्मा!!! अब ये मुँह दिखाई की रस्म ना होगी इस घर मे और ना ही बहू घूँघट काढेगी.वैसे से भी शर्म आँखो मे और अदब दिल से होता है .मैं उसे अपनी  बेटी बनाकर लाई हूँ उसे अपने सुमन  बेटी की तरह स्वीकारो.दहेज़ मे मैने उसके माँ-बाबू से कुछ ना लिया.वो अपने पैरो पर खड़ी है,नौकरी करती है.जरुरत पडने पर होनी-अनहोनी ,हारी-बीमारी मे हमारे साथ है.बस यही दहेज़ है हमारा." कहकर बहू शकून के माथे हाथ फ़ेरने लगी .थक गई है सारा दिन रस्मो के चलते.
"जा बेटा शकुन थोडा आराम कर ले."
शकुन को घर मे अपने मिलने वाले स्थान का आश्वासन मिल गया.
"मगर बहूरिया!!! इस घर की रीत--"
"अम्मा आज से इस घर की यही नयी-रीत है."
नयना(आरती)कानिटकर

रविवार, 20 दिसंबर 2015

अपराध विषय आधारित-लघुकथा के परिंदे-"जमीन"

शीना और  शशांक के साथ  अपनी गाड़ी से प्रवास पर निकले शर्मा दंपत्ति सडक के  बाँयी ओर कोयले की आँच पर गर्मागर्म भुट्टे सेंकते देख उनका स्वाद लेने और  कुछ देर सुस्ताने के हिसाब से गाड़ी एक किनारे लगा देते है. पास ही एक महिला को ताजे-ताजे भुट्टे सेंकने का कह थोडा चहलकदमी करने लगते है.
 भुट्टे वाली के पास ही कुछ दूरी पर शीना की हम उम्र लड़की पत्थरों से घर बना ,झाडीयो मे लटकती ,लहराती बेलों से झुला बनाकर अपनी पुरानी सी गुड़िया जिसके हाथ-पैर लूले हो चुके थे ,खेल रही थी.शीना भी अपनी गुड़िया थामे  वहा पहुँच गई.उस लड़की ने भी शीना को अपने खेल मे शामिल करना चाहा ,तभी नमक-निंबू लगे भुट्टे हम तक आ चुके थे,वे उन्हे ले गाड़ी मे बैठ गये.
छीSSS मम्मी!!! कितनी गंदी गुड़िया थी उसकी और  वो कैसे पत्थर का घर बना उसे खिला रही थी मानो कोई महल हो,मेरी देखो इतनी सुंदर गुड़िया के साथ खेलना था उसे.---ना जाने क्या-क्या अर्नगल बोलने लगी.
चुप करो शीना!!! बहुत हो गया. अभाव क्या होता है तुम्हें मालूम नही है,तुम जो मांगती हो वह तुम्हें तुरंत मिल जाता है. उसकी माँ को देखो क्या कमा पाती होगी वो दिन भर मे किसी को इस तरह गंदा कहना,उसका मज़ाक उडाना---बोलते-बोलते मेरा बदन काँपने लगा.
बच्चों को सारी भौतिक सुविधाएँ तो जुटा दी किंतु उन्हे ज़मीन से ना जोड पाई.इस अपराध बोध मे मुझे अस्वस्थ कर दिया था.
 बच्ची को  शीना ने अपनी गुडिया भेंट स्वरुप दे दी. 
नयना(आरती) कानिटकर
२०/१२/२०१५

गले की जंजीर-लघुकथा के परिंदे-दहलीज

 बहू को अचानक अपने पिता  के साथ जाते देख शांती बहन के मन मे कुछ संदेह हुआ" माँजी!! मै सुनंदा को अपने  घर  ले जाने आया हू
"हा माँ !!!मैने ही पिताजी को बुला भेजा है"
बात को बीच मे ही काटते माँ दहाड उठी-" जानते हो क्या करने जा रहे हो,समाज के लोग क्या कहेगे?
"माँ आप तो सब जानती थी की --- फिर मै मना  भी करता रहा किंतू आप बिन माँ की बच्ची को प्यार और घर मिल जायेगा कहकर 
समाज मे दिखावे के खातिर  जबरन मेरा विवाह----
 बात यही खत्म होती तब भी ठिक था .सुनंदा तो बिन माँ की प्यार की भूखी थी,उसने मेरे साथ भी  सामंजस्य बैठा लिया आप लोगो से प्यार की लालसा मे.
"तो अब क्या हुआ?"
"हद तो अब हुई है माँ!!"-जब बडे भैया ने---घर के चिराग का वास्ता देकर----
"और भाभी आप??? --"
आप तो एक स्त्री थी,एक स्त्री दुसरी के साथ इस तरह--"
एक मिनट सुनो भैया!!  भाभी बोल पडी जब मैं माँ नही बन पा रही तो बाबुजी ने तुम्हारे भैया को ये सब करने को मजबूर किया  ये कहकर की घर की बात घर मे रहेगी और एक ही घर का खून भी.तब जबरन उनके कमरे मे ठेल दिया गया
हमने विरोध भी किया मगर--हम कमजोर थे शायद.धन्य है सुनंदा वो मजबूत निकली.
सुनंदा का हाथ थामे  सारी जंजीरे तोड रोहन भी  पिताजी के साथ घर की दहलीज लांघ गया

नयना(आरती)कानिटकर

शनिवार, 19 दिसंबर 2015

समरसता-लघु कथा के परिंदे-"बेटी का फ़र्ज"

सुधा  बिस्तर पर पड़े-पड़े सोच रही है  कल "सूमी" की भी फिस भरना है.भैया को क्या जवाब दूँ
"सुनो!!! अचानक सुधीर की आवाज़ से चौक गयी."
"कहो!!"
"क्या बात है कब से देख रहा हूँ सिर्फ़ करवटे बदल रही हो, चुप-चुप भी हो."
"कुछ नही"
"यू घुलते रहने से तो समस्या हल नहीं होगी ना,मैने सुबह फोन पर भैया से बातें करते सुन लिया था"
बाबूजी की लंबी बीमारी के चलते उन्हें जरुरत आन पड़ी होगी,कितनी उम्मीद से पहली बार उन्होने तुमसे सहायता माँगी है.वरना हरदम तो वे देते ही रहे है.
"जाओ बेटी होने का फर्ज अदा करो.कुछ रुपये लाकर रखे है मैने अलमारी मे."
भावविह्हल हो सुधा की आँखें भर आई.सुधीर ने कस कर सुधा का हाथ थाम लिया.

नयना(आरती)कानिटकर
१९/१२/२०१५

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

लोहे की जाली--- अवसाद लघुकथा के परिंदे

एक दुर्घटना मे अपनी युवा बेटी की मौत के बाद  सुलक्षणा का मानो सब कुछ लूट गया था.सदमे से वह अंधकार के गर्त मे समा सी गई थी.घर, परिवार, मित्र,समाज इन सबसे उसका कोई सरोकार नहीं बचा था.
 प्यारा सा होनहार बेटा भी  इस आग मे झुलसता जा रहा था.आखिर मैने अपने आप पर काबू पाया और सारे सूत्र अपने हाथ मे ले लिये.उसकी हर छोटी -बडी जरुरत का हिस्सा बन गया.हम साथ टीवी देखते,साथ खाते मगर सुलक्षणा ? ,वो रसोई की छोटी-मोटी ज़िम्मेदारी निभा कमरे मे कैद हो जाती.
   बेटा विवाह योग्य हो गया तो मैने ही अपने प्रयासों से रिश्ता ढूंढा.आज वो लोग आ रहे थे"अनुज" से मिलने अपनी बेटी संग.उसके दोस्त विभोर  ने सम्हाल ली सारी ज़िम्मेदारी आवभगत की.सुलक्षणा तैयार होकर आई मगर उसने कोई बात नहीं की. स्वास्थ्य ठीक ना होने का बहाना बना बात को  सम्हाल लिया.
      उनके जाने के बाद बिफ़र पडी सुलक्षणा.---
"आप लोगो ने इतना बडा प्लान मुझे बताए बीना कैसे तय कर लिया.आपको मेरी बेटी के जाने का कोई गम नही है."जानबूझकर आप लोग वही सब नाश्ते की चीज़े लाए जो मेरी बेटी को पसंद थी."
   "अपने आप से बाहर निकलो सुलक्षणा यू कब तक अपने चारों ओर लोहे की जाली बना कर रखोगी. हमारा बेटा भी झुलस रहा  है उसमे.वो उसकी भी बहन थी लेकिन उसके सामने अभी पूरी जिंदगी पडी है ,तुम्हारे इस व्यवहार से वो टूट जायेगा.तुम एक नही दो-दो जिंदगियों को गवा बैठोगी. शुक्र मनाओ तुम्हारे निर्लिप्त आचरण के बावजूद भी वो लोग अपनी लडकी हमारे घर देने को तैयार है."
  मेरे सहलाने से  सुलक्षणा सामान्य हुई.उठो नया वक्त तुम्हारा इंतजार कर रहा है.तभी--अनुज! बेटी निकिता संग दरवाज़े पर खड़ा था.
 .सारा अवसाद आँसू बन बह चुका था.सुलक्षणा ने दौड़ कर निकिता को बाहों मे भर लिया.
नयना(आरती)कानिटकर
१८/१२/२०१५

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असली मुखौटा

अनाथ आश्रम"सहेली" के नियमानुसार बालिग होते ही मुझे अब अपनी व्यवस्था बाहर देखनी थी मैने जूनियर कॉलेज तक की शिक्षा आश्रम मे रहते ही  पूरी कर ली थी.आश्रम के मैनेजर सज्जन सिंह से मुझे विमला देवी का पता थमा उनसे संपर्क करने को कहा था ।
डोरबेल बजाते ही एक उम्रदराज महिला ने दरवाज़ा खोला
"जी   मुझे  सज्जन सिंह जी ने आपके पास भेजा है मेरा नाम---"
मैं आगे कुछ कहती उसके पहले ही हाथ खिंचते हुए वो मुझे अंदर ले गयी थी । ये हे तुम्हारा कमरा और ज्यादा कुछ बोले बगैर दरवाज़ा बंद कर बाहर निकल गई थी । मुझे कुछ अजीब सा लगा उनका बर्ताव ।कुछ घबरा सी गई पर फिर आश्रम के कर्ताधर्ता सेठ हरिशचन्द्र जी को फोन लगाया 
"हलौ!! सेठ जी मैं सुहानी बोल रही हूँ.सज्जन सिंह जी ने मुझे विमला देवी का पता दिया था मगर यहाँ  कुछ---
मेरी बात पुरी होने से पहले ही सेठ जी बोल पडे--
"क्या इतने साल तोड़ी मुफ़्त की रोटी की किमत भी अदा नही करोगी."अब तुम्हें वही करना होगा जो मैं चाहूँगा "
सेठ  हरिशचन्द्र का असली  मुखौटा मेरे सामने आ चुका था ।
इतने सालो विपरीत  परिस्थितीयो से लड़ते हुए मैने भी कच्ची गोलियां नही खेली थी. वहा से भाग निकलने मे कामयाब हुई ।
आज समाचार पत्रो मे सेठ  हरिशचन्द्र का मुखौटा मुख्य पृष्ठ की खबर बन चुका है ।

नयना(आरती)कानिटकर

"माँ को रोटी"


मैने देखा है माँ को
आटा सानते परात में
दो पैरो के बीच  थामकर
और रोटी तो कडेले*१पर जाते हुए
तब मै बैठा होता था उसके सामने
अपनी किताबे फ़ैलाए हुए
सने हाथो से खिसकाती थी वो डिबरी*२

संग बातें करते
चुल्हे की लकडियो को भी
सारते रहती आगे-पिछे
कहती रहती "ताप" सहन करना,
आना चाहिये हमे
बिना आँच लगे कुछ हासिल ना होगा
चुल्के मे पडे अंगारो की रोशनी
कम-ज्यादा होती रहती उसके मुख पर
इतनी आँच मे भी उसकी
 रोटी कभी जली नहीं,हमेशा फूली
सौंधी-सौंधी खुशबू संग
पर अब बच्चो का ऐसा नसीब कहा
कैसे निभाती होगी आग का
कम-ज्यादा करना की रोटी जले ना
जीवन के उतार-चढाव को भी
फूली रोटी के दो समान हिस्सो के समान
थमती रही अलग-अलग
क्या? ये उतार-चढाव झेलना संभव है
झेलना हमारे लिए
माँ को रोटी बनाते देखना भी
बडे तक़दीर की बात है मेरे लिए

*१-कडॆला= मिट्टी का तवा
*२ डीबरी=चिमनी

-----मूळ कवी सतीश सोळंकुरकर
अनुवाद नयना(आरती)कानिटकर

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

"माँ की सीख" मार्गदर्शन विषय आधारित

माँ ने विदा करते हुए कहा था."मेरी लाडो एक बात हमेशा ध्यान रखना अपनी पढ़ाई और मायके का कभी गुरुर ना करना.सबसे बडी  बात जो काम सामने दिखे उसे छोटा समझ कभी टालना मत,ना ही  मैं नही कर सकती तो कभी ना कहना. पहले प्यार बाँटना ,पलट के प्यार ज़रुर मिलेगा.घर की सबसे छोटी बहू बनकर जा रही हो सभी की तुमसे कोई ना कोई अपेक्षा होगी यथा संभव पूरा करना.
कोई रिवाज या कोई आदत जो तुम्हें पसंद ना आये तुरतफ़ुरत बदलने की ना सोचना अपने काम से सिद्ध कर बताना क्या गलत क्या सही.सबसे बडी बात स्वाभिमान सम्हालना पर अभिमान कभी ना करना.माँ की बात गाठ की तरह दहेज़ मे ले आयी थी मैं,तभी तो  ७ जेठ-जिठानी  और  ३ नंनदो के साथ तालमेल बैठाने मे मुझे कोई तकलिफ़ नही हुई.सबसे बडी बात की इतने बडे परिवार मे अब मेरे सिवा कोई पत्ता नही हिलता.
     वैसे ये कोई नयी बात तो ना है. हर माँ अपनी बेटी को ये सब बताती थी .
मगर ये आजकल की पीढी "पहले स्वंय से प्यार करो" के चक्कर मे "स्व" तक इतनी ज्यादा   सीमित हो गयी है कि  त्याग ,समझौता क्या होता है भूल गयी है.
 सारिका तो मुझे भी कहती रहती है -"माँ कितना काम करोगी कभी अपने मन का भी तो करो किंतु  सच बताऊँ सबको आनंदी (खुश) देखना मुझे ज्यादा भाता है. आज मैने ठान लिया चाहे मेरा मार्गदर्शन बुरा लगे पर मैं तो---.
आज बेटी की डोली विदा करते वक्त ये कान मंत्र मैने धीरे से उसके कान मे  फूंक ही दिया.

नयना(आरती) कानिटकर
१५/१२/२०१५

सोमवार, 14 दिसंबर 2015

"ओव्हरटाइम -"-विषय आधरित "चक्करघिन्नी "--लघु कथा के परिंदे

"रेखा!! मेरे मोजे-रुमाल कहाँ है,ओहोSSS शर्ट भी नही निकाल कर रखा तुमने-पता नही क्या करती रहती हो.
"सब कुछ  वही तो है अलमारी मे,तुम्हारा हिस्सा तय है उसी मे दिन-वार के हिसाब से तह करके रखती हूँ.उसमे से भी निकालने मे जोर आता है तुम्हें. मुझे भी तो ऑफ़िस जाना है." सुबह से लगी हूँ फिर भी
"चुप करो रेखा तुम मेरी बीबी हो ये सब काम तुम्हें करने ही होगें.वैसे भी वहा तो तुम नैन मट्टका करने---
वैसे भी मै आजकल आफ़िस मे ओव्हरटाइम काम कर रहा हू.
"सुनो अमित!! माँ ने बीच मे ही बात काटते हुए बोला--एक बात ध्यान से सुन लो रेखा भी घर-गृहस्थी सम्हालते हुए नौकरी कर तुम्हारे आर्थिक भार मे बराबरी से हाथ बंटा रही है.सुबह से रात  तक चक्करघिन्नी बन घूमती रहती है  वो तुमसे ज्यादा घंटे काम करती है और ये नैनमट्टक्के वाली बात -अपनी ज़बान पर काबू रखो , पहले अपनी बगले झांको वैसे भी मैं  तुम्हारी रग-रग से वाक़िफ़  हूँ.

"माँ !! मैं आपका बेटा होते हुए भी आप रेखा का पक्ष ----"
 एक स्त्री होकर भी मैं स्त्री को ना समझ पाई तो मुझसे बडा अपराधी कोई नहीं.
नयना(आरती) कानिटकर
१४/१२/२०१५

" बदला"

न्यायालय परिसर से बाहर निकलते ही सभी समाचार पत्रों के कुछ तथाकथित   पत्रकार  उसे घेर लेते है ।
पत्रकार--"महिला होकर भी बंदूक -चाकू जैसे अपने साथ रखने की वजह  । "
" वर्ग विशेष से सामूहिक बलात्कार और शोषण के खिलाफ़ बदला । "
"मगर आप ऐसे वर्ग से आती है जो मजदूरी कर पेट पालता है । इतने बडे नर संहार की जगह गाँव छोड उनके चंगुल से बचा जा सकता था ।
"शर्म करो तथाकथित पढे-लिखे लोगो-- कब तक और कहाँ तक भागती ,ये तो  मेरा पलायन हो जाता अपने अधिकारों के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का । "
"तभी दूसरा--- ये काम तो सरकार का था  । शिकायत दर्ज की जा सकती थी उनके खिलाफ़ । बंदूक उठाना तो अपराध हुआ । "
  "लोगो के सुरक्षा की ज़िम्मेदारी तो सरकार पर है । अपराध तो सरकार कर रही है ऐसे लोगो को संरक्षण देकर वोट के ख़ातिर ।
"तो अब आगे क्या  मुफ़्त की रोटी तोड़कर----- । "
"नही-नही!!-अब निकम्मो के खिलाफ़ सरकार मे जाकर बदला लूंगी । ."

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

" जिंदगी की आस"

. बहुत तेज बारिश मे अपनी संगिनी संग छाता थामे   सेना निवृत सैन्य अधिकारी  को इंतजार था अपने पोते आयुश्यमान के कोफ़िन (शव पेटी) का जो सेना के विशिष्ठ विमान से लाई जा रही थी .
 अपने बेटे की शहादत भी वो देख चूँके थे ऐसे मे उनकी सारी जिंदगी सिर्फ़ आयुष्यमान  के इर्दगिर्द सिमट गई थी. उनका पोता भी  भारत माता की रक्षा के ख़ातिर सीमा पर तैनात था.जो पहाड़ियों  पर एक अभियान   मे  शहीद हो गया. ये उनकी तीसरी पीढी थी जो देश सेवा करते हुए शहादत को प्राप्त हुई. भरी बारिश मे सेना उनके पोते  को अंतिम सलामी दे रही थी
 नीली छतरी वाला भी भर-भर आँसू बहा  शायद श्रद्धांजलि दे रहा था.ये हादसा उनके पोते के साथ नही  उनके साथ हुआ था. हादसे मे वो नही मरा ये मर गये थे अंदर तक.
सज्जनसिंग छाती पर हाथ थामे अधीर हो रहे थे उस मंजर को देख मगर   पथाराई सी सुहासिनी ने उनका हाथ  थाम रख था मज़बूती से पुन:जिंदगी की आस मे.
नयना(आरती) कानिटकर.

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

संघर्ष

जलती रही मैं तिल-तिल
संघर्ष मे, व्यंग बाणो से
कभी अपनो के तो
कभी परायो के।
"नयना"

सोंधी खुशबू

सीखती रही मैं उम्र भर
रोटी का
गोल बेला जाना
फिर भी पडती रही
सीलवटे उसमें
जो माकूल आग में
सिंकने पर भी
नहीं हो पाई सोंधी खुशबू वाली
नर्म और फूली -फूली

"नयना"

मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

गुजारिश----मुठ्ठी से रेत

कैलेंडर  का पन्ना पलटते ही उसकी नजर तारीख़ पर थम गई। विवाह का दिन उसके आँखो के आगे चलचित्र सा घूम रहा था।.सुशिक्षित खुबसुरत नेहा और आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक नीरज की जोडी को देख सब सिर्फ़ वाह-वाह करते रह गये थे.वक्त तेजी से गुज़र रहा था।.
जल्द ही नेहा की झोली मे प्यारे से दो जुडवा बच्चे बेटा नीरव और बेटी निशीता के रुप मे आ गये।.तभी --
वक्त ने अचानक करवट बदली बच्चों के पालन-पोषण मे व्यस्त नेहा खुद  पर व रिश्ते पर इतना ध्यान ना दे पाई । उसके  के हाथ से नीरज मुट्ठी से रेत की तरह फ़िसलता चला गया और एक दिन विवाह की वर्षगांठ पर उस पर अनाकर्षक का तमगा लगाकर हमेशा के लिये चला गया किसी दुसरी  बेइन्तहां ख़ूबसूरत चित्ताकर्षक यौवना का हाथ थाम कर ।
वो एकल अभिभावक बन गई बच्चों की।
वो चार दिन की चाँदनी  थी कब तक चमकती अँधेरी रात तो होनी  ही थी. उसका सब कुछ उसकी सारी धन-दौलत,  बची- खुची इज़्ज़त मिट्टी में मिला कर जा चुकी थी। अब नेहा के पास लौटने अलावा कोई चारा ना था।
अचानक डोर बेल की आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई।दरवाज़ा खोलते ही ,सामने बढी  हुई दाढ़ी और अस्तव्यस्त कपड़ों मे नीरज को देख दरवाज़ा बंद करने--
" रुको नेहा !! मैं तुमसे अपनी ग़लती की माफ़ी मांगता हूँ ,तुमसे  सिर्फ़ एक गुज़ारिश है मुझे मेरे बच्चों से दूर ना करो" बच्चों का वास्ता देकर वो-वो गिड़गिड़ाने सा लगा--

"कौन से तुम्हारे बच्चे?? ज़िम्मेदारी से हाथ झटकने वाले को मेरे घर मे कोई जगह नही है।"

नयना(आरती) कानिटकर

सोमवार, 7 दिसंबर 2015

"आभासी रंग"----चित्र प्रतियोगिता

"बादल !! देखो कितनी सुन्दर हरियाली , चलो हम कुछ देर यही टहलते है."
वो देखो मानव और प्रकृति भी है .संग नृत्य करेगे.
"बादल ने हवा का हाथ पकडते हुए  गुस्से मे कहा-- चलो!! यहाँ से  धरती माँ की गोद  मे  जहाँ सिर्फ़ प्रकृति बहन ही हो. हम वहा नृत्य करेगे".मानव तो कब का उसे छोड चुका है,बेचारी मेरी प्रकृति बहना
" बादल !!  ऐसा क्यो कह रहे हो. ये हरा रंग देखो चारो ओर कितना लुभावना है,प्रकृति का ही तो --."
" नही नही" हवा!!  अब यहाँ ना फूल है ,ना तितली,ना जंगली जानवर.बस! मानव निर्मित अट्टलिकाऎ है.अब हमे यहाँ नही रहना.
 यह तो आभासी है.इसे मानव ने हरे नोटो के साथ हरा रंग दिया है"
.
नयना(आरती) कानिटकर
05/12/2015

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

"अब लौट चले" व्यवहारिकता का चेहरा-लघु कथा के परिदे

सुरेखा कब से देख रही थी आज माँ-बाबूजी पता नहीं इतना क्या सामान समेट रहे है। बीच मे ही बाबूजी बैंक भी हो आए.एक दो बार उनके कमरे मे झांक भी आयी चाय देने के बहाने मगर पूछ ना पाई।
"माँ-बाबूजी नही दिख रहे ,कहाँ है.?"सुदेश ने पूछा
"अपने कमरे मे आज दिन भर से ना जाने क्या कर रहे है। मैं तो संकोच के मारे पूछ भी नही पा रही.तभी---
आप कहाँ जा रहे है बाबूजी आप ने पहले कुछ भी नहीं बताया.सुदेश बोल पडा--
मैं और माँ अब गाँव मे रहेंगे।
"हमसे क्या गलती हो गई माँ??,बाबूजी??"
बस बेटा गाँव का घर अब हमे पुकार रहा है.वहा हमारी १-२ बीघा ज़मीन है उसी मे भाजी- तरकारी लगा लेगे , फिर मेरी पेंशन काफ़ी है हम-दोनो के लिये,तुम चिंता ना करो।
बहुत भाग-दौड़ कर ली ता उम्र पैसे और तुम्हारी शिक्षा के लिये.अब बस सुकून के दो पल प्रकृति के सानिध्य मे बिताना चाहते  है.. ये हमारे वानप्रस्थाश्रम का समय है।
-- सुरेखा!!!ये लो इस घर की चाबियाँ आज से यह तुम्हारा हुआ।
पत्नी का हाथ थामते हुए बोले---"चलो जानकी!! अब लौट चले।"
नयना(आरती)कानिटकर
०४/१२/२०१५
मौलिक एंव अप्रकाशित
०४/१२/२०१५


हाँ बेटा हमारे पूर्वजो ने बडी सोच के साथ जीवन को ४ भागो मे विभाजित किया था

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

प्यार की गुलामी-कघुकथा के परिंदे गुलामी का अनुबंध

अंतिम सांस की आहट और खड़खड़ाहट गूंजती है अब भी कानों में मेरे. महसूसती हूँ आज भी अंतिम स्पर्श और सुनाई देती है अंतिम मौन की चीख ....
निर्जीव देह एक नही दो-दो---जीवन यात्रा का पूर्ण विराम.
वक्त के साथ सफर जारी है मेरा--मगर कब तक
’माँ उठो !! देखो ये पापा की तस्वीर के आगे कब तक यू सिर झुकाए ------"
"तेरे पापा के साथ मेरा अनुबंध था बेटा सात जन्मो का प्यार की गुलामी... . बहुत इंतजार किया बस अब और नहीं
ॐ नमो नरायण ॐ नमो नरायण ॐ शांति शांति शांति......
नयना(आरती) कानिटकर


गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

मंजर

आज भी फूंलती है सांसे
धडकता है दिल जोरो से
जब देखती हूँ सरे आम
सिगरेट का कश लेना
या फिर गलबहिया डाले
चौराहे पर घूमना उसका
आँखो के आगे नाच उठता है
वो खौफ़नाकर मंजर
स्त्रीत्व के खंड-खंड होने का
नयना(आरती) कानिटकर ०३/१२/२०१५

घूंघट का संकल्प


           बचपन से गाँव की चिरपरिचित बुराइयों को देखती आ रही  वह अब  सयानी हो चुकी थी और सब कुछ समझने लगी थी. अपने ही गाँव के सारे पुरुषों को हमेशा दिन मे बड के पेड के निचले चबुतरे पर 'तीन-पत्तीखेलते देखा था या फिर शाम होते ही शराब के नशे मे धुत्त .. सोचती क्या यही है यह पुरुष ?
 
जबकि उसके गाँव की स्त्रियाँ भोर होते ही घर का काम निपटा खेतो की ओर चल देती शाम तक खेतों में निराई-गुडाई के साथ-साथ मजदूरी करती नही थकती थी आख़िर पापी पेट का सवाल था।   वह  बडी असमंजस में थी जब देखती और सुनती की साँझ ढले घर आने पर थके शरीर पर पिल पड़ते सबके मरद ...
  
ये देख उसका तो सारा तन-बदन अंगार की तरह जल उठाता था। उसके मन पर  गहरा प्रभाव छोड़ चुकी थी यह रोज की हक़ीकत।   बस अब उसने ठान ली थी की उसका बस चले तो सब कुछ बदलने की ... पर कैसे ?
   बहुत सोच समझकर उसने
गाँव की स्त्रियों को इकट्ठा कर इस पर चर्चा की और सबकी राय जानी। इसके बाद सहमति से  पहले अवैध शराब की बिक्री पर रोक के लिए पंचायत पर धरना दिया घर-घर जाकर पुरुषों को समझाईश .. कुछ की समझ में आया कुछ निरे खूसट निकले
 सब महिलाओ ने सर्वसम्मति से "नशा मुक्ति"
और" जुआ बंदी"  का अभियान चलाया
     अब उसकी संकल्प शक्ति रंग दिखाने लगी  थी और जल्द ही गाँव की हर स्त्री का साथ उसे मिलने लगा - वह सबका दिल जीतने में कामयाब रही थी
और फिर वह दिन आ गया जब--
  सगुन बाई सर्वसम्मति से ग्राम पंचायत छाईकुआं की सरपंच चुन ली गई

    उसका सपना अब सच होने वाला था उसकी आँस जाग उठी  वह खुश थी अपने गाँव की स्त्रियों के मनोबल को देखकर
.
      उसने सरपंच की हैसियत से बचपन से हृदय में बिधे  कोलाहल को समाप्त करने की घोषणा की ---
   "
शराब पीता या जुआँ खेलता गाँव का कोई भी पुरुष नजर आयेगा या पकड़ा जायेगा तो उसके जूते-टोपी उतार उसे गाँव की सीमा के बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा "
        आज उसका पहला साक्षात्कार था कोई विदेशी पत्रकार गाँव में आई हुई थी .. गाँव टौरियाँ की किस्मत अब दुनिया देखने वाली थी !
      काश पूरा हिन्दुस्तान भी इसी तरह बेहतर हो--क्या हो पाएगा ऐसा?


  "निश्चित हो सकेगा । इसी तरह की दृढ संकल्प शक्ति के साथ"

 

मौलिक  एवं अप्रकाशित

मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

"व्रत"फासले---विषय आधारित


गुड मार्निग दोस्तो कैसे हो सब लोग ?रात को अच्छे से नींद आई ना सबको, नेहा ने जैसे ही वार्ड मे प्रवेश किया सभी के चेहरे पर मुस्कान छा गई।”
नेहा रोज के नियमानुसार सभी के हाथों गुलाब का फूल थमाते उनको प्यार की झप्पी देती जा रही थी ।तभी--
“रुको नेहा!!!हाथ थामते हुए निमेश ने कहा-तुम्हारी सेवा से मेरे मन का सारा मैल धुल चूका हैं।”
“वो मेरी बड़ी भुल थी । मुझे माफ कर दो मुझे अपने किए का पछतावा हैं और फिर तुम जो मेरी सेवाss---
“नहीं-नहीं ये अब ना हो पाएगा । वो तो मैने नर्स की ट्रेनिंग के बाद सेवा की ली हुई शपथ का परिणाम है।
“निमेश!!शरीर के घाव तो दवा से मिट सकते हैं ,दिल पर जो गहरा घाव तुमने दिया उसे भूलना असंभव है।
हमारे बीच के फासले को अब यू ही रहने दो।"
हाथ छुडा नेहा अगले मरीज की तरफ बढ़ गई।
नयना(आरती)कानिटकर
०१/१२/२०१५