शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

"हौसला"


किसना के संग ब्याह कर जब भानपुर आई तो मैने कोई ज्यादा सपने नही देखे थे। वैसे भी खेतीहर मज़दूर की बेटी दो जून रोटी और दो जोड़ी कपड़े से ज्यादा क्या सोचती। मैं भी किसना के साथ खेतो मे जी - तोड़ मेहनत करती, लेकिन इन्द्र देवता की नाराज़गी के चलते हम ज्यादा काश्त ना निकाल पाते | और साहुकार का कर्ज चढ़ गया सो अलग।
थक हार कर किसना ने माई - बाबू को मना लिया मुंबई जा कर मजदूरी के लिए। मैं भी आ गई थी उसके संग। सारा-सारा दिन ईट-सिमेंट ढोते-ढोते थके हुए दो कौर हलक में उतार बस फ़ुटपाथ पर ही सो जाते हर रात !
अधिक मेहनत से जब किसना की तबियत गडबडाने लगी तो हम वापस गाँव लौट आए। दवा-दारु मे बैल भी चुक गए।
गाँव आते ही साहुकार भी रोज चक्कर काटने लगा वसूली के लिये। पैसा ना देने पर मुझे उठाने की बात ...
 अब तो सुबह रोटी खाओ तो शाम के निवाले की मुश्किल हम पर साया बन कर पीछा कर रही थी - भला कहाँ से कर्ज चूकते ?
 
इस वर्ष एक काश्त निकलने तक तो इंतजार .... पर साहुकार के कानों जू ना रेंगती !!
तभी एक दिन भोर होते ही अचानक हरिया चिल्लाते हुए आया "... भौजी .. भौजी ... किसना ने खेत में आम के पेड पर ...." .. मेरा किसना लड़ाई हार गया था .. अब मैं किसे बताऊँ कि ..?

     
तीन दिन का सोग (शोक) मनाने के बाद मैने हिम्मत बटोरी और माई से कहा - " .. माई बैल के लिए हमे किसी के आगे हाथ नही फैलाना है, चलो .. हम खुद खेत जोत लेगे, अब तो बुआई के दिन भी नज़दीक है " मेरे कोख मे भी एक बीज ... आँगन में एक पौधा जन्म ले रहा था ... उस दिन मैने फ़ैसला किया मैं हार नही मानूँगी .. मै लडूंगी नियती से .. आख़िरी दम तक ।