सोमवार, 28 सितंबर 2020

उडान

 उड़ो आकाश भर 

कुलांचे भरती पतंग की तरह 

थामे रहो  उड़ान को अनंत तक 

फिर भी कभी जब थक जाओ 

भागते भागते 

थामते अपनी जिंदगी को 

असंतुलित हो जाए ,तुम्हारी पतंग 

खाने लगे हवा में गोते 

अंगुलियों पर कसी उसकी मंझी डोर

कांच के महीन किरचों से 

जब भर दे जख़्म,रिसते खून का 

तब उतार लेना उसे 

हौले हौले नीचे को 

मैंने आज भी बचा रखा है 

आम के पेड़ से झरता 

सुबह की कोमल घूप का टुकड़ा


और उस घने नीम की छाँव

जो अभी भी हैं

 मेरे घर आँगन में 

© " नयना "

# मेरे घर आँगन में 

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

पदचिन्हों

नहीं चाहती मैं कि
तुम भी चलो 
रेत में छपे मेरे पदचिन्हों पर 
उन पर  तो चली हूँ मैं जन्मों से
अब उभरकर आई है 
जिनमें 
वे किरचें दरारों सी 
जो मेरे दिमाग से निकल 
मेरे हृदय से गुजरते  
 फिर ठिठक गई है
पैरों के तलवे में जाकर 
जख्मों की तरह 
तुम , तुम तो 
पहले ही भर देना उन
दरारों को
बालू से निकले उन
यूरेनियम के कणों से
जो शृंखला बनाकर
भर दे तुममें 
एक अथांग ऊर्जा
और गर वक्त आ जाए कभी
अनियंत्रित अवस्था का 
तो कर देना उसका 
विखंडन ...
विस्फोटक के रुप में 
©नयना(आरती)कानिटकर
३०/०७/२०२०

रविवार, 26 जुलाई 2020

असंख्य बिंदुओं से
फैलती
तुम्हारी वृत्ताकार परिधि
में
मैं मात्र एक
केन्द्र बिंदू
"नयना"

*अकर्मण्यहीन*

हल्के में लेती
रहती हैं, वो अपनी
हारी-बिमारी को
It's ok यार
उम्र का तकाजा है
डरती है
बिस्तर पर देख उसे
कि कही
रोटी का साथ भी ना
छूठ जाए और
वो
बस तकता रहता हैं
भावना शून्य होकर
इंतजार में कि
शायद
कल दिखे बिस्तर सिमटा
थाली भोजन से भरी
"नयना"
19/07/2020

गुरुवार, 7 मई 2020



मेरा परिचय-:-
नयना(आरती) कानिटकर
शिक्षा:- एम.एस.सी,  एल.एल.बी
संप्रति:- पति के चार्टड अकाउँटंट फ़र्म मे पूर्ण कालावधी सहयोग
लघुकथा ,कविता , लेख आदि विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित। पड़ाव और पड़ताल के "नयी  सदी की धमक में लघुकथा "लालबत्ती " प्रकाशित .अनेक लघुकथा सग्रहो में साझा प्रकाशन .
nayana.kanitkar@gmail.com

रविवार, 3 मई 2020

#लेखणी
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फक्त एक दिवस तुझी लेखणी होता आलं असंत तर ?
मिरवलं असंत तुझ्या शब्दांचं मुकूट माझ्या ललाटावर।
जगले असते तुझ्या शब्दांची सखी होऊन
आणि मग माझा क्षण अन् क्षण पुलकित झाला असता।
मी ही एकरूप झाले असते तुझ्या को-या
मनाशी
कळले असते मलाही तुझ्या शब्दांच्या मनातील हळवे कोपरे
कधीतरी या हळव्या कोप-यामुळे लेखणीतली शाई संपली तर..
तर, त्यात प्रेमाने शाई भर तुझ्या मनातल्या माझ्यासाठी उचंबळणा-या हजारो रंगाची.
मग त्या रंगातून एक अवखळ गीत उमलेल.
हे गीत धुंद जीवांना आरोहातून गगणा भेटून
अवरोहात उंच झोका देईल.
हो पण कधी लेखणी मात्र हरवू नकोस, नाहीतर शब्द कायमचे गोठतील ....आपल्या श्वासापरी
©वर्षा

#कलम
गर  मात्र एक दिन हो पाती तुम्हारी कलम
धर लेती तुम्हारे शब्दों का मुकुट मस्तक पर
जी उठती मैं तुम्हारे शब्दों की सखी बन
और तब मेरा क्षण  परम आनंद से भर जाता
मैं भी एक रुप हो जाती तुम्हारे कोरे(सपाट)
मन से
मैं भी जान पाती तुम्हारे शब्दों के मन की गहराई
कभी खत्म हो जाये तुम्हारे कलम की स्याही
तब, भरना उसमें प्रेम की स्याही मेरे मन में उठने वाले हजारो रंगो की
फिर उस रंग से एक गीत फुलेगा
ये गीत जीवन को आरोह में आकाश से मिल
अवरोह मे ऊँचे उठेंगे
पर हा! अपनी कलम कभी मत खोना, वरना शब्द हमेशा के लिए स्थिर हो जाएँगे----
हमारे सांसो की तरह
मूल कविता:--वर्षा थोटे
अनुवाद/भावानुवाद:- नयना(आरती)कानिटकर

शुक्रवार, 13 मार्च 2020

गुजरा बचपन

गुजरा  बचपन

 एक खुशनुमा सी सुबह
ठंडी हवा के झोंके संग
याद दिला गई
उस  आँगन की
गाँव के गलियों की , जहाँ
गुजरा था बचपन
वो घर की दिवारें , वे आले
जिनमें  शाम को जलती थी
घासलेट की डिबरी
वो घर की बगियाँ उनमें ,
गिलहरीयों का शोर
पतझड में झरे पत्तों की सरसराहट
संग नये  नये कोपलों की खूशबू
पीपल के पेड से टंगा वह झूला
जिस पर डौलते वक्त की
वो डर भरी खिलखिलाहट
जो समय के धूल भरे ओसारे में
कही छूट गये हैं
इस दूर देश में आकर
किताबें भी नहीं दे पाई वो सीख
कि तुम्हें भूल जाऊँ
फिर में चाहे ओट दू
सारे घर के किवाड
पर यादों की खिडकियाँ
उनका क्या
वो तो खुलनी ही चाहिए ना
हैं ना  😊
©नयना(आरती)कानिटकर
१३/०३/२०२०