शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

तेरे मेरे बीच कि डोर
खिंचना नहि----
सिंचना चाहती हूँ
तेरे मेरे बीच के फासले को
बाँटना नही-----
पाटना चाहती हूं
तेरे मेरे बीच के बन्धन कों
गांठ से नही
ह्र्दय से जोडना चहती हूँ
अब तक अपने आप मे सिमटकर
बहुत जीया मैंने----
अब सागर की लहरों को
पार करना चहती हूँ
अपनी मर्यादा जानती हूँ
पंख फैलाकर आकाश में
उडना चाहती हूँ
फूँल और काँटॊ की बगिया
बहुत जीया मैने
खूशबू के समंदर मे
तैरना चहती हूँ
जीना चहती हूँ