शनिवार, 5 जुलाई 2014

याद हे तुम्हें
मैने तुमसे पूछा था
कभी बहुत पहले
तुम क्या बनना पसंद करोगे
समुद्र या की पर्वत
तब बात को टाल गये थे तुम
आज अचानक बोले
बताओ तुम मेरा
क्या बनना पसंद करो गी
गर मे समुद्र बन जाऊँ
किनारा हे ना उसमे
आश्रय मे आने वाले को
समाहित कर लेगा
या की पर्वत
जो अविचल और उदात्त है
स्थिर है गहरे से
आश्रय मे आने वालो को
अपनी तलहटी से शीर्ष तक
आसरा दे सकता है
मैं फिर सभ्रम मे हूँ
क्या चाहती हूँ
समाहित हो जाना
समुद्र मे
या की
उदात्त शीर्ष के साथ
तुम्हारे संग खडे होना
पर्वत की तरह


नयना(आरती)कानिटकर
०५/०७/२०१४