गुरुवार, 27 सितंबर 2012

खिड़की

खिड़की
र की एक अदद खिड़की से
झाँकती हूँ जब  बाहर कि ओर
सुंदर रम्य निसर्ग सौंदर्य
मन मे एक जगह बना लेता है
बाहर झाँकते ही पुर्णत्व प्राप्त होता है
इसीलिये तो मैं झाँकती हूँ
उस खिड़की कि चौखट से बाहर जब
देखती हूँ हरियाली चारों ओर
 रास्ते दूर-दूर तक कभी न खत्म होने वाले
न खत्म होने वाला उनका अस्तित्व
लेकिन मन अचानक
अस्तित्वहीन हो जाता है
वो खिड़की संकुचित लगने लगती है
चारों ओर से आने वाले तेज हवा के झोंके
बारिश के थपेडे
झेलने पड़ते है ना चाहते हुए भी
फिर मन की खिड़की कपकपाने लगती है
बंद करना चाहती हूँ उस खिड़की को
लेकिन उसमे दरवाज़े तो है हि नही
होता है सिर्फ एक अदद चौखट
फिर सहना पडता है उन थपेडों को
जीवन भर  निरंतर लगातार
फिर वो समय भी कटता है
भरता है मन के घाँव भी
सब झेल कर फिर भी लगता है
एक खिड़की तो हो ही
घर मे भी और मन की भी
जब चाहो बंद करो ,चाहो खोल दो
एकसार हो जाओ पुन:
रम्य निसर्ग के साथ भी
खूबसूरत जीवन के साथ भी