सोमवार, 21 मार्च 2016

दबा हुआ आवेश--लघुकथा के परिंदे-- दिल की ठंडक---- केक्टस मे फूल


पड़ोस के गुप्ता आंटी के घर से आती तेज आवाज़ से तन्मय के कदम अचानक बालकनी मे ठिठक गये। अरे! ये आवाज़ तो सौम्या की है।  यथा नाम तथा गुण वाली सौम्या को उसमे हरदम बस घर के कामों मे ही मगन देखा था या फ़िर चुपचाप कॉलेज जाते हुए।  हरदम उनका एक जुमला जबान पर होता काम ना करेगी तो ससुराल वाले लात मार बाहर कर देंगे।  वो भी बस चुपचाप क्यो सहती समझ ना पाया था और फ़िर वह ब्याह कर चली गई थी शहर छोड़कर...
"माँ! समझती क्यो नहीं हो भाभी पेट से है उनसे इतने भारी-भारी काम ..."
"सुन सौम्या! अब तुझे इस घर मे बोलने का कोई हक नहीं है. जो भी कहना सुनना है... और अब भाभी के रहते तुझे कोई काम को छूने की जरुरत नही है।  वैसे भी वो तेरी परकटी आधुनिक सास कुछ काम ना करती होगी। सारे दिन पिसती होगी तुम कोल्हू सी। "
"बस करो माँ! कई दिनो से सौम्या का दबा  आवेश बाहर निकल आया था।  जिसे तुम  परकटी  कह रही हो ना वो लाख गुना बेहतर है तुमसे।  समझती है मेरे मन को भी।  पुरी आज़ादी है मुझे वहाँ काम के साथ-साथ अपने शौक पूरे करने की और... ना ही भाई की तरह तुम्हारे दामाद को उन्होने मुट्ठी मे कर रखा है। "
"माँ!आखिर एक औरत ही औरत को कब समझेगी। "
पड़ोस के आँगन के केक्टस मे आज फूल खिल आये थे और तन्मय के दिल मे ठंडक।

 मौलिक एंव अप्रकाशित
नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल