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गुरुवार, 4 मार्च 2021

आशीर्वचन 01/02/2021

 सुहानी भोर का उदय हो रहा है ,मन है की आनंद में मयूर नृत्य कर रहा . बात है ही ऐसी ..

समय कैसे पंख लगाकर उड़ता है लगता है कल की ही तो बात है जब मेरे आँचल में बिटिया के बाद तुम्हारे रूप में दूसरा  सितारा जड़  गया था और परिवार ने सम्पूर्णता प्राप्त की थी . दिन बचपन  से  पढाई  और अब लुगाई 😃 तक आ पहुंचे थे .

आज  एक ओर सितारा हमारे जीवन में अपनी चमक के साथ प्रवेश कर गया .

वैवाहिक जीवन के प्रथम वर्ष की अनेकानेक बधाई मेरे बच्चों--सदा खुश रहो @अभिषेक @ अनघा 



सदा रहे ये सुखमय जीवन 

आशीर्वचन तुम्हें देते है ।


बिछे राह में सुरभित कलियाँ

प्रफुल्लित जीवन में रसमय रतियाँ

इंद्रधनुषी वो साँझ सुगंधी

बहती हवा हो रास मकरंदी 

जिसमें सदा खुशियाँ ही बरसे 

ऐसा एक उपवन देते है 


सदा रहे ये सुखमय जीवन 

आशीर्वचन तुम्हें देते है ।


सुरभी पथ में बने रंगोली 

जिंदगी रंग-रंगो की झोली 

मौसम देता रहे बधाई 

पल्लवित रहे सदा अंगनाई 

फलीभूत हो हर इच्छा क्षण  क्षण 

ऐसा कथन तुम्हें देते है 


सदा रहे ये सुखमय जीवन 

आशीर्वचन तुम्हें देते है ।


© नयना / सुरेश /अभिलाषा

 

शनिवार, 7 जनवरी 2017

निंबू चटनी ---हरी मिर्च का अचार:-

 निंबू चटनी

साफ़ दाग  रहित निंबू २२-२५( सधारण्त:) एक किलो लेकर धोकर सुखे कपडे से पोंछ कर अलग कर लिजीए. मसाले मे  मिर्च,सौफ़,जीरा, हिंग  व कुछ बेसिक मसाले जैसे बडी इलायची, लौंग, धनिया जैसे मसाले लेकर उन्हे हल्का सा भुनकर पींस लिजीए उसमे स्वादानुसार नमक और काला नमक मिलाईए.( अगर इस सब झंझट से बचना चाहते है तो नींबू चटनी अचार मसाला बाजार मे तैयार मिलता है २५०ग्राम ले आईए)

नींबु के टुकडे कर बीज निकाल लिजीए. लगभग १.५ किलो शक्कर इन टुकडों मे मिलाकर मिक्सर मे पीस लिजिए अब सारे मसाले  या रेडीमेड मसाला मिलाकर सात-आठ दिन ऐसे ही रहने दिजिए.
खास सावधानी :- नींबू-शक्कर को  पिसने के बाद  काँच या    प्लास्टिल बर्तन मे निकालकर मसाले मिलाए.
८-१० दिनों मे उपयोग मे ला सकते है.

हरी मिर्च का अचार:-

२५० ग्राम तिखी वाली हरीमिर्च को पहले गीले और फ़िर सुखे कपडे से पोंछ लिजिए. एक बाउल मे नमक,राई की दाल,  अन्त मे हल्दी की लेयर बनाईये थोडा मेथीदाना और हिंग तेल मे तलकर उसे बारिक पीस लिजीए वो उसमे मीला दिजिए अब अलग से एल कटोरी मूँगफ़ली दाना तेल थोडा हिंग डालकर धुआ उठने तक गरम किजिए व हल्दी वाली लेयर पर गोल घुमाते हुए दाल दिजिए. मिर्च के टुकडे (१ इंच या छोटे जैसे पसंद हो)  उसमे मिलाकर हिलाईए. १०-१२ नींबु का रस निकालकर( बीज हटा दे) मिलाइए .ठंडा होने पर काँ की बरनी मे भर दिजिए.८-१० दिन बाद अतिरिक्त तेल गरम कर ठंडा कर उसमे मिलाकर नीचे तक अच्छे से हिलाकर रख दिजिए.

ये तैयार है.सब
नोट:- मै सब चीजे अंदाजन लेती हूँ नाप-तौल का फ़ंडा नही है मेरे पास.  बस अनुभव

रविवार, 6 जुलाई 2014

संवाद और दूरी

संवाद और दूरी शायद आपस मे समानान्तर और साथ-साथ चलते है.आज अचानक फेसबूक पर एक परिचित से नये से परिचय होता है.(बहुत से पुराने लोग नये से मिले है मुझे).करीब१-२ साल का वक्त साथ गुजारा होगा हमने.कुछ जिम्मेदारियाँ,कुछ उम्र का अंतर,कुछ आत्मसंयमी स्वभाव हमारे संवादो के बिच एक लक्ष्मण रेखा खींच गया था
   कटू व्यवहार तो दोनो ने कभी एक दूसरे से नही किया लेकिन आत्मीयता की जो डोर बाँधि जा सकती थी उससे हम दोनो चूक गये थे.कुछ परिस्थितियाँ कुछ लोगो का दैनिक व्यवहार मे हस्तक्षेप हमे आपस मे स्वतंत्र व्यवहार के आडे आता रहा..फिर वो परिचित अन्यंत्र चले गये और संपर्क के तार चाहते हुए भी पुन: उतने नही  मिल पाये.
        जब अचानक फेसबुक पर फिर चेहरे मिले तो मन के तार पुन: जुडने की कोशिश करने लगे. कहा था ना!!!! कि कटुता या संवादहिनता तो कभी नही थी ,पर कुछ था जो हमे जुडने से रोकता था.शायद निकटता ने लक्ष्मण रेखा खींच दी थी.आज आभासी दुनिया और वैश्विक दूरी ने उस रेखा को घूसर कर दिया था.हम आपस मे बात करने लगे,एक दूसरे के status पर like और टिप्पणी देने लगे.अब एक दूसरे कि खुशहाली जानते है,बच्चों के बारे मे बात करते है,एल दूसरे के लिखे पर विचार व्यक्त करते है.
       कहते है ना अति निकटता कभी-कभी संवादहिनता पैदा करती है वैसा ही  कुछ हुआ हमारे साथ.अब लगता है संवादहिनता,संतुलित संवाद के बजाय संवादो कि स्पष्टता हमे अधिक निकट ले आती क्योंकि समाजिक और शैक्षणिक आवृती तो हमारी एक सी थी.
देखिये ना संवाद और दूरी का आपस मे कितना महत्व है.जब ये सध जाये तो नयी आत्मियता जन्म लेती है

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

परम्पराए और वैज्ञानिक आधार--3(मंत्रोच्चार)

       #परम्पराए और वैज्ञानिक आधार
#नवरात्र 
#मंत्रोच्चार 

माँssss माँssss की आवाज़ के साथ मेरी बेटी अपरा रसोई घर  में प्रवेश करती है.माँ देखो ना दादाजी को कब से माला हाथ में लिए सिर्फ़ मंत्र पढ रहे है   इससे क्या होता है.यह तो समय कि बर्बादी है सिर्फ़. 
क्या इसका कोई वैज्ञानिक आधार  है? मैं तो इन सब चीज़ो को नही मानती और आप  भी विज्ञान स्नातक होते हुए इन सब बातों पे विश्वास करती है? .हे ईश्वर आप इन सब अंधविश्वास को कब तक मानते रहेंगे.
    इतने मे दादाजी भी चाय कि फरमाइश लिये रसोई मे प्रवेश करते है.वे माँ बेटी का संवाद सुन अपरा से कहते है बेटी चाय लेकर बैठक में आओ मैं  तुम्हें विस्तार से बताता हूँ.अपरा चाय का कप लिये बैठक मे जाती है.दादाजी प्यार से उसे पास बैठा कर कहते है सुनो-------
         मैं भी पहले इन बातों मे विश्वास नही करता था.लेकिन एक बार बहुत सालों पहले जब मैं अपने मामा के घर गया था तो मेरे मामा किसी गहन ध्यान मे मग्न थे.उन्होने मुझे इशारे से बैठने को कहा और जब मन्त्रो का जाप पूरा हुआ तब मेरे कुशलता के बारे मे जानकारी ली.उस वक्त मैं ने उनसे यही बात कही जो आज तुम अपनी माँ से कह रही थी.तब मेरे मामा ने कहा वक्त आने पर मैं अपनी बात सिद्ध करुँगा.ऐसे ही काफी समय बीत गया पुन: एक बार जब मे उनके घर गया तो दरवाज़े की घंटी बजाने ही वाला था कि अंदर से मेरे लिये गालियो कि बौछार होने लगी तब मैं गुस्से मे तनतनाते हुए अपने घर आ गया ,मामा के घर कभी ना जाने कि कसम खाकर .ऐसे ही काफ़ी समय बीत गया.
जब मैं बहुत दिनो तक उनके घर नही गया तो वे बैचेन हो उठे .उन्होने ही मुझे बुलावा भेजा क्षमा याचना के साथ.दूसरे दिन मैं उनके घर पहुँचा तो उन्होने मेरे तरीफो के पूल बांधना शुरु कर दिये .मैं बडा खुश हो गया.तब वे बडी जोर से हँसने लगे हाहाहाहा------
      देखो तुम्हें कहा था ना मंत्रो का अपना महत्व होता है.उस दिन तुम्हें जब गालियाँ दी वह गुस्से का मंत्र था उसका प्रभाव तुम्हारे दिमाग पर हुआ और तुम गुस्से से भर उठे.मंत्र का प्रभाव हुआ ना तुम पर.

अभी देखो तुम्हारी तारीफ कि वह खुशी का मंत्र था उसने तुम्हें खुश कर दिया.

असल मे शब्दों के उच्चारण से जो ध्वनि तरंगें निकलती है उसका सीधा असर हमारे  मस्तिष्क के क्रिया कलापो पर होता है.मस्तिष्क मे तंत्रिका तंत्र का जाल बिछा हुआ है वह तुरंत संदेशा देते है हमारे क्रिया कलापो का, फिर इनका असर तुरंत हमारे कोशिका के कोशिका विज्ञान (cytology) पर होता है.आओ एक आसान उदाहरण देता हूँ
                   जब तुम पानी मे कंकड-पत्थर फेंकती हो तो उसमे  लहरें उत्पन्न होती जो दूर तक जाती हैं, उसी प्रकार हमारे मुँह से निकला प्रत्येक शब्द, आकाश के सूक्ष्म परमाणुओं में कंपन उत्पन्न करता है और उस कंपन से लोगों में प्रेरणा जागृ्त होती हैं। जैसे मैने उपर बताया था-----
                       मंत्र शक्ति पुर्णतया ध्वनि विज्ञान  के सिद्धांतों पर आधारित है.इनमें जो शब्द गुंथे गये है. मंत्र उच्चारण से भी एक विशिष्ट ध्वनि कंपन बनता है जो कि संपूर्ण वायु मंडल में व्याप्त हो जाता है। इसके साथ ही आंतरिक विद्दुत भी तरंगों में निहित रहती है।  उनका अपना महत्व है रासायनिक क्रियायों के फलस्वरूप शरीर में विद्दुत जैसी एक धारा प्रवाहित होती है(आंतरिक विद्दुत) तथा मस्तिष्क से विशेष प्रकार का विकिरण उत्पन्न होता है। इसे आप मानसिक विद्दुत कह सकते हैं। यही मानसिक  विद्दुत (अल्फा तरंगें) मंत्रों के उच्चारण करने पर निकलने वाली ध्वनि के साथ गमन कर,दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करती है या इच्छित कार्य संपादन में सहायक सिद्ध होती है। 
     मंत्र साधना से मन ,बुद्धि,चित्त मे असाधारण परिवर्तन होता है.विवेक ,दुरदर्शिता .तत्वज्ञान और बुद्धि मे उच्चता प्राप्त होती है.
          मैं जो"आँखो"के लिये रोज मंत्र जाप करता हूँ उसका असर असाधारण रुप से मेरी दृष्टि क्षमता पर हुआ है.कल से मैं तुम्हें अलग अलग मंत्रो के बारे मे जानकारी दूँगा.
साथ ही मंत्रो को उच्चरित करते वक्त अलग अलग प्रकार के मानकों का उपयोग किया जाता है जैसे रुद्राक्ष , स्फटिक , चन्दन की लकड़ी से बने मोती आदि. हाथों के अंगुली की मुद्रा बनाकर भी जाप किया जा सकता है.
     अपरा अपलक संतुष्ट भाव से दादाजी को निहार रही थी.अरे!!  अरे!!! अब उठो अपना ध्यान पढाई मे लगाओ बाकी बातें हम अब बाद मे करेंगे.
   जी!!जीSSSS दादाजी अब हमारी क्लास भी शाम को रोज लगा करेगी नये-नये मंत्रो के बारे मे जानने के लिये
नयना (आरती) कानिटकर

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शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

परम्पराए और वैज्ञानिक आधार--2(ii)

आज अमृता अपनी दादी के साथ शाम के पूजा और आरती मे सहयोग कर रही थी.माँ यह सब देखकर मन ही मन प्रसन्न होती है.
  सुनो बेटा अमृता आज मैं तुम्हें शाम की पूजा के बाद जप-तप उपवास का महत्व बताती हुँ.----
  
पूजा के बाद अमृता बडी उत्सुकता से माँ के पास बैठती है. पहले मैं तुम्हें जप के बारे मे बताती हूँ.किसी भी मंत्र की बार-बार कि गयी आवृत्ती या दोहराना जप कहलाता है.यह आप अपने सामर्थ्य के अनुसार ११-२१-५१-१०१ आदी बार कर सकते है.
लेकिन माँ इससे क्या होता है अमृता सवाल करती है एक ही बार  किसी चीज़ को बार बार दोहराना समय कि बर्बादी नही है क्याँ?

 नही बेटा ये संस्कृत मे लिखे मंत्र बार बार दोहराने से इनसे जो स्पंदन होता है वह हमारे दिमाग कि मालिश करता है .इससे हमारी बुद्धि तेज होती है और बार बार दोहराने से ग्रहण करने कि क्षमता बढती है.साथ -साथ हमारी जिव्हा की भी कसरत होती है .इससे हमारे उच्चारण स्पष्ट होते है.मैं तो चाहती हूँ स्कुलो मे संस्कृत विषय कक्षा एक  से ही रखा जाये तो बच्चों को पढने मे आसानी होगी.
अब उपवास के बारे में सुनो 
शरीर शोधन की दृष्टि से  व्रत एक विज्ञानपरक आध्यात्मिक पद्धति है, क्योंकि जप, मंत्र प्रयोग, सद्चिंतन, ध्यान, स्वाध्याय के साथ-साथ प्राकृतिक- चिकित्सा-विज्ञान के प्रमुख सिद्धान्तों का उसमें भली प्रकार समावेश रहता है। 
उपवास में पाचन यंत्रें को विश्राम व नवजीवन प्राप्त करने का अवसर मिलता है। पेट में भरी हुई अम्लता, दूषित वायु एवं विषाक्तता शरीर के विभिन्न अगणित रोगों का बड़ा कारण है। 
      अब रही उपवास की बात तो किसी धर्म ग्रंथ मे यह नही कहा गया कि आपको भूखा रहना है. उपवास करना मतलब अपने आप को किसी विशिष्ट चीज़ों के लिये कुछ घंटे, कुछ दिन तक दूर रखना.हमारे उदर को भी आराम करने का समय प्रदान करना.इससे हमारा पाचन संस्थान सुचारु रुप से चल सके.
    "लेकिन माँ!  लोग तो उपवास के नाम पर अनेकों ऐसी चीज़े ग्रहण करते है" 

 ये तो  उनका भोजन मे स्वाद का परिवर्तन है बेटा!! इसमे कई बार हम जरुरत से ज्यादा भी खा लेते है.
जैसे मैने तुम्हें बताया "विशिष्ट चीज़ों के लिये कुछ घंटे, दिन तक दूर रखना" इसमे हमारे संयम की परीक्षा है बेटी इससे  कई आवश्यकता पडने पर  कठिन परिस्थिति में  भी हम  अपने आप को संतुलित रख पाते है.मनुष्य जीवन मे अनेक उतार चढ़ाव आने पर भी हम परिस्थिति से लड़  सकते है.
साथ ही ये ध्यान रखना है कि किसी बीमार व्यक्ति ने धर्म के नाम पर तो उपवास बिल्कुल नही रखना चाहिये.

   अब रही तप कि बात तो यह उपवास और जप के उपर कि पायदान है इसमे अनेकों पहलू है जो साधारण मनुष्य के वश की बात नही है.

अमृता माँ कि बताई बातो से संतुष्ट होती है --कहती है माँ अगले वर्ष नवरात्रि  मे मैं मेरी सबसे प्रिय चीज़ होगी उसे ९ दिनो तक दूर रहकर उपवास करूगीं ---जैसे आइसक्रीम-हा हा हा
 माँ भी हँसते हुए उसकी बात का समर्थन करती है.

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

परम्पराए और वैज्ञानिक आधार- और वैज्ञानिक आधार---2(i)

परम्पराए और वैज्ञानिक आधार---२(i)
नवरात्र पूजन

"माँ!-माँ ! अरे दादी!-दादी!  की पुकार लगाते हुए अमृता  जैसे ही पूजा घर मे प्रवेश करती है. माँ और दादी नवरात्रि की पूजा कि तैयारी मे लगे हुए थे.दादी उसे हाथ-मुँह धो कर हमारी मदद के लिये आओ ऐसा आदेश देती है।
    "दादी जब देखो तब आप कुछ ना कुछ पूजा और परंपरा के नाम पर हमे काम के आदेश देती रहती हो."ओह! नो  दादी ! आप भी ना अमृता झल्लाते हुए बुरा सा मुँह बनाकर दादी से कहती है
"अरे चुपकर, पहले मेरी बात सुन " दादी का आदेशात्मक स्वर 

"अब आप ही बताओ नवरात्रि मे घट पूजा करने से क्या होगा,और ये जंवारे इस पर किसलिये बोये जाते है ? इससे क्या होगा , इससे  भला भगवान कैसे ख़ुश होगें?"

दादी अमृता के प्रश्नों कि बौंछारो से अनुत्तरित हो जाती है---सिर पर हाथ मारकर कहती है तुम आजकल के बच्चे कुछ सुनने को तैयार ही नही होते |
           लेकिन बताओ ना माँ , दादी ये सब क्यो करना होता है। तब माँ प्यार से उसे अपने पास बैठाती है कहती है ध्यान से सुनो ---------

            हमारे धर्म और संस्कृति मे हर चीज का अपना महत्व है । हम समयानुसार प्रकृति प्रदत्त हर चीज़ो को महत्व देते हुए पूजते है जो हमारे जीवन प्रवाह के लिये अनमोल है। उसी प्रकार इस "घट स्थापना" के पिछे भी एक वैज्ञानिक आधार है.

      बेटा इन दिनो खरीफ़ की फसल आ चुकी है.रबी के फसल कि तैयारियाँ चल रही है.इन खरीफ़ और रबी की फसल के बारे मे तुम्हें बाद मे बताऊंगी अभी तो "घट स्थापना" का महत्व सुनो---असल मे वर्षा ऋतु के बाद धरती मे मे जल का स्तर इस वक्त उच्चांक बिन्दू पर होता है। यह जल या पानी हमे अक्षय तृतीया (सधारणत: जेठ मास) तक चलना होता है .घट स्थापना के वक्त उस घट  मे भी पानी होता है वास्तव मे यह उस जल की भी पूजा है..घट शब्द का अर्थ हम ’उदर’ से भी लगा सकते है .धरती मे संचित पानी से हमे आगे का जीवन निर्वाह करना है,यही धरती का उदर रबी कि फ़सल तैयार करेगा,नवांकुर पैदा होगें नई फ़सल आएगी।

      यही पूजा प्रतीकात्मक है माँ के महत्व की.। माँ भी तो सृष्टि की  रचयीता है इसलिये नवरात्रि मे माँ के शक्ति की पूजा होती है और रही घट मे जंवारे बोने कि बात तो सुनो यह तो एक प्रकार का बीज परीक्षण है।आज तो अनेक उन्नत  विधियाँ है बीज परीक्षण की लेकिन दशकों पहले विज्ञान इतना उन्नत नही था।

  यही "आदि शक्ति" धरती माँ हमे अपने निर्वाह के लिये अन्न और पानी देगी ये उस माँ का नमन हे बेटा!
अब रही बात जप-तप और उपवास कि उसका वैज्ञानिक  कारण कल तुम्हें बताती हूँ

       अमृता आश्चर्य से माँ को देख रही थी और बडे ध्यान से सुन भी रही थी इस पूजा के महत्व को लेकिन एक प्रश्न से अभी भी अनुत्तरित थी  कि इतनी महत्वपूर्ण  पूजा करते हुए भी आज हम स्त्री शक्ति कि अवहेलना क्यों करते है। एक तरफ़ ९ दिनो तक माँ की पूजा करते है और दूसरी तरफ़ कन्या भ्रूण हत्या.

  काश: अमृता के मन मे उठते प्रश्नों का उत्तर उसकी माँ दे पाये.

नयना(आरती) कानिटकर

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

तोल -मोल

 दूध पिते वक्त शैतानी करते हुए मुनमुन के हाथ से थोड़ा स दूध ढलक जाता है .मुनमुन तिरछी निगाह से अपने दादी को देखती है ,दादी उसे गुस्से से देख रही थी.दादी को इस तरह  ढोलना, फैला ना   अस्तव्यस्त करन बिलकुल पसंद नही है.
      ओह!! दादी थोडासा दूध ढुलने पर आप कितनी नाराज़ हो रही हो? लाओ मैं साफ़ किये देती हूँ .किंतु दादी का मन बैचेन हो जाता है वो मु्नमुन  से कहती है जानती हो दूध अपने घर तक किस तरह पहुँचता है नही ना तो सुनो-----
       बच्चे वाली गाय या भैंस का दूध दुहकर हमारे घर आता है. उस वक्त जब उस दूध पर जन्मसिद्ध हक होता है उस गाय या भैंस के बच्चे का.उस बच्चे को उसके( माँ) के स्तनपान से रोका जाता है.सोचों माँ के अमृत समान दूध को हम उसके मुँह से छिनते है अपने पोषण के लिये क्या ये उस बच्चे के साथ अन्याय नही है?.
         गाय या भैंस का यह दूध इतना मूल्यवान है कि इसे पैसे से नही गिना जा सकता .कप भर,ग्लासभर या लिटर  ये तो बस तोल-मोल के व्यवहार है.माँ के प्रेम कि लंबाई चौड़ाई (आयतन) नही नापा जा सकता.तुम भी इस बात पर विचार करो क्या तुम्हारे माँ कि दी हुई कोई भी वस्तु तुम किसी से जल्दी से साझा कर पाती हो नही ना तो फिर ये तो उसका भोजन है फिर भी हम उससे छिन लेते है.
          फिर सिर्फ़ दूध हि क्या धरती माता द्वारा दी हुई कोई भी वस्तु धनधान्य,वनाऔषधि,फूल,सुगंध आदी का उपयोग हमे कृतज्ञता एवं समझदारी से करना चाहिये.
         दूध के बहाने दिये दादी के सौम्य उपदेश कितने हित कर व उपयोगी थे.जो धीरे-धीरे  मुनमुन के समझ मे आ गये.
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कुछ चीज़ो को पैसों से नही गिना जा सकता उसका तोल-मोल भी नही किया जा सकता.मुनमुन का व्यक्तित्व परिपक्व होना भी उतना हई अनमोल है.जितना दूध का व्यर्थ नष्ट ना होना.

सोमवार, 10 सितंबर 2012

थोरियम घोटाला

          ६ सितंबर को सभी सामाजिक साइट एक अति उच्च तापमान कि खबर से लबालब थी वह है      ४८,०००००,००००००००(करीब ४८ लाख करोड रुपये) के घोटाले की.मेरे कार्यालयीन सहयोगी प्रणय ने मेरा ध्यान इस ओर आकर्षित किया था.
  यह पृथ्वी के इतिहास का सबसे बडा घोटाला कहा जा सकता है.
 हमारी UPA सरकार ने पुरी अवधि मे घोटाले के अलावा कुछ नही किया.यह UPA सरकार का अटूट घोटाला रिकार्ड है.
  सरकार इसे बडे हल्के ढंग से ले रही है अन्यथा उसका चुनावी स्वास्थ्य बिगड़ सकता है और मीडिया भी थोरियम घोटाले के बारे मे कुछ नही कह रहा यह बडा प्रश्नवाचक चिन्ह है.जबाब भी हम जानते है मीडिया को भव्य कमीशन मिलेगा अपना मुँह बंद रखने के लिये.
        साथ ही हमारी सोनिया जी अपनी अज्ञात बीमारी के चलते उपचार के लिये विदेश मे है.घोटाला बाहर आ गया तो उनका स्वास्थ्य ओर बिगड सकता है.
                                  आइये जानते है थोरियम क्या है.
भारत  परमाणु वैज्ञानिको के अनुसार थोरियम हमारे परमाणु कार्यक्रम के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण धातु है. इसने हमे परमाणु बिजली संयत्रो मे असीमित मात्रा मे लगने वाले यूरेनियम के आयात पर निर्भरता से मुक्त कर दिया है क्योंकि थोरियम समुद्र तट पर रेत से निकाला जाता है.
       स्टेट्समेन कि एक रिपोर्ट के अनुसार सरकार Monazite जिससे थोरियम निकाला  जाता है कच्चे माल के निर्यात को नियंत्रित करने मे नाकाम रही  है बल्कि २.१ लाख टन निर्यात कि अनुमति दी है.रिपोर्ट के अनुसार Monazite  से निकले थोरियम कि अनुमानित किमत १०० डालर प्रति टन है.इस प्रकार सरकारी ख़ज़ाने(राज कोष) को ४८ लाख करोड रुपये का नुकसान परमाणु ईंधन कार्यक्रम के लिये होगा.
      Monazite क्या है?.यह सिर्फ़ रेत नही है बल्कि विशेष रुप से केरल,उड़ीसा,तमिलनाडु के समुद्री तटों से मिलने वाला ऐसा कच्चा उत्पाद है जिससे १०% थोरियम का उत्पादन हो सकता है.२००५ के बाद से इन तटों से अंधाधुंद खनन का काम चल रहा है.
      थोरियम को यूरेनियम के आइसोटोप मे बदला जाता है जो परमाणु रिएक्टर मे अंतहीन(multipale times) बिजली उत्पाद में प्रयोग किया जाता है.इसे बार-बार उपयोग मे लाया जा सकता है.
       भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र के एक रिएक्टर  जो चेन्नई के निकट कलपक्कम में है थोरियम से संचालित होता है.कलपक्कम मे ५०० मेगावाट कि फास्ट ब्रिदर रिएक्टर पर भी काम चल रहा है
  थोरियम ईंधन  में मुख्य विशेषता यह भी है कि इससे रेडिओ विशाक्त अपशिष्ट भी कम निकलते है.
 हाल ही मे जुलाई मे परमाणु उर्जा के अध्यक्ष आर.के.सिन्हा ने कहाँ है कि परमाणु बिजली संयंत्र मे थोरियम को यूरेनियम क स्थान लेने मे थोड़ा समय लग सकता है लेकिन थोरियम संचालित रिएक्टर मॉडल का  का हमे आकलन करना चाहिये.
  भारतीय परमाणु  उर्जा कार्यक्रम के लिये यह बहुत महत्वपूर्ण है इसलिये भारत सरकार को इसके निर्यात की नीति के बारे मे बडी सुरक्षा से कदम उठाना चाहिये.
  १३७ साल पुराने समाचार पत्र स्टेट्समेन ने बडे पैमाने पर थोरियम घोटाले का पता लगाया है .तो क्या अब इसे सिर्फ महालेखा परीक्षक के कार्यालय मे छोड देना उचित होगा.
                  "आइये हम सब मिलकर इसके विरुद्ध आवाज़ उठाए"
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अल्प समय और अल्प बुद्धि से जानकारी बटोरकर आप तक पहुचाँने प्रयास है.अधिक जानकारी http://indiandefenceboard.com/threads/thorium-scam-biggest-scam-in-india.4069/ से प्राप्त कर सकते है.

बुधवार, 5 सितंबर 2012

परम्पराए और वैज्ञानिक आधार---भाग (१)




भारतीय संस्कृति में पुरातन समय से कई परंपराए चली आ रही है जिनका कही-कही तो निर्बाध गती से पालन होता है किंतु कुछ का आधुनिकता के चलते त्याग कर दिया जाता है.विज्ञान सम्मत कुछ परंपराओं को हमे मानना चाहिये इसलिये यह उप क्रम.
               अभी कुछ दिनों पूर्व एक समाचार पत्र के कालम मे पढने मे आया कि "ट्रसी बायर्न" जो बच्चों के पैरों पर विशेष संशोधन कर रही है का कहना है कि बहुत कम उम्र से जुते उपयोग मे लाने से बच्चों  मे अनेक दोष उत्पन्न होते है एवं उनके मस्तिष्क  विकास मे बाधा पहुँचती है.उनका कहना है कि हम जैसे चमड़े य अन्य किसी वस्तु के जुते पहनाते है तो पैरो का नैसर्गिक विकास रुक जाता है.बच्चा जितना छोटा खतरा उतना अधिक है.वास्तव मे बच्चों के पैर उपास्थि(cartilage) के बने होते है और १६-१७ वर्ष कि उम्र तक आकर उनका अस्थिकरण होता है.
           रेंगकर(घुटनों के बल) चलने वाले बच्चों को जुते पहनाना बडा धोकादायक हो सकता है.कई सम्पन्न लोग अपनी शान के लिये घुटनों के बल चलने बच्चों को जुते पहनाते है लेकिन इससे उनके निकट दृष्टि कौशल मे बधा उत्पन्न होती है जो आगे जाकर उसके वाचन कौशल  मे बाधा उत्पन्न कर सकते है
               हम भारतीय घरों मे भी  जुते बाहर उतारने कि परंपरा है उसका मुल भी यही रहा होगा. लेकिन आधुनिकता के चलते आजकल ऐसा अनुरोध करने पर लोग इसे अपना अपमान समझते है ऐसा मेरा स्वानुभव है.हमारे घरों मे यह परंपरा रही है कि कही बाहर से आने पर जुते बाहर उतार कर पहले पैर-हाथ धोने के बाद हम घर मे चहलकदमी कर सकते है.किसी अतिथि के आने पर भी बाहर उसके हाथ- पैर धुलाने की व्यवस्था कि जाती थी.
            एकबार मुझे याद है मेरे घर कोई परिचित आये थे मुझे घर मे नंगे पाँव काम करते देखकर उपहास करते हुए उन्होने मेरी आर्थिक स्थिति पर व्यंग्य किया था.जब मैने उन्हें बताया कि हमारे घरों मे चप्पल पहनकर काम करने कि आदत ही नही डाली जाती हमारे यहा जुते-चप्पलो का स्थान देहरी के बाहर ही होता है तो उन्होंने मेरी स्वच्छता पर व्यंग्य किया था.अब चूँकि ज्यादा देर जुते पहने रहना या घर मे भी जुते पहने रहना कितना नुकसानदायक है यह अमेरिका में संशोधन के रुप मे स्वीकार हो चुका है तो अब वे तथाकथित भारतीय भी इसका अनुसरण करेंगे.
          बचपन मे जब हम स्कूल जाया करते थे तो वहाँ भी जुते-चप्पल कक्षा के बाहर एक पंक्ति मे उतारने कि परंपरा थी और टाटपट्टी पर नीचे बैठकर सामने एक डेस्क(ढलवां मेज़) पर अभ्यास का क्रम चलता था.आजकल स्कूल जाने के समय से लेकर घर वापस आने तक ७-८ घंटे या अघिक समय तक जुते का प्रयोग उनके पैरो कि निरोगी वृद्धि मे बाधा निर्माण कर सकते है और इतने समय तक मेज़- कुर्सी पर पैर लटका कर बैठना उनके पैरो के रक्त संचार मे बाधा उत्पन्न कर सकता है.
       मेरा उन सभी पालको से अनुरोध है कि अपने बच्चों को कम से कम घरों में तो भी नंगे पाँव घूमने दे खेलने दे.परंपराओं का निर्वाह करते हुए बच्चों के स्वस्थ्य एवं निरोगी भविष्य के लिये यह अत्यंत आवश्यक है.

मंगलवार, 7 अगस्त 2012


संरक्षित खाद्द्य पदार्थ भाग-2
              
संरक्षित खाद्द्य पदार्थ भाग-1 मे मैने अचार मुरब्बे के बारे मे लिखा था.आज दो  अहम संरक्षित खाद्द्य पदार्थ इस सूची मे जुड रहे  है वे दो अन्य खाद्द्य पदार्थ है-बडी-पापड.
          आज बहूत तेज वर्षा का क्रम जारी है ऐसे मे घर से बाहर सब्जी खरीदने निकलना तो दूर बडा कठीन भी है.साथ ही साथ पानी कि वजह से सडी-गली सब्जी खरीदने के स्थान पर कोई अन्य उपाय निकालना बेहतर समझा . अपनी माँ के साथ ग्रिष्म ऋतु मे बनाई बडी कि याद हो आई.बचपन से मेरे घर मे बडी बनाने कि एक प्रथा सी है और मै भी उसकी उपयोगिता समझकर व्यसतता के बीच भी बडी तन्मयता से अपनी बेटी के साथ उस प्रथा को निभाने का भरसक प्रयत्न करती हूँ.
           मूंग दाल,चना दाल,उडद दाल के साथ बनाई जाने वाली बडी अनेको प्रकार से बनाई जाती है.कोई सभी दालो को मिलाकर ,तो कोई अलग-अलग दालो मे कुछ सब्जियाँ आदी मिलाकर बनाते है तो कुछ केवल दालो के साथ.
         घर मे बचपन से मूंग एवं चना दाल कि बडी बनाई जाती है दाल को रातभर भिगो कर रखा जाता है. सुबह उसका पानी निथार कर पत्थर पे थोडा दरदरा पिसा जाता है बिल्कुल नाम मात्र के पानी के साथ पिसते वक्त उसमे अदरक ,जीरा ,मिर्च आदी मसाले मिलाये जाते है.पिसी दाल का घनापन इतना हो कि वह फैले नही. मेरी माँ बडी रचनात्मक एंव कलात्मक प्रवृती कि है जब हम बचपन मे बडी बनाते तो वे हम दोनो  बहनो के बीच एक प्रतियोगीता रख देती कि कौन आकार मे एक जैसी और उसके डालते वक्त सुंदर डिज़ाइन कि रचना करता है और हम दोनो बहने खेल-खेल मे बहूत सारी बडी चुटकी मे बना देते थे.
        आज मैने इन्ही बडी का उपयोग सब्जी बनाने किया .आलू तो सभी सब्जियों का सखा है.टमाटर कि ग्रेवी के साथ हरिमिर्च और धनिया पत्ती इसके स्वाद को दोगुना कर देती है.इस शुद्ध शाकाहारी सब्जी के आगे अनेको नामांकित सब्जीयाँ फिकी पड जाती है.साथ मे भूना पापड और गर्म-गर्म रोटियाँ वाह!!!! बारिश का आनंद दोगुना हो जाता है.
    उडद और चने की दाल के आटे से बने पापड के भी क्या कहने.वो तो किसी भी ॠतु मे कभी भी ,समारोह मे भी अपनी आमद दर्ज करता है.बचपन मे आस-पडौस कि चाची-मौसी के साथ इन्हे बनाने का अपना अलग मजा था.ये आस-पडौसी का मिलन समारोह भी हुआ करता था.उम्र मे छोटी हम बहने कडक गूंथे आटे से छोटे-छोटे पापड बनाती ,फिर माँ ,चाची मौसी उन्हे बडा आकार देती .हम बच्चे उन्हे सुखाने मे मदद करते.
     ऐसे अनेको संरक्षित खाद्द्य पदार्थ है जो गाहे- बगाहे ,परेशानियो मे हमारी मदद करते है हमारी रसोईमे.

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

संरक्षित खाद्द्य पदार्थ भाग-१

 रविवार का दिन था कुछ छुट्टी का महौल ,हफ़्ते भर कि भागदौड- व्यस्तता के बाद आराम करने कि इच्छा लेकिन अचानक रसोई मे प्रवेश करते ही सामने रखा कच्चे आम का(कैरी) का ढेर देखकर मन उत्साह से भर जाता है और अचानक दादी की याद आने लगती है.मन ३०-३५ साल पिछे चला जाता है.जब जुन-जुलाई के माह में वर्षा कि एक बौछार के बाद दादी की तैयारी प्रारंभ हो जाती थी आम के अचार एवं मुरब्बे के लिये.उस वक्त अचार का मसाला रेडिमेड नही मिलता था.रविवार के दिन हमारा पुरा परिवार अचार बनाने के काम मे जुटता था मेरे छोटे बहन-भाई को कैरी धोकर पौंछने का काम करना होता था.कैरी को काटने मे ताकत लगती सो वह काम पिताजी किया करते.चूँकि तब सारे मसाले घर मे ही तैयार होते सो माँ और दादी मिलकर हल्दि,नमक कूटते, सौंफ़-मेथी साफ करते,मेरा काम होता था राई कि दाल बनाना.राई कि दाल बनाना बडे कौशल का काम था लेकिन माँ-दादी कि सख्त हिदायत कि ये काम मुझे सिखना हि है.राई कि दाल सिल-बट्टे पर तैयार करना होती.राई को सिल (बडा-आयताकार खुरदुरा पत्थर) रखकर बट्टे से हलके हाथों से गोल-गोल घुमाते हुऎ दो भागों मे पाटना होता था राई का छिलका भी निकले और वो बारिक भी ना टुटे एकदम मस्त दो पाटो मे बँटी दाल से अचार कि शोभा अलग ही होती है.फिर सूपे से उसे फटकारना भी दादी ने सिखाया क्योकि राई कि दाल और छिलका दोनों हल्के ,छिलका उडे एवं दाल सूपे मे बची रहे. माँ-दादी के मार्गदर्शन में अचार का मसाला तैयार होता लेकिन सभी के दिल (मन लगाकर किया काम) और प्यार के नमक कि एक चुटकी उसमे डलि होती.तैयार मसाले मे कैरी के टुकडो को डालने के बाद बारी आती तेल कि जिसे गरम करते वक्त उसमें हिंग डाला जाता उसकि खुश्बू से सारा घर यहाँ तक कि पडौस भी महक उठता था.उस आम के अचार मे अडौसी-पडौसी कि भी हिस्सेदारी होती थी.शाम को कटोरियो मे अचार भरकर लेन -देन होता,प्यार आपस मे बटँता था.अब कब घर मे अचार बनता है या रेडिमेड आता है पता नही.
                      फिर शाम को नये अचार के साथ (एक पैन केक) थालीपीठ-- जो बहूत सारे अनाज को धोकर-भूनकर बने आटे से बनाया जाता था.उसके स्वाद से आज के पिज्जा का कोई मुकाबला नहि और अगर शाम को बारिश हो रहि हो तो सोने मे सुहगा.बडे मस्त दिन थे.
                   साथ ही मुरब्बा भी साल भर के लिये तैयार किया जाता था.दोपहर मे ३-४ बजे भुख लगने पर थोडा मुरब्बा और रोटी मिलती थी.आज कि तरह पेस्ट्री-पेटीस तब नही थे ना.हालाँकि पेस्ट्री-पेटीस का अपना अलग स्वाद है बस सिर्फ वो घर मे थालीपीठ के समान फ़टाफट तैयार नहि हो सकता. थालीपीठ बहु अनाजी होने से सेहत के लिये भी ज्यादा ठीक है .हाँ संतृप्त वसा उसमे भी है किन्तु पेस्ट्री-पेटीस से कम.
                अचार-मुरब्बे के अलावा बहुत सारे संरक्षित खाद्य पदार्थ है हिन्दुस्तान में उनके बारे मे आगे फिर कभी लिखूँगी--------निरन्तर

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

ठंड के वो दिन

           वातावरण के तापमान ने करवट बदलना शुरू कर दिया है.हेमन्त ऋतु दरवाजे पर दस्तक दे चुकी है.गुलाबी सर्दी के साथ वातावरण खुशनुमा हो चुका है.कम्बल, लिहाफ,ऊनी वस्त्र संदूक से बाहर आ चुके है.घरो मे विभिन्न प्रकार के लड्डुओ की खुशबू कभी-कभार ही महसूस हो रही है,क्योंकी बच्चे अब इन पौष्टिक लड्डुओ पर कम  रूझान रखते है,उन्हे तो पिज्जा और पस्ता मे ज्यद आनंद आता है.वो मेथी के लड्डू ,गाजार का हलवा कही खो गये है,मोटापे का डर दिखाकर.बच्चे ये समझने को तैयार हई नहिं कि मेथी के लड्डू ठंड मे हड्डीयों मे कितनी ताकत भरते है जो साल भर हड्डीयों मे ग्रीसिंग (machin ke lubrication) का काम करती है
                          सबसे बुरा हाल तो ऊन के गोले और सलाइयों का है जो चूपचाप एक कोने मे पडे हुऎ है.रेडिमेड के जमाने ने नानी-दादी और माँ से उनकी रचनात्मक खूबियाँ छिन ली है.मुझे याद हे ठंड के आते ही १०-१२-१४ नंबर की सलाइयों कि आपसी कशमकश ,ऊन की लच्छीओ क गोले मे बदलना और फिर सलाइयों से ज्यामितीय य फूल पत्ती के डिजाइन बनाना.इक दूसरे से मानो होड सी लगी रहती थी कि कौन सबसे अच्छा  और नया(unique) डिजाइन तैयार करता है.बुनाई करते-करते दसो बार उसकि नप्ती करना ये एहसास दिलाता था कि बुनने वाला कितनी प्यार से उसके लिये बुनाई कर रह है.वाकई स्वेटर कि वो गर्माहट अब महसूस हि नहीं होती.सलाइयों कि वो आपसी टकराहट जो प्यार कि गर्मी पैदा करती थी कहि खो गई है.वो प्यार का एहसास हम खो चुके हैं.