शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

औंस की बूँदे-२(अस्तित्व)

औंस की बूँद बन मैं
इठला रही थी यहाँ वहाँ
मैदानों की हरी दूब पर
पेड़ो की डाल-डाल पर
अल सुबह तुम्हारे साथ :)
कई इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे मैने
तुम्हारे ताप के डर से
कई बार विचलित हुई
लगा अब अस्तित्व नष्ट
और फिर अचानक
तुम दूर चले गये मुझसे
कई दिनो के लिये
मैं बादल संग डौलती रही
हवा की गोद में
तुम्हें यूँ नकारना उफ़!!!
तकलीफ़ दे गया मुझे
मेरे उन इन्द्रधनुषी रंगों का क्या
रंगों के बिना तो मेरा जीवन????
रंगहीन,नकारा
शायद तुम्हारे उस
उजास ताप के साथ ही
मेरा अस्तित्व कायम हैं
वरना तो मैं सिर्फ़ एक बूँद

नयना(आरती)कानिटकर
३०/०१/२०१५