मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

" ओव्हर टाईम"-लघुकथा के परिंदे

अलभौर ही उसके काम की शुरुआत हो जाती पानी भरने से .यू तो नल घर मे था मगर छत की टंकी तक पानी जाने मे वक्त लगता  तो सारे काम चलते नल मे करने की जल्दी मे भागम भाग करना पड़ती.फिर घर बुहारना,बच्चों के स्कूल का टिफ़िन,चाय-नाश्ता,दोपहर के भोजन की व्यवस्था और घर को समेट उसे भी काम पर जाना होता.लौटकर आती तो फिर वही धुले बरतन जमाना, कपड़े समेटना,अगले दिन की भाजी-तरकारी की व्यवस्था,रात का खाना(घर वालो की फ़रमाईश का) सारा दिन चक्करघिन्नी सी घूमती काम करती रहती थी.शायद अब उम्र का तकाजा था शरीर इतने सारे काम के लिए साथ ना दे पा रहा था.मगर कहती किससे वो भी तो सुपर वुमन बनने की होड मे बिना किसी गिले-शिकवे के यह सब करती रही  और हम भी कभी मन से उसे काम मे हाथ ना बटा पाए.
अचानक गश खाकर गिरने पर तुम्हारे माथे की चोट इतनी गहरी लगी है कि सारी भावनाएँ उसमे गहरा गई है.मैं तुम्हें इस अवस्था मे नही देख सकता "अनुराधा",तुम्हें जल्द ही  कोमा  की स्थिति से लौटना ही  होगा मेरी जान.
कही ये ओव्हरटाइम,टाइम ओव्हर ना हो जाए.

नयना(आरती) कानिटकर.
२९/१२/२०१५