शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

 अनेकों की तादाद में हैं
वे पुतले या कि निर्जीव प्रतिमाएँ
हर गाँव ,शहर के चौराहे पर
उकेरे हुआ है उनका इतिहास भी,
शिलाओं पर

कुछ तो अभी भी है स्मृतियों मे
इसलिये मिल जाता है,उन्हे
फूलों का हार,तालियों की करतल ध्वनि
सुनते है अपने गुणों का बखान
किंतु,वे निर्विकार,खामोश

वो बस देखता रह जाता है
अपने विचारों, सलाहो को ,
रौंदते हुए

किसी दिन अचानक
अपनी ही संतान को याद आता है
अस्तित्व उसका
वो चिखकर बताना चाहता है
उसके भ्रष्ट कोने की बात

एक रात कोई असहाय
लेता है उसकी शरण,मगर
कुल्हो पर डंडे की मार से
खदेड़ा जाता है उसे
फ़िर छूट जाती है उसकी,
टूटी चप्पले,निशान के तौर पर

मूळ कविता---- श्रीधर जहागीरदार
अनुवाद -----     नयना(अरती) कानिटकर