मंगलवार, 21 जून 2016

"दया की दाई" इंसानियत की पीडा-- ---- ओबीओ २९-एप्रिल २०१६


--इंसानियत की पीडा--

वह  जल्द से जल्द घर पहुँचना चाहता था ताकि अपनी गर्भवती पत्नी को थोड़ा घूमा लाए। कई दिनों से दोनो कही बाहर नही गए थे ऑफ़िस से लेपटाप ,पेपर आदि  समेट कर वह लगभग भागते हुए प्लेटफॉर्म पर पहुँचातभी तेज गति की लोकल उसके सामने से निकल गई. उफ़ अब वक्त जाया हो जायेगा सारा

अचानक उसकी नजर प्लेटफ़ॉर्म की सीढ़ियों के नीचे गई।  अच्छी खासी भीड़ जमा थी वहां। कुतुहल  वश वह भी पहुँच गया
अरे! यह क्या ये तो वही भिखारन है जो लगभग रोज उसे यहाँ दिख जाती थी। पता नही किसका पाप ढो रही थी बेचारी आज दर्द से कराह रही थी शायद प्रसव- काल निकट आ गया था "
सहसा पत्नी का गर्भ याद कर विचलित हो गया
 भीड़ मे खड़े स्मार्ट फ़ोन धारी सभी नवयुवक सिर्फ़ विडिओ बनाने मे व्यस्त थे"
" जितने मुँह उतनी बातों ने ट्रेन के शोर को दबा दिया था"

तभी एक किन्नर  ने आकर अपनी साड़ी उतार उसको  आड कर दिया
" हे हे हे... ये किन्नर इसकी जचकी कराएगा" सब लोग उसका मजाक उडाने लगे थे.
चुप कारो बेशर्मो, चले परे हटो यहाँ से तुम्हारी माँ-बहने नहीं हे क्या? किन्नर चिल्लाते हुए बोला.


धरती से प्रस्फ़ुटित होकर नवांकुर बाहर आ चुका था किन्नर ने  उसे उठा अपने सीने से लगा लिया

अब सिर्फ़ नवजात के रोने की आवाज थी एक जीवन फिर  पटरी पर आ गया था
दोयम दर्जे ने इंसानियत दिखा दी थी, भीड़ धीरे-धीरे  छटने लगी

मौलिक एवं अप्रकाशित

नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल

०३/०५/२०१६




" हलवे का घी"

" हलवे का घी"

माँ से बिछडने का गम उसे अन्दर तक साल रहा थाI  उन्हें बरसों से तरह-तरह की बीमारियों ने जकड़ रखा थाI लेकिन साथ ही  कहीं ना कहीं उसे इस बात का संतोष  भी  था कि अंतत: उन्हे कष्टों से छुटकारा मिल गयाI
उनके कमरे के सामने से गुजरते बरबस आँखें भर आई I अब उसके लिए  गठरिया कौन सहेजेगा ,मकई का आटा,मूँग बडी,नींबू अचार ,कितना कुछ होता  था उसमें. अपने आँचल से कोरों को पोछने हुई  कि भाभी ने आवाज लगाई
"आ जाओ  बहना! खाना तैयार है. दामाद जी भी  वापसी की  जल्दी मचा रहे है। आओ! आज सब कुछ तुम्हारी पसंद का बनाया हैं. पुलाव, भरमा बैंगन, आटे-गुड का तर घी हलवा"
किंतु उसकी जिव्हा तो चिरपरिचित स्वाद के लिये व्याकुल थी
" अरे!चलो भी देर हो रही है , मुझे दफ़्तर भी  तो जाना है."रितेश ने  रोष में आवाज लगाते हुए बोला
बेमन से कुछ कौर उसने हलक से नीचे उतारे, पानी का घूट भरा और तुरंत सामान उठा बाहर को निकल पडी.
देहरी पार कर कार मे बैठने को हुई तो   भैया ने कुछ कागज हस्ताक्षर के लिये  आगे कर दिए
 

" ये क्या है भैया"

" वो जायदाद के...." हकलाते हुए भैया ने कहा
 उनके हाथों से कागज लेकर हस्ताक्षर के स्थान पर भरे नेत्रो से बस "स्नेह" ही लिख पाई कि...
कार अपने मंज़िल को निकल पडी

नयना(आरती)कानिटकर

 

प्रकृति और पर्यावरण


प्रकृति और पर्यावरण


उदास भोर
तपती दोपहर
कुम्हलाई शाम
धुआँ ही धुआँ
गाड़ी का शोर
अस्त व्यस्त मन
ये कैसा जीवन

मानव ने किया विनाश
हो गया सत्यानाश
पहाड़ हो गये खाली
कैसे फूल उगाँए माली

सूखा निर्मल जल
प्रदूषित नभमंडल
जिस देखो औद्योगिक मल
कैसे हो जंगल मे मंगल


कही खो गये है
वन-उपवन, वो बसंत का आगमन
कैसे गूँजे अब, कोयल की तान
बस! भाग रहा इंसान

मौलिक एवं अप्रकाशित




"छल" लघुकथा के परिंदे---निर्जन पगडंडी १ ली प्रस्तुति.



एक कथानक के तीन रूप
१-----
तेरह दिन का शोक और श्राद्ध करके सारे रिश्तेदार जा चुके थे. "कैसी औरत है मांग का सिंदूर पुछ गया,मजाल जो एक आँसू भी बाहर निकला हो ." सब के खुसफ़ुस ताने, तिरस्कार,धिक्कार, समझ कर भी अंजान बनी रही थी .जिंदा लाश बनी वह सब कुछ देखती,सुनती,सहती रही थी.

घर की व्यवस्था को ठिक करने के लिये उसने छुट्टी ले  रखी थी.बेटे को स्कूल भेज अस्तव्यस्त सामान को समेटने लगी थी कि उनके  अलमारी  की चाबी हाथ लग गई . खोली तो देखा बेतरतीब  भरी पड़ी थी. वो कभी उसके सामने उसे नही खोलते थे  और चाबियाँ सदा पास रखते थे. वैसे भी वो उनकी केवल पत्नी थी,राजदार  थी ही कहाँ कि अचानक  डायरी हाथ लग गई. पेज पलटती गई उसी के साथ रंग स्याह पडता गया था उसका . जीवन के १० वर्ष सामने थे उसके. पढते-पढते वह तिल मिला उठी.
"मैं पुरुष हूँ  ही कहाँ और पति धर्म ..  यह राज मेरे और अखिलेश के सीवा कोई नही जानता."
इतना बडा छल , धोखा , . तो क्या मधुयामिनी की रात अचानक रोशनी का चले जाना एक जान-बूझकर किया गया षडयंत्र  था . क्या दाम्पत्य की बुनियाद केवल सेक्स पर ही...जो अंधेरे का फ़ायदा उठा उनके दोस्त ने..
सब कुछ जान चुकी थी, अब डायरी में पढने को बचा ही क्या था. डायरी के हर पृष्ठ पर उनकी बेचारगी थी. निर्जन पगडंडी पर अकेले  चलते रहे थे आदित्य. अपनी पौरुष हिनता को छिपाने का ऐसा दिखावा कि शक होने लगे कि वे किसी अन्य को  चाहते है. उनके दुख के सामने अदिती का दु:ख बौना हो गया था.
उसने डायरी  हाथों मे भींच ली.
इसे आग लगानी होगी,अभी इसी वक्त अनुज के स्कूल लौटने से पहले ताकि उसके हदय मे पिता स्मृति आत्मिक और पावन बनी रहे.

नयना(आरती) कनिटकर
१०/०६/२०१६



 २---
तेरह दिन का शोक और श्राद्ध करके सारे रिश्तेदार जा चुके थे"कैसी औरत है मांग का सिंदूर पुछ गया,मजाल जो एक आँसू भी बाहर निकला हो |" सब के खुसफ़ुस ताने, तिरस्कार,धिक्कार, समझ कर भी अंजान बनी रही थी .जिंदा लाश बनी वह सब कुछ देखती,सुनती,सहती रही थी|
 माँ की बिमारी के चलते विवाह भी तो कोर्ट मे ही हुआ था.
  वो भी क्या करती प्रथम रात्री के पश्चात आदित्य उससे दूर रहने के सैकडो बहाने   ढूँढ लाते थे.कभी सासू माँ की बिमारी, कभी आफ़िस का दौरा...फ़िर कभी वो उनके स्नेह का स्पर्श महसूस नही कर सकी थी|
प्रकृति ने भी  तो उस रात्री मे ही अपनी रासलिला रचा ली थीउसका भाग्य  मातृत्व की और कदम बढा गया था|
बाद मे वह घर,बच्चा,सासू माँ और कालेज की नौकरी  मे ही व्यस्त हो गई|
वो तिल-तिल जलती रही उनके सानिध्य के लिये.ये तो भला था कि विवाह से पूर्व से ही कामकाजी थी.

घर की व्यवस्था को ठिक करने के लिये उसने छुट्टी ले  रखी थी.बेटे को स्कूल भेज अस्तव्यस्त सामान को समेटने लगी थी कि उनके  अलमारी  की चाबी हाथ लग गई . खोली तो देखा बेतरतीब  भरी पड़ी थी. वो कभी उसके सामने उसे नही खोलते थे  और चाबियाँ सदा पास रखते थे. वैसे भी वो उनकी केवल पत्नी थी,राजदार  थी ही कहाँ कि अचानक  डायरी हाथ लग गई. पेज पलटती गई उसी के साथ रंग स्याह पडता गया था उसका . जीवन के १० वर्ष सामने थे उसके. पढते-पढते वह तिल मिला उठी.

"मैं पुरुष हूँ  ही कहाँ और पति धर्म ..  यह राज मेरे और अखिलेश के सीवा कोई नही जानता."
इतना बडा छल , धोखा , . तो क्या मेरे साथ... मधुयामिनी की रात अचानक रोशनी का चले जाना एक जान-बूझकर किया गया षडयंत्र  था . क्या दाम्पत्य की बुनियाद केवल सेक्स पर ही...जो अंधेरे का फ़ायदा उठा उनके दोस्त ने..
सब कुछ जान चुकी थी, अब डायरी में पढने को बचा ही क्या था. डायरी के हर पृष्ठ पर उनकी बेचारगी थी. निर्जन पगडंडी पर अकेले  चलते रहे थे आदित्य. अपनी पौरुष हिनता को छिपाने का ऐसा दिखावा कि शक होने लगे कि वे किसी अन्य को  चाहते है. उनके दुख के सामने अदिती का दु:ख बौना हो गया था. मगर वह उनकी तरह डरपोक नहीं थी, उसने  प्रण कर लिया  नये रास्ते पर चलकर अनुज  को उसके असली पिता का हक दिलाने का.

डायरी  को अपने हाथो से आग के हवाले कर   भस्म कर  दिया.

"छल"


३---
तेरह दिन का शोक और श्राद्ध करके सारे रिश्तेदार जा चुके थे "कैसी औरत है मांग का सिंदूर पुछ गया,मजाल जो एक आँसू भी बाहर निकला हो " सब के खुसफ़ुस ताने, तिरस्कार,धिक्कार, समझ कर भी अंजान बनी रही थी। जिंदा लाश बनी वह सब कुछ देखती,सुनती,सहती रही थी
याद है उस दिन बेटे को स्कूल भेज अस्तव्यस्त सामान को समेटने लगी थी कि उनके  अलमारी  की चाबी हाथ लग गई उनके  अलमारी  की चाबी सदा कौतुहल का  विषय  रहा था  अचानक  डायरी हाथ लग गई पेज पलटती गई उसी के साथ रंग स्याह पडता गया था उसका
"मैं पुरुष हूँ  ही कहाँ और पति धर्म ..  यह राज मेरे और अखिलेश के सीवा कोई नही जानता"
इतना बडा छल , धोखा , . तो क्या मधुयामिनी की रात अचानक रोशनी का चले जाना एक जान-बूझकर किया गया षडयंत्र  था  निर्जन पगडंडी पर अकेले थे आदित्य  अपनी पौरुष हिनता को छिपाने का ऐसा दिखावा कि शक होने लगे कि वे किसी अन्य को  चाहते है। उनके दुख के सामने अदिती का दु:ख बौना हो गया था। मगर वह उनकी तरह डरपोक नहीं थी, उसने  प्रण कर लिया  नये रास्ते पर चलकर अनुज  को उसके असली पिता का हक दिलाने का

नयना(आरती) कनिटकर
१०/०६/२०१६