शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

फ़िर सोचती ही रह गई।

मैं चाहू कुछ तो बोलू
पर फ़िर सोचती ही रह गई
बात तो आई ज़ुबा पे
लबो परही सिमट गई
लगता है कुछ रुककर बोलू
धीरे-धीरे सिलसिला खोलू
पर पर्वत सी हिम्मत मेरी
माटी सम बह गई
फ़िर सोचती ही रह गई।
जो चाहू फ़िर वैसा ही होगा
सिर्फ़ सपने देखती रह गई
रिश्ते नाते के भ्रम में
अधूरी खोखली रह गई
कितना मुश्किल है चुभे काँटे को
हौले से निकाल पाना लेकिन
काँटो मे खिलते गुलाब को देख
अपना दर्द हँसते-मुस्कुराते सह गई
फ़िर सोचती ही रह गई।

 

बुधवार, 21 नवंबर 2012

सागर

बैठी हूँ समुद्र किनारे
देखती हूँ
लहरों कि अठखेलियाँ
मन भी उन लहरों
के साथ
अठखेलियाँ करने लगता है
पर सागर तो इठलाता है
हरदम अपनी लहरों पर
लगता है
मैं भी इठलाउँ
 चुन लाऊँ
इस विशाल अथांग
सागर से
सुंदर-सुंदर मोती
पीरोलू माला उनकी
पहन गले मे इठलाऊँ
फिर
लगाने लगती हूँ
गोते अनेकों
पर हाथ मे कुछ नही समाता
क्योंकि वहाँ तो ढेर है
सुंदर-सुंदर मोतीयों का
ज्ञान के सागर कि तरह
उसमे जीतने गोते लगाओ
हर बार एक अलग मोती
हाथ लगता है
इसलिये उसे गले मे पहन
इठलाया नही जा सकता
इसलिये यह अथांग सागर
इठलाता है
अपनी लहरों पर

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

परम्पराए और वैज्ञानिक आधार--2(ii)

आज अमृता अपनी दादी के साथ शाम के पूजा और आरती मे सहयोग कर रही थी.माँ यह सब देखकर मन ही मन प्रसन्न होती है.
  सुनो बेटा अमृता आज मैं तुम्हें शाम की पूजा के बाद जप-तप उपवास का महत्व बताती हुँ.----
  
पूजा के बाद अमृता बडी उत्सुकता से माँ के पास बैठती है. पहले मैं तुम्हें जप के बारे मे बताती हूँ.किसी भी मंत्र की बार-बार कि गयी आवृत्ती या दोहराना जप कहलाता है.यह आप अपने सामर्थ्य के अनुसार ११-२१-५१-१०१ आदी बार कर सकते है.
लेकिन माँ इससे क्या होता है अमृता सवाल करती है एक ही बार  किसी चीज़ को बार बार दोहराना समय कि बर्बादी नही है क्याँ?

 नही बेटा ये संस्कृत मे लिखे मंत्र बार बार दोहराने से इनसे जो स्पंदन होता है वह हमारे दिमाग कि मालिश करता है .इससे हमारी बुद्धि तेज होती है और बार बार दोहराने से ग्रहण करने कि क्षमता बढती है.साथ -साथ हमारी जिव्हा की भी कसरत होती है .इससे हमारे उच्चारण स्पष्ट होते है.मैं तो चाहती हूँ स्कुलो मे संस्कृत विषय कक्षा एक  से ही रखा जाये तो बच्चों को पढने मे आसानी होगी.
अब उपवास के बारे में सुनो 
शरीर शोधन की दृष्टि से  व्रत एक विज्ञानपरक आध्यात्मिक पद्धति है, क्योंकि जप, मंत्र प्रयोग, सद्चिंतन, ध्यान, स्वाध्याय के साथ-साथ प्राकृतिक- चिकित्सा-विज्ञान के प्रमुख सिद्धान्तों का उसमें भली प्रकार समावेश रहता है। 
उपवास में पाचन यंत्रें को विश्राम व नवजीवन प्राप्त करने का अवसर मिलता है। पेट में भरी हुई अम्लता, दूषित वायु एवं विषाक्तता शरीर के विभिन्न अगणित रोगों का बड़ा कारण है। 
      अब रही उपवास की बात तो किसी धर्म ग्रंथ मे यह नही कहा गया कि आपको भूखा रहना है. उपवास करना मतलब अपने आप को किसी विशिष्ट चीज़ों के लिये कुछ घंटे, कुछ दिन तक दूर रखना.हमारे उदर को भी आराम करने का समय प्रदान करना.इससे हमारा पाचन संस्थान सुचारु रुप से चल सके.
    "लेकिन माँ!  लोग तो उपवास के नाम पर अनेकों ऐसी चीज़े ग्रहण करते है" 

 ये तो  उनका भोजन मे स्वाद का परिवर्तन है बेटा!! इसमे कई बार हम जरुरत से ज्यादा भी खा लेते है.
जैसे मैने तुम्हें बताया "विशिष्ट चीज़ों के लिये कुछ घंटे, दिन तक दूर रखना" इसमे हमारे संयम की परीक्षा है बेटी इससे  कई आवश्यकता पडने पर  कठिन परिस्थिति में  भी हम  अपने आप को संतुलित रख पाते है.मनुष्य जीवन मे अनेक उतार चढ़ाव आने पर भी हम परिस्थिति से लड़  सकते है.
साथ ही ये ध्यान रखना है कि किसी बीमार व्यक्ति ने धर्म के नाम पर तो उपवास बिल्कुल नही रखना चाहिये.

   अब रही तप कि बात तो यह उपवास और जप के उपर कि पायदान है इसमे अनेकों पहलू है जो साधारण मनुष्य के वश की बात नही है.

अमृता माँ कि बताई बातो से संतुष्ट होती है --कहती है माँ अगले वर्ष नवरात्रि  मे मैं मेरी सबसे प्रिय चीज़ होगी उसे ९ दिनो तक दूर रहकर उपवास करूगीं ---जैसे आइसक्रीम-हा हा हा
 माँ भी हँसते हुए उसकी बात का समर्थन करती है.

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

परम्पराए और वैज्ञानिक आधार- और वैज्ञानिक आधार---2(i)

परम्पराए और वैज्ञानिक आधार---२(i)
नवरात्र पूजन

"माँ!-माँ ! अरे दादी!-दादी!  की पुकार लगाते हुए अमृता  जैसे ही पूजा घर मे प्रवेश करती है. माँ और दादी नवरात्रि की पूजा कि तैयारी मे लगे हुए थे.दादी उसे हाथ-मुँह धो कर हमारी मदद के लिये आओ ऐसा आदेश देती है।
    "दादी जब देखो तब आप कुछ ना कुछ पूजा और परंपरा के नाम पर हमे काम के आदेश देती रहती हो."ओह! नो  दादी ! आप भी ना अमृता झल्लाते हुए बुरा सा मुँह बनाकर दादी से कहती है
"अरे चुपकर, पहले मेरी बात सुन " दादी का आदेशात्मक स्वर 

"अब आप ही बताओ नवरात्रि मे घट पूजा करने से क्या होगा,और ये जंवारे इस पर किसलिये बोये जाते है ? इससे क्या होगा , इससे  भला भगवान कैसे ख़ुश होगें?"

दादी अमृता के प्रश्नों कि बौंछारो से अनुत्तरित हो जाती है---सिर पर हाथ मारकर कहती है तुम आजकल के बच्चे कुछ सुनने को तैयार ही नही होते |
           लेकिन बताओ ना माँ , दादी ये सब क्यो करना होता है। तब माँ प्यार से उसे अपने पास बैठाती है कहती है ध्यान से सुनो ---------

            हमारे धर्म और संस्कृति मे हर चीज का अपना महत्व है । हम समयानुसार प्रकृति प्रदत्त हर चीज़ो को महत्व देते हुए पूजते है जो हमारे जीवन प्रवाह के लिये अनमोल है। उसी प्रकार इस "घट स्थापना" के पिछे भी एक वैज्ञानिक आधार है.

      बेटा इन दिनो खरीफ़ की फसल आ चुकी है.रबी के फसल कि तैयारियाँ चल रही है.इन खरीफ़ और रबी की फसल के बारे मे तुम्हें बाद मे बताऊंगी अभी तो "घट स्थापना" का महत्व सुनो---असल मे वर्षा ऋतु के बाद धरती मे मे जल का स्तर इस वक्त उच्चांक बिन्दू पर होता है। यह जल या पानी हमे अक्षय तृतीया (सधारणत: जेठ मास) तक चलना होता है .घट स्थापना के वक्त उस घट  मे भी पानी होता है वास्तव मे यह उस जल की भी पूजा है..घट शब्द का अर्थ हम ’उदर’ से भी लगा सकते है .धरती मे संचित पानी से हमे आगे का जीवन निर्वाह करना है,यही धरती का उदर रबी कि फ़सल तैयार करेगा,नवांकुर पैदा होगें नई फ़सल आएगी।

      यही पूजा प्रतीकात्मक है माँ के महत्व की.। माँ भी तो सृष्टि की  रचयीता है इसलिये नवरात्रि मे माँ के शक्ति की पूजा होती है और रही घट मे जंवारे बोने कि बात तो सुनो यह तो एक प्रकार का बीज परीक्षण है।आज तो अनेक उन्नत  विधियाँ है बीज परीक्षण की लेकिन दशकों पहले विज्ञान इतना उन्नत नही था।

  यही "आदि शक्ति" धरती माँ हमे अपने निर्वाह के लिये अन्न और पानी देगी ये उस माँ का नमन हे बेटा!
अब रही बात जप-तप और उपवास कि उसका वैज्ञानिक  कारण कल तुम्हें बताती हूँ

       अमृता आश्चर्य से माँ को देख रही थी और बडे ध्यान से सुन भी रही थी इस पूजा के महत्व को लेकिन एक प्रश्न से अभी भी अनुत्तरित थी  कि इतनी महत्वपूर्ण  पूजा करते हुए भी आज हम स्त्री शक्ति कि अवहेलना क्यों करते है। एक तरफ़ ९ दिनो तक माँ की पूजा करते है और दूसरी तरफ़ कन्या भ्रूण हत्या.

  काश: अमृता के मन मे उठते प्रश्नों का उत्तर उसकी माँ दे पाये.

नयना(आरती) कानिटकर

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

तोल -मोल

 दूध पिते वक्त शैतानी करते हुए मुनमुन के हाथ से थोड़ा स दूध ढलक जाता है .मुनमुन तिरछी निगाह से अपने दादी को देखती है ,दादी उसे गुस्से से देख रही थी.दादी को इस तरह  ढोलना, फैला ना   अस्तव्यस्त करन बिलकुल पसंद नही है.
      ओह!! दादी थोडासा दूध ढुलने पर आप कितनी नाराज़ हो रही हो? लाओ मैं साफ़ किये देती हूँ .किंतु दादी का मन बैचेन हो जाता है वो मु्नमुन  से कहती है जानती हो दूध अपने घर तक किस तरह पहुँचता है नही ना तो सुनो-----
       बच्चे वाली गाय या भैंस का दूध दुहकर हमारे घर आता है. उस वक्त जब उस दूध पर जन्मसिद्ध हक होता है उस गाय या भैंस के बच्चे का.उस बच्चे को उसके( माँ) के स्तनपान से रोका जाता है.सोचों माँ के अमृत समान दूध को हम उसके मुँह से छिनते है अपने पोषण के लिये क्या ये उस बच्चे के साथ अन्याय नही है?.
         गाय या भैंस का यह दूध इतना मूल्यवान है कि इसे पैसे से नही गिना जा सकता .कप भर,ग्लासभर या लिटर  ये तो बस तोल-मोल के व्यवहार है.माँ के प्रेम कि लंबाई चौड़ाई (आयतन) नही नापा जा सकता.तुम भी इस बात पर विचार करो क्या तुम्हारे माँ कि दी हुई कोई भी वस्तु तुम किसी से जल्दी से साझा कर पाती हो नही ना तो फिर ये तो उसका भोजन है फिर भी हम उससे छिन लेते है.
          फिर सिर्फ़ दूध हि क्या धरती माता द्वारा दी हुई कोई भी वस्तु धनधान्य,वनाऔषधि,फूल,सुगंध आदी का उपयोग हमे कृतज्ञता एवं समझदारी से करना चाहिये.
         दूध के बहाने दिये दादी के सौम्य उपदेश कितने हित कर व उपयोगी थे.जो धीरे-धीरे  मुनमुन के समझ मे आ गये.
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कुछ चीज़ो को पैसों से नही गिना जा सकता उसका तोल-मोल भी नही किया जा सकता.मुनमुन का व्यक्तित्व परिपक्व होना भी उतना हई अनमोल है.जितना दूध का व्यर्थ नष्ट ना होना.

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

खिड़की

खिड़की
र की एक अदद खिड़की से
झाँकती हूँ जब  बाहर कि ओर
सुंदर रम्य निसर्ग सौंदर्य
मन मे एक जगह बना लेता है
बाहर झाँकते ही पुर्णत्व प्राप्त होता है
इसीलिये तो मैं झाँकती हूँ
उस खिड़की कि चौखट से बाहर जब
देखती हूँ हरियाली चारों ओर
 रास्ते दूर-दूर तक कभी न खत्म होने वाले
न खत्म होने वाला उनका अस्तित्व
लेकिन मन अचानक
अस्तित्वहीन हो जाता है
वो खिड़की संकुचित लगने लगती है
चारों ओर से आने वाले तेज हवा के झोंके
बारिश के थपेडे
झेलने पड़ते है ना चाहते हुए भी
फिर मन की खिड़की कपकपाने लगती है
बंद करना चाहती हूँ उस खिड़की को
लेकिन उसमे दरवाज़े तो है हि नही
होता है सिर्फ एक अदद चौखट
फिर सहना पडता है उन थपेडों को
जीवन भर  निरंतर लगातार
फिर वो समय भी कटता है
भरता है मन के घाँव भी
सब झेल कर फिर भी लगता है
एक खिड़की तो हो ही
घर मे भी और मन की भी
जब चाहो बंद करो ,चाहो खोल दो
एकसार हो जाओ पुन:
रम्य निसर्ग के साथ भी
खूबसूरत जीवन के साथ भी


सोमवार, 10 सितंबर 2012

थोरियम घोटाला

          ६ सितंबर को सभी सामाजिक साइट एक अति उच्च तापमान कि खबर से लबालब थी वह है      ४८,०००००,००००००००(करीब ४८ लाख करोड रुपये) के घोटाले की.मेरे कार्यालयीन सहयोगी प्रणय ने मेरा ध्यान इस ओर आकर्षित किया था.
  यह पृथ्वी के इतिहास का सबसे बडा घोटाला कहा जा सकता है.
 हमारी UPA सरकार ने पुरी अवधि मे घोटाले के अलावा कुछ नही किया.यह UPA सरकार का अटूट घोटाला रिकार्ड है.
  सरकार इसे बडे हल्के ढंग से ले रही है अन्यथा उसका चुनावी स्वास्थ्य बिगड़ सकता है और मीडिया भी थोरियम घोटाले के बारे मे कुछ नही कह रहा यह बडा प्रश्नवाचक चिन्ह है.जबाब भी हम जानते है मीडिया को भव्य कमीशन मिलेगा अपना मुँह बंद रखने के लिये.
        साथ ही हमारी सोनिया जी अपनी अज्ञात बीमारी के चलते उपचार के लिये विदेश मे है.घोटाला बाहर आ गया तो उनका स्वास्थ्य ओर बिगड सकता है.
                                  आइये जानते है थोरियम क्या है.
भारत  परमाणु वैज्ञानिको के अनुसार थोरियम हमारे परमाणु कार्यक्रम के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण धातु है. इसने हमे परमाणु बिजली संयत्रो मे असीमित मात्रा मे लगने वाले यूरेनियम के आयात पर निर्भरता से मुक्त कर दिया है क्योंकि थोरियम समुद्र तट पर रेत से निकाला जाता है.
       स्टेट्समेन कि एक रिपोर्ट के अनुसार सरकार Monazite जिससे थोरियम निकाला  जाता है कच्चे माल के निर्यात को नियंत्रित करने मे नाकाम रही  है बल्कि २.१ लाख टन निर्यात कि अनुमति दी है.रिपोर्ट के अनुसार Monazite  से निकले थोरियम कि अनुमानित किमत १०० डालर प्रति टन है.इस प्रकार सरकारी ख़ज़ाने(राज कोष) को ४८ लाख करोड रुपये का नुकसान परमाणु ईंधन कार्यक्रम के लिये होगा.
      Monazite क्या है?.यह सिर्फ़ रेत नही है बल्कि विशेष रुप से केरल,उड़ीसा,तमिलनाडु के समुद्री तटों से मिलने वाला ऐसा कच्चा उत्पाद है जिससे १०% थोरियम का उत्पादन हो सकता है.२००५ के बाद से इन तटों से अंधाधुंद खनन का काम चल रहा है.
      थोरियम को यूरेनियम के आइसोटोप मे बदला जाता है जो परमाणु रिएक्टर मे अंतहीन(multipale times) बिजली उत्पाद में प्रयोग किया जाता है.इसे बार-बार उपयोग मे लाया जा सकता है.
       भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र के एक रिएक्टर  जो चेन्नई के निकट कलपक्कम में है थोरियम से संचालित होता है.कलपक्कम मे ५०० मेगावाट कि फास्ट ब्रिदर रिएक्टर पर भी काम चल रहा है
  थोरियम ईंधन  में मुख्य विशेषता यह भी है कि इससे रेडिओ विशाक्त अपशिष्ट भी कम निकलते है.
 हाल ही मे जुलाई मे परमाणु उर्जा के अध्यक्ष आर.के.सिन्हा ने कहाँ है कि परमाणु बिजली संयंत्र मे थोरियम को यूरेनियम क स्थान लेने मे थोड़ा समय लग सकता है लेकिन थोरियम संचालित रिएक्टर मॉडल का  का हमे आकलन करना चाहिये.
  भारतीय परमाणु  उर्जा कार्यक्रम के लिये यह बहुत महत्वपूर्ण है इसलिये भारत सरकार को इसके निर्यात की नीति के बारे मे बडी सुरक्षा से कदम उठाना चाहिये.
  १३७ साल पुराने समाचार पत्र स्टेट्समेन ने बडे पैमाने पर थोरियम घोटाले का पता लगाया है .तो क्या अब इसे सिर्फ महालेखा परीक्षक के कार्यालय मे छोड देना उचित होगा.
                  "आइये हम सब मिलकर इसके विरुद्ध आवाज़ उठाए"
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अल्प समय और अल्प बुद्धि से जानकारी बटोरकर आप तक पहुचाँने प्रयास है.अधिक जानकारी http://indiandefenceboard.com/threads/thorium-scam-biggest-scam-in-india.4069/ से प्राप्त कर सकते है.

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

कई दिनो बाद आज
बादलों की आड से
जब सूरज ने झांका
बंद खिड़की के पल्लो
बीच कि दरार से एक किरण
प्रवेश कर गई घर के अंदर
साथ मे लाई थी प्रकृति
सारी खुशनुमाई  समेट
एक उजाले के रुप में
बस मिल गया जीवन को
एक लक्ष्य पुन: लड़ने का
अंधियारे के बादल भगा
दूर तक रोशनी की किरण
संग चलने का---


बुधवार, 5 सितंबर 2012

परम्पराए और वैज्ञानिक आधार---भाग (१)




भारतीय संस्कृति में पुरातन समय से कई परंपराए चली आ रही है जिनका कही-कही तो निर्बाध गती से पालन होता है किंतु कुछ का आधुनिकता के चलते त्याग कर दिया जाता है.विज्ञान सम्मत कुछ परंपराओं को हमे मानना चाहिये इसलिये यह उप क्रम.
               अभी कुछ दिनों पूर्व एक समाचार पत्र के कालम मे पढने मे आया कि "ट्रसी बायर्न" जो बच्चों के पैरों पर विशेष संशोधन कर रही है का कहना है कि बहुत कम उम्र से जुते उपयोग मे लाने से बच्चों  मे अनेक दोष उत्पन्न होते है एवं उनके मस्तिष्क  विकास मे बाधा पहुँचती है.उनका कहना है कि हम जैसे चमड़े य अन्य किसी वस्तु के जुते पहनाते है तो पैरो का नैसर्गिक विकास रुक जाता है.बच्चा जितना छोटा खतरा उतना अधिक है.वास्तव मे बच्चों के पैर उपास्थि(cartilage) के बने होते है और १६-१७ वर्ष कि उम्र तक आकर उनका अस्थिकरण होता है.
           रेंगकर(घुटनों के बल) चलने वाले बच्चों को जुते पहनाना बडा धोकादायक हो सकता है.कई सम्पन्न लोग अपनी शान के लिये घुटनों के बल चलने बच्चों को जुते पहनाते है लेकिन इससे उनके निकट दृष्टि कौशल मे बधा उत्पन्न होती है जो आगे जाकर उसके वाचन कौशल  मे बाधा उत्पन्न कर सकते है
               हम भारतीय घरों मे भी  जुते बाहर उतारने कि परंपरा है उसका मुल भी यही रहा होगा. लेकिन आधुनिकता के चलते आजकल ऐसा अनुरोध करने पर लोग इसे अपना अपमान समझते है ऐसा मेरा स्वानुभव है.हमारे घरों मे यह परंपरा रही है कि कही बाहर से आने पर जुते बाहर उतार कर पहले पैर-हाथ धोने के बाद हम घर मे चहलकदमी कर सकते है.किसी अतिथि के आने पर भी बाहर उसके हाथ- पैर धुलाने की व्यवस्था कि जाती थी.
            एकबार मुझे याद है मेरे घर कोई परिचित आये थे मुझे घर मे नंगे पाँव काम करते देखकर उपहास करते हुए उन्होने मेरी आर्थिक स्थिति पर व्यंग्य किया था.जब मैने उन्हें बताया कि हमारे घरों मे चप्पल पहनकर काम करने कि आदत ही नही डाली जाती हमारे यहा जुते-चप्पलो का स्थान देहरी के बाहर ही होता है तो उन्होंने मेरी स्वच्छता पर व्यंग्य किया था.अब चूँकि ज्यादा देर जुते पहने रहना या घर मे भी जुते पहने रहना कितना नुकसानदायक है यह अमेरिका में संशोधन के रुप मे स्वीकार हो चुका है तो अब वे तथाकथित भारतीय भी इसका अनुसरण करेंगे.
          बचपन मे जब हम स्कूल जाया करते थे तो वहाँ भी जुते-चप्पल कक्षा के बाहर एक पंक्ति मे उतारने कि परंपरा थी और टाटपट्टी पर नीचे बैठकर सामने एक डेस्क(ढलवां मेज़) पर अभ्यास का क्रम चलता था.आजकल स्कूल जाने के समय से लेकर घर वापस आने तक ७-८ घंटे या अघिक समय तक जुते का प्रयोग उनके पैरो कि निरोगी वृद्धि मे बाधा निर्माण कर सकते है और इतने समय तक मेज़- कुर्सी पर पैर लटका कर बैठना उनके पैरो के रक्त संचार मे बाधा उत्पन्न कर सकता है.
       मेरा उन सभी पालको से अनुरोध है कि अपने बच्चों को कम से कम घरों में तो भी नंगे पाँव घूमने दे खेलने दे.परंपराओं का निर्वाह करते हुए बच्चों के स्वस्थ्य एवं निरोगी भविष्य के लिये यह अत्यंत आवश्यक है.

सोमवार, 3 सितंबर 2012

त्रिवेणी


(१)ठहरे हुए पानी कि तरह
      मेरे लफ़्ज भी कोइ ऐसे

      "पन्नो पर बिखर गये"


(२)सिंचा था एक पौधा अपने घर के आँगन मे
      उस प्लवित फूल की खूशबू से बेभान थी मै

      "अचानक आँगन से कोई चुरा ले गया"

(३)"सावन के रिमझिम कि मस्त फ़ुहार,
       आल्हादित मन नाचने को है बेकरार"

       (सामने मेज पर लगा फ़ाइल का अंबार)



(4)लिये हाथ मे कलम,नजरे कागज पे गडी है
      शब्दो कि लडियाँ है,बस  ना जुडती कडी है

       "दो राहो पर मेरी भावना खडी है""

5) माली  बाग का कली-कली खिलाता
      मधुपान करता कोई भँवरा भुनभुनाता

    ( स्त्रित्व का अस्तित्व खतरे में  है)



(६)शमशिरें अब तुम झुका लो,
     शांति कि बयार चहु  फैला दो

   (रचनाओं कि मजलिस आनंद देगी)

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

चाँद

चाँद,
ना तेरा है ना मेरा,
वो तो हम सबका,
अनंत समुद्र के उस
रेतीले किनारे पर बैठे
उन लाखों लोगों का
वो हम सबका
चाँद तो आखिर
चाँद ही है
फिर वो चाहे ईद का हो
या कि किसी तीज का
वो तो अखंड ब्रम्हांड का
वो हम सब का
इसीलिये तो जब
हम सब गहन तिमिर मे
नींद के आगोश मे भी
हर एक के स्वप्न मे भी
होते है उस चाँद के साथ
तो वो हम सबका
आओ उस अमावस के
अंधकार को भगाकर
पुर्णिमा कि रौशनी को
बाँट ले सब मिलकर
क्योकिं वह
चाँद तो
हम सबका



मंगलवार, 28 अगस्त 2012

बैलेंस शीट

वैवाहिक जीवन के २६ सालो की,
जब लिखने बैठी बैलेंस शीट
याद आ रही कैसे रचाई ईंट पे ईंट
कभी सिमेंट का जोड मजबूततो
कभी पानी कि कमी सताई
पर सब चिजों को अनदेखा कर
रिश्तों की मजबूत नींव बनाई

.जीवन की इस बैलेंस शीट मे
देयता और संपत्ति बाँए दाँए----(liability-asset)
साथ-साथ मे चलते रहे हैआय-व्यय के भी साँए---(income-expenditure)
स्थायी संपत्ति के कालम में
जब खुद के घर ने जगह बनाई
आवासिय ऋण के कालम ने
देयता के कालम मे सेंध लगाई

बच्चो की उत्तम शिक्षा का खर्च
जनरल एक्सपेंसेस को हुआ डेबिट
बुद्धि का सारा श्रेय पतिदेव के खाते क्रेडिट
घर कि मेरी मेहनत सेलरी को हुई डेबिट
interest income का मुझे मिला क्रेडिट
बच्चे मेरी बैलेंस शीट के बडे गुड-विल
अब इस घर कि नींव नही सकती हिल

रिश्तें मे अपनत्व और प्यार का
बैंक बेलेन्स रहा  बडा मजबुत
दोनो परिवारो के संबंधो ने साथ मे
प्यार का कैश इन हैंड किया सुदृढ
रिश्तें मे मरम्म्त रख-रखाव का चलता रहा खेल
इसी तरह इस जीवन कि चल रही हे रेल

बुधवार, 15 अगस्त 2012

मेरा देश


ये कैसा आघात हुआ है
देश के साथ घात हुआ है
युवा देश का सो चुका है
नियत,हिम्मत खो चुका है

सालो से देश कहने को स्वतंत्र
आज नेताओ के हाथ परतंत्र है
ॠषि मुनी की तपोभूमी में
मिलावट के फूल है
भ्रष्टाचार की चहू और दलदल
महंगाई की फैली धूल है

बुनीयादी ढाँचा ध्वस्त हुआ है
आदमी आदमी से त्रस्त हुआ है
शिक्षा का स्तर गिरा हुआ है
पापी पेट के लिये समझलो
गुरु देश का बिका हुआ है
नेताओ ने हाथ साफ किया है
देश को यु बरबाद किया है

६५ वर्ष की उम्र में माँ को
गहरा ह्रदयाघात हुआ है
न्यायिक सेवा की धमनी मे
रक्त बहाव कम हुआ है
प्रशासन की धमनी मे
भ्रष्टाचार है भरा हुआ
रक्त संचार का मार्ग ह्रदय तक
पूर्ण रुप से है रुका हुआ
लेकिन अब
हमें भी कुछ करना होगा
अपने खातिर उठना होगा
भंगूर होते देश के खातिर
फिर एक जुट हो लडना होगा
धून सी लगती भ्रष्टाचरी
कब तक सहें ये मक्कारी
फिर अब खून उबलना होगा
देश कि खातिर लडना होगा

सर्वाधिकार सुरक्षित-----मौलिक रचना

मंगलवार, 7 अगस्त 2012


संरक्षित खाद्द्य पदार्थ भाग-2
              
संरक्षित खाद्द्य पदार्थ भाग-1 मे मैने अचार मुरब्बे के बारे मे लिखा था.आज दो  अहम संरक्षित खाद्द्य पदार्थ इस सूची मे जुड रहे  है वे दो अन्य खाद्द्य पदार्थ है-बडी-पापड.
          आज बहूत तेज वर्षा का क्रम जारी है ऐसे मे घर से बाहर सब्जी खरीदने निकलना तो दूर बडा कठीन भी है.साथ ही साथ पानी कि वजह से सडी-गली सब्जी खरीदने के स्थान पर कोई अन्य उपाय निकालना बेहतर समझा . अपनी माँ के साथ ग्रिष्म ऋतु मे बनाई बडी कि याद हो आई.बचपन से मेरे घर मे बडी बनाने कि एक प्रथा सी है और मै भी उसकी उपयोगिता समझकर व्यसतता के बीच भी बडी तन्मयता से अपनी बेटी के साथ उस प्रथा को निभाने का भरसक प्रयत्न करती हूँ.
           मूंग दाल,चना दाल,उडद दाल के साथ बनाई जाने वाली बडी अनेको प्रकार से बनाई जाती है.कोई सभी दालो को मिलाकर ,तो कोई अलग-अलग दालो मे कुछ सब्जियाँ आदी मिलाकर बनाते है तो कुछ केवल दालो के साथ.
         घर मे बचपन से मूंग एवं चना दाल कि बडी बनाई जाती है दाल को रातभर भिगो कर रखा जाता है. सुबह उसका पानी निथार कर पत्थर पे थोडा दरदरा पिसा जाता है बिल्कुल नाम मात्र के पानी के साथ पिसते वक्त उसमे अदरक ,जीरा ,मिर्च आदी मसाले मिलाये जाते है.पिसी दाल का घनापन इतना हो कि वह फैले नही. मेरी माँ बडी रचनात्मक एंव कलात्मक प्रवृती कि है जब हम बचपन मे बडी बनाते तो वे हम दोनो  बहनो के बीच एक प्रतियोगीता रख देती कि कौन आकार मे एक जैसी और उसके डालते वक्त सुंदर डिज़ाइन कि रचना करता है और हम दोनो बहने खेल-खेल मे बहूत सारी बडी चुटकी मे बना देते थे.
        आज मैने इन्ही बडी का उपयोग सब्जी बनाने किया .आलू तो सभी सब्जियों का सखा है.टमाटर कि ग्रेवी के साथ हरिमिर्च और धनिया पत्ती इसके स्वाद को दोगुना कर देती है.इस शुद्ध शाकाहारी सब्जी के आगे अनेको नामांकित सब्जीयाँ फिकी पड जाती है.साथ मे भूना पापड और गर्म-गर्म रोटियाँ वाह!!!! बारिश का आनंद दोगुना हो जाता है.
    उडद और चने की दाल के आटे से बने पापड के भी क्या कहने.वो तो किसी भी ॠतु मे कभी भी ,समारोह मे भी अपनी आमद दर्ज करता है.बचपन मे आस-पडौस कि चाची-मौसी के साथ इन्हे बनाने का अपना अलग मजा था.ये आस-पडौसी का मिलन समारोह भी हुआ करता था.उम्र मे छोटी हम बहने कडक गूंथे आटे से छोटे-छोटे पापड बनाती ,फिर माँ ,चाची मौसी उन्हे बडा आकार देती .हम बच्चे उन्हे सुखाने मे मदद करते.
     ऐसे अनेको संरक्षित खाद्द्य पदार्थ है जो गाहे- बगाहे ,परेशानियो मे हमारी मदद करते है हमारी रसोईमे.

शनिवार, 28 जुलाई 2012

 कुछ हायकू आज के मौसम पर-----
(1)नीले नभ में
    हे घटा घिर आयी
    मेह बरसे

(2)बरसे मेघ
   बूंद बनके गिरे
    धरा मुस्काई

(3)घुली फ़िजा में
    हल्कि सी ठंडक
    आत्मविभोर

(४) कागज की नैया
      बचपन की याद
      छप-छपाक

(५) मस्त मौसम
     झमाझम बारीश
     मिर्च पकौडे

बुधवार, 25 जुलाई 2012

मंद-मंद हवा का एक झोंका
अचानक आकर यू छू गया
दिल को मेरे बस बहला गया
यूं हौले से छू कर मन को
चुपके से कान में कह गया
जो आज है,वह कल नही होगा
वक्त हाथ से छुटने का गम नही होगा
पूरे कर अपने सपने निर्भयता से
वे आँसू कि बूँद बनकर ना रिसे
झोंके ने दिल का द्वार खडका दिया
एक खूबसूरत स्वप्न उभार दिया
बुरा वक्त भी बना सुंदर
संबल बढा दिल के अंदर
अब डर नही कुछ खोने का
बस विचारवंत कंचन होने का
अब सिर्फ
हुकूमत खुद पे करना होगी
सल्तनत दूनिया की मुठ्ठी में होगी

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

संरक्षित खाद्द्य पदार्थ भाग-१

 रविवार का दिन था कुछ छुट्टी का महौल ,हफ़्ते भर कि भागदौड- व्यस्तता के बाद आराम करने कि इच्छा लेकिन अचानक रसोई मे प्रवेश करते ही सामने रखा कच्चे आम का(कैरी) का ढेर देखकर मन उत्साह से भर जाता है और अचानक दादी की याद आने लगती है.मन ३०-३५ साल पिछे चला जाता है.जब जुन-जुलाई के माह में वर्षा कि एक बौछार के बाद दादी की तैयारी प्रारंभ हो जाती थी आम के अचार एवं मुरब्बे के लिये.उस वक्त अचार का मसाला रेडिमेड नही मिलता था.रविवार के दिन हमारा पुरा परिवार अचार बनाने के काम मे जुटता था मेरे छोटे बहन-भाई को कैरी धोकर पौंछने का काम करना होता था.कैरी को काटने मे ताकत लगती सो वह काम पिताजी किया करते.चूँकि तब सारे मसाले घर मे ही तैयार होते सो माँ और दादी मिलकर हल्दि,नमक कूटते, सौंफ़-मेथी साफ करते,मेरा काम होता था राई कि दाल बनाना.राई कि दाल बनाना बडे कौशल का काम था लेकिन माँ-दादी कि सख्त हिदायत कि ये काम मुझे सिखना हि है.राई कि दाल सिल-बट्टे पर तैयार करना होती.राई को सिल (बडा-आयताकार खुरदुरा पत्थर) रखकर बट्टे से हलके हाथों से गोल-गोल घुमाते हुऎ दो भागों मे पाटना होता था राई का छिलका भी निकले और वो बारिक भी ना टुटे एकदम मस्त दो पाटो मे बँटी दाल से अचार कि शोभा अलग ही होती है.फिर सूपे से उसे फटकारना भी दादी ने सिखाया क्योकि राई कि दाल और छिलका दोनों हल्के ,छिलका उडे एवं दाल सूपे मे बची रहे. माँ-दादी के मार्गदर्शन में अचार का मसाला तैयार होता लेकिन सभी के दिल (मन लगाकर किया काम) और प्यार के नमक कि एक चुटकी उसमे डलि होती.तैयार मसाले मे कैरी के टुकडो को डालने के बाद बारी आती तेल कि जिसे गरम करते वक्त उसमें हिंग डाला जाता उसकि खुश्बू से सारा घर यहाँ तक कि पडौस भी महक उठता था.उस आम के अचार मे अडौसी-पडौसी कि भी हिस्सेदारी होती थी.शाम को कटोरियो मे अचार भरकर लेन -देन होता,प्यार आपस मे बटँता था.अब कब घर मे अचार बनता है या रेडिमेड आता है पता नही.
                      फिर शाम को नये अचार के साथ (एक पैन केक) थालीपीठ-- जो बहूत सारे अनाज को धोकर-भूनकर बने आटे से बनाया जाता था.उसके स्वाद से आज के पिज्जा का कोई मुकाबला नहि और अगर शाम को बारिश हो रहि हो तो सोने मे सुहगा.बडे मस्त दिन थे.
                   साथ ही मुरब्बा भी साल भर के लिये तैयार किया जाता था.दोपहर मे ३-४ बजे भुख लगने पर थोडा मुरब्बा और रोटी मिलती थी.आज कि तरह पेस्ट्री-पेटीस तब नही थे ना.हालाँकि पेस्ट्री-पेटीस का अपना अलग स्वाद है बस सिर्फ वो घर मे थालीपीठ के समान फ़टाफट तैयार नहि हो सकता. थालीपीठ बहु अनाजी होने से सेहत के लिये भी ज्यादा ठीक है .हाँ संतृप्त वसा उसमे भी है किन्तु पेस्ट्री-पेटीस से कम.
                अचार-मुरब्बे के अलावा बहुत सारे संरक्षित खाद्य पदार्थ है हिन्दुस्तान में उनके बारे मे आगे फिर कभी लिखूँगी--------निरन्तर

मंगलवार, 12 जून 2012

वर्षा ऋतु

हे सर्व शक्तिमान !!
मुझमे इतनी शक्ति भर दो---
कि जब भरू बरसात का जल
अपनी अंजूली मे और
लगाऊँ उसे अपने लबो पर
मन की प्यास बुझाने के लिये
तो उसकी
एक बूँदभी ना रिसे
ना व्यर्थ जाये
वो बूँद हौले से धरती कि गोद मे समाएँ
नदी बन नाचे, गाऎ इठलाए
चरो और हरियली का आँचल फैलाये
बुझे धरती कि तृष्णा
नाचे उसका का मन मयूर
जैसे राधा संग श्रीकृष्णा

सोमवार, 28 मई 2012

अब बडी हो गई हो बेटी
सपने लेने लगे है विस्तार
माँ तुम्हे अब दे रही है
शुभकामनाओ से भरा
प्यार का आधारकी
तुमचढो हिमालय सा पहाड
पाओ अनन्त आकश सा विस्तार
समुद्र मे डुबो गहरे से
लेने पानी कि थाह
सीर्फ सतरंगी झूलो मे ना झूलो बेटी
रखो चक्षु खुले सदैव
लिखो तर्जनी से इतिहास
अनन्त विश्वास के साथ
अब तुम्हे तोडना है यह
मिथक
कि
औरत की सफलता जिस्म से है
उसकी बुद्धी और परिश्रम से नही.

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

मेरे बच्चे


आज  बच्चो की याद
 मेरी बेटी
मेरी छाया
मन वही बदली है काया
तू मेरी अभिलाषा का स्तंभ
संस्कारो का भरु तुझसे दंभ
माँ के आँचल का तू मान
तेरे पिता की उँची शान
जनमो जन्म तेरी माँ कहलाऊँ
नाचू-गाऊ खूब इठलाऊँ
मेरा बेटा
मेरा साया
रूप पिता का  मेरी माया
मेरे जीवन का केन्द्र स्तंभ
तेरे कर्मो का भरु मे दंभ
लड स्थिती से बने तू दृढ
नींव परिवार की बने सुदृढ
फिर
जनमो जन्म तेरी माँ कहलाऊँ
नाचू-गाऊ खूब इठलाऊँ

रविवार, 18 मार्च 2012

?? हुँ

चली कभी मैं तेज गती से,
कभी मद्दम सी चाल हूँ.
रही सदा ही व्यक्त  सी,
कभी मौन सी आवाज़ हूँ.
किया कभी पार क्षितीज भी,
कभी-कभी बस पाताल हूँ.
कुरीतियों का शंखनाद कभी,
कभी चुप्पी सा अवसाद हूँ.
हँसकर जीने का अंदाज़ कभी,
कभी आँसू का सैलाब हूँ.
मैं क्या हूँ-------
मैं क्या हूँ????????

बुधवार, 7 मार्च 2012

होली

आओ सबको प्यार का
सप्तरंगी रंग चढाए
प्रेम के गुलाल से
खुशियाँ हम खूब मनाए
  आओ होली मनाए
अपनत्व के गुलाल से
सबको हम खूब रंगाए
चाहे कोइ करे इंकार
एक बार फिर प्यार लुटाए
   आओ होली मनाए
नफरत को दूर भगा
प्रेम का ऎसा रंग चढाए
बुराई को मिलकर जला
सबको फिर गले लगाए 
  आओ होली मनाए




शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

नारी शक्ति

आने वाले महिला दिवस के लिये विशेष
मै भारत की नरी शक्ति
घर की चौखट से बोल रही हूँ
दबे जो  दर्द सीने मे मेरे
सबके आगे खोल रही हूँ
घर और समाज के बीच
अपने आप को तौल रही हूँ,
मै भारत की----

वादे तुमने बहूत किये है
चाँद-तारे तोड लाने के
मेरे अरमानो को हरदम
हथेली पर सहलाने के
उपर से मै हरी-भरी हूँ
घर-घर मे सौ बार मरी हूँ
मै भारत  -----

सोचा था इतिहास लिखूँगी
कुरीतियो से हरदम लडूगी
लेकिन मेरी हिम्मत का गला
घर-घर मे सबने घोट दिया है
कुरीतियो के संग जीने को
दूनिया ने मजबूर किया है
मै भारत की----

अपनी पीडा कभी ना बताई
हँसकर एक-एक ईंट चुनाई
सफलता पर कभी ना इठलाई
फिर हरदम क्यो मूँह दिखलाई
मै भारत की-----

रोशनी की चाह मे हरदम
दूर किया घर का अंधेरा
छोड दिया अमृत का प्याला
हरदम पिया जहर कसैला
मै भारत की-

स्त्रीत्व मे  मातृत्व का अभिमान
चुनकर ब्रम्हा ने दिया वरदान
किन्तु आज इस कोख पर
ये कैसा आघात हुआ है
अस्तित्व के साथ इस पर
ये कैसा प्रतिघात हुआ है
मै भारत की-----

जाने कब एहसास ये होगा
स्थान मेरा भी खास होगा
जाने कब जीवन व्यर्थ ना होगा
इस जीवन का कुछ अर्थ भी होगा
मै भारत की-----
लेकिन
चाहे अब पथ संकीर्ण हो मेरा
सत्य-पथ मे पथिक साथ ना हो मेरा
देनी पडे चाहे कोई परीक्षा
या फिर हो अग्नि का घेरा
इतिहास मे अब मेरी कहनी
स्त्री ही कहेगी स्त्री की जुबानी
मै भारत की नारी शक्ति
------------------------- continue










मागचे 3-4 दिवस मी "अरुणा ढेरे"ह्यांचे पुस्तक वाचते आहे अर्ध्यावाटेवर त्यातिल काहि वाक्य मझ्या मनात रुजली त्यांना मी कवितेत गुंफण्याचा प्रयत्न केला आहे.बघा आवडतो का?

शब्दांचा अलिकडे थांबणॆ आता शक्य नाही
पण तडफडून शब्दा जवळ जाता  ही येत नाही,
शब्द कधी खूप ताठर, कधी माऊ पणाने भरलेले
पुष्कळ यातना शब्दा मध्ये घर करुन बसलेले
क्षणा मागे दूर लांबवर शब्दांचा वास असतो
आणि आलेले सगळे क्षण आपण शब्दांत भरतो
स्वतःला आपण अज्ञात तरी आपल्या कडे पहातो
ते मर्मस्पर्शी अनुभव ,झगडण,कोसळ्णे शब्दांत भरतो
स्वतः मधले अभाव,अधिक पाझरण ही दूःख असते
सगळ्याची सांगड घालून लिहणारे शब्द म्हण्जे छळ असते
फूला भोवती काँटे खूप
पण सुगंधि फूलाचा वास दे
सरले ढग सगळे जरी
मंद पावसाचा मृदु वास दे
तुझा प्रेमळ साथ दे
उजाडत्या पोर्णिमे मधे
हातात मझ्या हात दे
मावळ्ता चंद्र असला तरी
जीवना चा नाद दे
तुझा प्रेमळ साथ दे
कवितेच्या वाटेवर मला
तुझा आनंदा चा साथ दे

सोमवार, 16 जनवरी 2012

कविता

लिहि म्हंटल की कविता कशी लिहायची,
शब्दांना काना,मात्रा,वेलांटी कशी द्यायची,
प्रेम कविता लिहीण्यास स्वप्नात तरी प्रेम करावे लागते,
विनोदी कविता करयला मनात हास्य अणावे लागते,
विरह गीत लिहीण्या साठी विरह जगायलाच पाहिजे,
मनात असलेल्या क्षणाला सार्थक शब्दच आला पाहिजे,
प्रयत्नांतरी विडंबन काही सगळ्यांना जमत नाही,
विडंबन करायला तर रेष ही कगदावर उमटत नाही,
कविता करायला मनात तसे भाव जगावे लागतात,
आणि तेव्हा कुठे शब्द -म्हणी कवितेत गुंफतात