शुक्रवार, 29 मार्च 2013

युद्ध भूमि

तुम्हें विश्वास ही नही था
मेरी उन बातों का
चल पडे थे तुम ,हाथ मे
शस्त्र उठाये
जीवन के उस मैदान में
जहाँ चहू और ढेर था
बाधाओं का ,चट्टानों का
काँटेदार वृक्षो का,धूल का
उनसे कैसे सामना करते 
तुम उन शस्त्रो से
वहाँ तो चाहिये थी
अनुभवों कि गठरी जो
हौले-हौले काँटो को भी
चुनकर हटाती और
आँखो मे चुभने वाली
धूल को भी साथ ही
मस्तक पर लगने वाले
पत्थरों को इकट्ठा कर हटाती
तुम्हारी उस युद्ध भूमि से

फिर तुम विजयी बनकर लौटते
पूरे सालिम चन्द्र गुप्त या

सिकंदर बनकर

नयना(आरती)कानिटकर
२९/०३/२०१३