शनिवार, 7 मई 2016

"संतुलन"

 "त्राहीमाम! त्राहीमाम!  तनिक आसमान से नीचे झांकिये प्रभु, मेरे मानव पुत्र पानी की बूँद-बूँद को तरस रहे है "--- धरा ने अपने दोनो हाथ फैला कर  इन्द्र देवता के समक्ष गुहार लगाई.
"इसकी जिम्मेदार तुम हो धरा"--- इन्द्र ने कहा
"मैं ?  वो कैसे प्रभु"--हाथ जोड़ते हुए धरा ने पूछा
"तुमने अपनी बेटी "प्रकृति" को अपने सानिध्य में, अपने आँचल मे फलने-फूलने देने की बजाय  पुत्रो को खुली छूट दे दी उसका दोहन करने की. प्रकृति की हरी-भरी वादियों के पेड रूपी जड़ों से तुम्हारे अंदर जो जीवन का प्रवाह था उसे तुमने प्रगति के नाम पर खुद नष्ट किया है."
" बहुत बडी ग़लती हुई है प्रभु! अब इस पर कोई उपाय"
" बस एक उपाय है.  ये जो डोर है  मानव के हाथ में  है पानी उलिचने के लिए  उसका एक सिरा  प्रकृति के हाथ मे थमा दो व दुसरा उनके गले मे डाल दो  जिन्होने बाँध बनाने के नाम पर पैसा बना लिया.
नयना(आरती) कानिटकर
BHOPAL