शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

एक अदद--- "खिड़की" शीर्षक पर दो अलग-अलग सोच भिन्न मानसिकता को दर्शाती हुई
नयना (आरती) कानिटकर                                    वैभव सामरे
    घर की एक ------------------------                  बिजली के कड़कने से जब नींद टूटी                        
    अदद खिड़की से-------------------                     सामने थी मेरे शयनकक्ष की खिड़की
    झाँकती हूँ ------------------------                      बिजली की चमक
    जब  बाहर-------------------------                     और उडती हुई धूल
    कि ओर---------------------------                     खिड़की से पार ना आ पा रहे थे
    सुंदर रम्य निसर्ग सौंदर्य------------                   सोच बैठा काश इंसान भी ऐसे होते
    मन मे एक जगह बना लेता है--------                गलत भावनाओं को अन्तर्मन से दूर ही रखते
    बाहर झाँकते ही पुर्णत्व प्राप्त होता है--------       जरा सी खिड़की खुली
    इसी लिये तो मैं झाँकती हूँ--------------------     और अन्दर आ गयी
    उस खिड़की कि चौखट से बाहर जब----------     वो मिटटी की महक
    देखती हूँ हरियाली चारों ओर-----------------    बारिश की हलकी बूंदे 
     रास्ते दूर-दूर तक कभी न खत्म होने वाले----- सोच बैठा काश इंसान भी ऐसे होते
    न खत्म होने वाला उनका अस्तित्व----------- अपनी खुशियाँ पूरे जगत में बाँटते
    लेकिन मन अचानक------------------------   बारिश बढ़ गयी 
    अस्तित्वहीन हो जाता है-------------------    और हवा भी तेज़ हो गयी थी
    वो खिड़की संकुचित लगने लगती है---------   खिड़की लगी थी अब खडखडाने 
    चारों ओर से आने वाले तेज हवा के झोंके-------सोच बैठा काश इंसान भी ऐसे होते
    बारिश के थपेडे-----------------------          वैमनस्य न बनाकर, दुःख दर्द जाहिर कर देते
    झेलने पड़ते है ना चाहते हुए भी---------         और उस खडाक की आवाज़ से 
    फिर मन की खिड़की कपकंपाने लगती है------मेरी सोच और खिड़की 
    बंद करना चाहती हूँ उस खिड़की को------------दोनों टूट गए
    लेकिन उसमे दरवाज़े तो है हि नही------------वो खिड़की और इंसान में एक सामानता तो थी
    होता है सिर्फ एक अदद चौखट----------------बुरे वक़्त में दोनों साथ छोड़ गए। 
    फिर सहना पडता है उन थपेडों को
    जीवन भर  निरंतर लगातार
    फिर वो समय भी कटता है
    भरता है मन के घाँव भी
    सब झेल कर फिर भी लगता है
    एक खिड़की तो हो ही
    घर मे भी और मन की भी
    जब चाहो बंद करो ,चाहो खोल दो
    एकसार हो जाओ पुन:
    रम्य निसर्ग के साथ भी
    खूबसूरत जीवन के साथ भी

    

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

साथ

चाँद तो मेरे साथ है,
चाँदनी तुझे पुकार लू

लौ सी तू मेरे साथ है
रोशनी क्यो उधार लू

हर लम्हा मेरे साथ है
पलकों से निहार लू

 झिझक जो मेरे साथ है
तेरे कदमों मे उतार लू

तेरा साथ मेरे साथ है
"नयन" ज़िंदग़ी सवार लू

नयना (आरती) कानिटकर
३०/०८/२०१३


गुरुवार, 25 जुलाई 2013

वो बचपन


मैं
फिर महसूसना चाहती हूँ
वो गाँव कि पगडंडियाँ
जिन पर बचपन में
भरी बारिश मे भी
छपाक-छपाक के साथ
तेजी से दौड़ लगाती थी
माँ से छुप कर स्कूल जाते वक्त :)

फिर महसूसना चाहती हूँ
अपनी दादी के संग
माँ से छूपकर धीरे से
उनकी चाय से एक घूंट का भरना
और तारों का वह समूह जिसे देख
अचूक समय का अंदाज़ करना सिखाती थी
बेर के पेड पर आये चाँदनी के झुरमुट मे

फिर महसूस ना चाहती हूँ
आम और आँवले के वृक्षो संग
खेतो की वो हरियाली जिसके
बागड पर लगे बबूल के पेड
उन पर लगे पिले-पिले फूल
उन  फूलों को कानों मे कुंडल की तरह पहन
इतरया करती थी आईने के सामने

फिर महसूसना चाहती हूँ
अपनी माँ के संग
कपड़ों का वह रंग-बिरंगी ढेर जिसे
सुघडता से खूबसूरती मे ढाल
बिछौना बनया करती थी माँ
उन बची रंग-बिरंगी कतरनो से हम
गेंद और गुड़िया बना खेला करते
अपने भाई-बहन,सखी सहेलियो के साथ

फिर महसूसना चाहती हूँ
अपने पिता के साथ
कगजो और किताबों के ढेर की
वो अनोखी विशिष्ट खूशबू
जिनके सहारे वे
तैयार करते थे मुझे अपनी
वक्तृत्व स्पर्धा के लिये
मुझ मे आत्मविश्वास और हिम्मत भरने के लिये

फिर महसूसना चाहती हूँ 


नयना(आरती)कानिटकर
२४/०७/२०१३


सोमवार, 17 जून 2013

वह



रुकी हुई वो पथ पर
पदचाप के नाद से
प्रित मे बंधी सी वो
अनुराग था कही वो---

 बयार की वो ठंढक
म्लान सी वो साँसे
कुहाँसे की सुबह में
कही दूर जा रही ----

वीरान मेरे घर मे
प्रश्नों का अंबार सा था
अंत रंग भेद गयी हो
जैसे स्याह रात मेरी--

अलभोर उस सुबह को
मौन,स्तब्ध सी मैं
आँगन मे एकाकी जैसे
तुलसी भी निस्तब्ध सी हो

गुरुवार, 30 मई 2013

जिन्दगी के रंग


जिंदगी के सारे रंग चुन लाई थी
सपनों के सतरंगी इन्द्रधनूष के साथ
फूलों से लदी  डाली बनकर
और कूद पडी थी होली से इस
अग्निकुंड मे
बडी उम्मीद और आरजु के साथ
फिर तुम भी तो आये थे मेरे साथ
रंग-बिरंगी फूलों कि बहार और
ख़ूबसूरत रंगों की बौछार बनकर
इस अग्निकुंड में शितलता देने
तुमने
सागर सा समेट लिया था मुझे
अपने आगोश मे दृढ़ बंधन के साथ
फिर मैने भी कभी कोशिश नही की
तुम्हारे इस आगोश से छूटने की
कि  ये सिलसिला सदा बना रहे
और आज                                                      
रंग-बिरंगी फूलों कि बगियाँ बन
इठला रहे है खूशबु बिखेरे चारो ओर
सपनों के ये इन्द्रधनूषी रंग
विस्तृत हो चुके है आकाश भर
सदा एकरुप होकर अपनी आभा बिखेरने

नयना(आरती) कानिटकर
३०/०५/२०१३

गुरुवार, 23 मई 2013

तुम मुझसी ही तो दिखती हो

प्रिय बेटी,अभिलाषा
आज तुम्हारा जन्मदिन है और मे तुमसे दूर यहाँ सिर्फ़ "बधाईयाँ "इतना ही  कह पा रही हूँ।
किंतु सुनो!!!!

तुम मुझ सी ही तो दिखती हो
सतत कर्मनिष्ठा,
अथक प्रयास
जुझारू प्रवृत्ति
मर्यादा का भान
सब कुछ पिछे छोड
आगे बढने के गुण
तुम मेरा प्रतिबिम्ब हो
तुम मुझ मे और मैं तुमसे हूँ
तुम मुझ सी ही तो दिखती हो

गुरुवार, 9 मई 2013

प्रसव वेदना


  आसाँ नहीं है माँ होना

 जब उठी है प्रसव वेदना
माँ तुम बहुत याद आई
तैर गयी नैनो में मनको सी
तुम्हारे मुख  की वे सब भंगिमाएँ
.
याद आ गये वो सारे क्षण
जब हमने समझा आपको
अनगढ, अनपढ इस नई पीढ़ी मे
रुखेपन से किया था मुल्यांकन भी
.
क्रोधित होकर मन की खीज
निकालते रहे सदा तुम पर
अपमानित कर पद दलित सा
सदा किया तुम्हें अधोरेखित
.
तहाकर रख दिया था हमने
तुम्हें रसोई की चार दिवारी में
सिर्फ़ बनाने खिलाने तक सीमित कर
उपेक्षित सी जहाँ तुम
अविरल सहलाती रही
स्वंय के हाथों के छालो को
.
घसिटते रहे सदा चौके-चुल्हे में
फिर भी अधिकार जता सारा तुम पर
लेकर ममत्व के ताने बाने का आधार
पकड़ा सदा तुम्हारे आँचल का छोर
.
मेरे आसपास तुम्हारा मंडराना
सह नही पाती थी मैं
तुम्हारी सीधी सपाट बात भी
टोकना लगता था मुझे
.
याद आती है तुम्हारी
भोली सी मधुर मुस्कान
जब तुम चिन्तातुर होकर कहती
"जल्दी लौट आना बेटी"
.
तुम्हारे काम की हरदम
तल्लीन उठा पटक को
हमने कोई मान नही दिया
ये तो हर माँ ,नारी करती है
वनों मे भी तो फलते-फुलते है पेड-पौधे
बिना किसी अतिरिक्त संरक्षण के
फिर भी तुमने अपना सारा स्नेह
उडेल दिया था हम पर चुपचाप
बीना किसी अपेक्षा के
.
पेट मे उस जीव की गती से भी
पूर्ण शरीर वेदना से भर उठता है
फिर याद आता है तुम्हारा
वो म्लान,थका,उपेक्षित
किंतु मुस्कुराता चेहरा
.
समझ सकती हुँ मैं
तुम्हारी व्यथा को,पीडा को
इसीलिये इतना आसान नही है
माँ की पदवी से विभूषित होना

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

युद्ध भूमि

तुम्हें विश्वास ही नही था
मेरी उन बातों का
चल पडे थे तुम ,हाथ मे
शस्त्र उठाये
जीवन के उस मैदान में
जहाँ चहू और ढेर था
बाधाओं का ,चट्टानों का
काँटेदार वृक्षो का,धूल का
उनसे कैसे सामना करते 
तुम उन शस्त्रो से
वहाँ तो चाहिये थी
अनुभवों कि गठरी जो
हौले-हौले काँटो को भी
चुनकर हटाती और
आँखो मे चुभने वाली
धूल को भी साथ ही
मस्तक पर लगने वाले
पत्थरों को इकट्ठा कर हटाती
तुम्हारी उस युद्ध भूमि से

फिर तुम विजयी बनकर लौटते
पूरे सालिम चन्द्र गुप्त या

सिकंदर बनकर

नयना(आरती)कानिटकर
२९/०३/२०१३

मंगलवार, 26 मार्च 2013

होली

                               
पिली सरसों,संग गु्लमोहर
अबीर गुलाल,फागुन कि बहार

                    इन्द्रधानुषी रंगो से सजा द्वार
                    ये निराला प्यार का त्योहार
                          
 द्वेष कोई मन मे ना पाले                          
स्नेह  मे सबको रंग डाले
                                खुशी से ढोल,मृदंग बजाले
                               प्यार से सबको गले लगाले

सबको प्रीति का रंग चढाना है
शब्दों के संग होली मनाना है


नयना(आरती) कानिटकर
२६/०३/२०१३

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

परम्पराए और वैज्ञानिक आधार--3(मंत्रोच्चार)

       #परम्पराए और वैज्ञानिक आधार
#नवरात्र 
#मंत्रोच्चार 

माँssss माँssss की आवाज़ के साथ मेरी बेटी अपरा रसोई घर  में प्रवेश करती है.माँ देखो ना दादाजी को कब से माला हाथ में लिए सिर्फ़ मंत्र पढ रहे है   इससे क्या होता है.यह तो समय कि बर्बादी है सिर्फ़. 
क्या इसका कोई वैज्ञानिक आधार  है? मैं तो इन सब चीज़ो को नही मानती और आप  भी विज्ञान स्नातक होते हुए इन सब बातों पे विश्वास करती है? .हे ईश्वर आप इन सब अंधविश्वास को कब तक मानते रहेंगे.
    इतने मे दादाजी भी चाय कि फरमाइश लिये रसोई मे प्रवेश करते है.वे माँ बेटी का संवाद सुन अपरा से कहते है बेटी चाय लेकर बैठक में आओ मैं  तुम्हें विस्तार से बताता हूँ.अपरा चाय का कप लिये बैठक मे जाती है.दादाजी प्यार से उसे पास बैठा कर कहते है सुनो-------
         मैं भी पहले इन बातों मे विश्वास नही करता था.लेकिन एक बार बहुत सालों पहले जब मैं अपने मामा के घर गया था तो मेरे मामा किसी गहन ध्यान मे मग्न थे.उन्होने मुझे इशारे से बैठने को कहा और जब मन्त्रो का जाप पूरा हुआ तब मेरे कुशलता के बारे मे जानकारी ली.उस वक्त मैं ने उनसे यही बात कही जो आज तुम अपनी माँ से कह रही थी.तब मेरे मामा ने कहा वक्त आने पर मैं अपनी बात सिद्ध करुँगा.ऐसे ही काफी समय बीत गया पुन: एक बार जब मे उनके घर गया तो दरवाज़े की घंटी बजाने ही वाला था कि अंदर से मेरे लिये गालियो कि बौछार होने लगी तब मैं गुस्से मे तनतनाते हुए अपने घर आ गया ,मामा के घर कभी ना जाने कि कसम खाकर .ऐसे ही काफ़ी समय बीत गया.
जब मैं बहुत दिनो तक उनके घर नही गया तो वे बैचेन हो उठे .उन्होने ही मुझे बुलावा भेजा क्षमा याचना के साथ.दूसरे दिन मैं उनके घर पहुँचा तो उन्होने मेरे तरीफो के पूल बांधना शुरु कर दिये .मैं बडा खुश हो गया.तब वे बडी जोर से हँसने लगे हाहाहाहा------
      देखो तुम्हें कहा था ना मंत्रो का अपना महत्व होता है.उस दिन तुम्हें जब गालियाँ दी वह गुस्से का मंत्र था उसका प्रभाव तुम्हारे दिमाग पर हुआ और तुम गुस्से से भर उठे.मंत्र का प्रभाव हुआ ना तुम पर.

अभी देखो तुम्हारी तारीफ कि वह खुशी का मंत्र था उसने तुम्हें खुश कर दिया.

असल मे शब्दों के उच्चारण से जो ध्वनि तरंगें निकलती है उसका सीधा असर हमारे  मस्तिष्क के क्रिया कलापो पर होता है.मस्तिष्क मे तंत्रिका तंत्र का जाल बिछा हुआ है वह तुरंत संदेशा देते है हमारे क्रिया कलापो का, फिर इनका असर तुरंत हमारे कोशिका के कोशिका विज्ञान (cytology) पर होता है.आओ एक आसान उदाहरण देता हूँ
                   जब तुम पानी मे कंकड-पत्थर फेंकती हो तो उसमे  लहरें उत्पन्न होती जो दूर तक जाती हैं, उसी प्रकार हमारे मुँह से निकला प्रत्येक शब्द, आकाश के सूक्ष्म परमाणुओं में कंपन उत्पन्न करता है और उस कंपन से लोगों में प्रेरणा जागृ्त होती हैं। जैसे मैने उपर बताया था-----
                       मंत्र शक्ति पुर्णतया ध्वनि विज्ञान  के सिद्धांतों पर आधारित है.इनमें जो शब्द गुंथे गये है. मंत्र उच्चारण से भी एक विशिष्ट ध्वनि कंपन बनता है जो कि संपूर्ण वायु मंडल में व्याप्त हो जाता है। इसके साथ ही आंतरिक विद्दुत भी तरंगों में निहित रहती है।  उनका अपना महत्व है रासायनिक क्रियायों के फलस्वरूप शरीर में विद्दुत जैसी एक धारा प्रवाहित होती है(आंतरिक विद्दुत) तथा मस्तिष्क से विशेष प्रकार का विकिरण उत्पन्न होता है। इसे आप मानसिक विद्दुत कह सकते हैं। यही मानसिक  विद्दुत (अल्फा तरंगें) मंत्रों के उच्चारण करने पर निकलने वाली ध्वनि के साथ गमन कर,दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करती है या इच्छित कार्य संपादन में सहायक सिद्ध होती है। 
     मंत्र साधना से मन ,बुद्धि,चित्त मे असाधारण परिवर्तन होता है.विवेक ,दुरदर्शिता .तत्वज्ञान और बुद्धि मे उच्चता प्राप्त होती है.
          मैं जो"आँखो"के लिये रोज मंत्र जाप करता हूँ उसका असर असाधारण रुप से मेरी दृष्टि क्षमता पर हुआ है.कल से मैं तुम्हें अलग अलग मंत्रो के बारे मे जानकारी दूँगा.
साथ ही मंत्रो को उच्चरित करते वक्त अलग अलग प्रकार के मानकों का उपयोग किया जाता है जैसे रुद्राक्ष , स्फटिक , चन्दन की लकड़ी से बने मोती आदि. हाथों के अंगुली की मुद्रा बनाकर भी जाप किया जा सकता है.
     अपरा अपलक संतुष्ट भाव से दादाजी को निहार रही थी.अरे!!  अरे!!! अब उठो अपना ध्यान पढाई मे लगाओ बाकी बातें हम अब बाद मे करेंगे.
   जी!!जीSSSS दादाजी अब हमारी क्लास भी शाम को रोज लगा करेगी नये-नये मंत्रो के बारे मे जानने के लिये
नयना (आरती) कानिटकर

.

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

समेटना चाँहती हूँ

फिर से समेटना चाहती हूँ मैं
उन अनमोल क्षणों को जो
प्रति पल मेरे रक्त के साथ
संचारित होते रहते थे,मेरी
देह मे मस्तक से पग तक
                               फिर से समेटना चाहती हूँ मैं
                                उन अनमोल भावनाओं को
                               जो मेरे अंदर रोम-रोम मे
                               बसी हुई थी गंध के समान
                              काया मे  नख से शीख तक     
फिर से समेटना चाहती हूँ मैं
उन अनमोल रिश्तों को जो
जो मेरे साथ  दाएँ-बाएँ चलते
 भरते थे मुझ मे आत्मविश्वास
उन्नत मस्तक से दृढ़ कदमों तक


फिर से समेटना चाहती हूँ !!!!!!

                              

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

मेरे बसंत

चाय का घूँट तो रोज
 भरती हूँ चुस्कियों के साथ
सुबह शाम
 घर के बागिचे में या
छत पर गुनगुनी धूप के साथ
फिर भी आज शाम कि चाय का
घूँट भरते ही
मेरी कई दिनो से
निस्तेज पडी देह में
सरसराहट दौड़ गई
बागिचे मे बहती मंद बयार
पत्तों कि सरसराहट
नवकोंपलो का हौले
से झाँकना
बसंती फूलों कि मधुर सुगंध
देह मे नव संचार कर गई
अहसास दिला गई उसके,
आने का,जिसके
इंतजार में प्रकृति
गर्मी,बारिश,ठंड के थपेडे
झेलती है और फिर
बसंत की गोद मे बैठ
नवांकुरो को देख
आल्हादित होती है.





मंगलवार, 22 जनवरी 2013

मेरे बाबा

थामी थी उँगली बाबा की
जब मैने चलना सिखा था
गिरते वक्त सम्हालते हुए
बाबा को हँसते देखा था
धीरे-धीरे हाथ पकड़ फ़िर
बाबा ने ही थी सीढ़ी चढाई
चढ़ते और उतरते मे उन्हें
अपलक निहारते देखा था
धिरे-धिरे बिन थामे जब
सीढ़ी-दर सीढ़ी चढने लगी
हँसते हुए मस्तक पर उनके
चिंतित आडी रेखा को देखा था
चढ़ते-चढ़तेऊँचाई जब मैं
बिच सीढ़ी मे  ही अटक गई
उपर आसमान, नीचे धरती देख
अपने आप मे भटक गई
बाबा ने फिर कदम बढाए
देकर अपना हाथों मे हाथ
पहले धरती पर लाए, फिर
फेरा मेरे माथे पर हाथ
कहने लगे बेटा पहले धरती पर
नींव बनाओ बडी मजबूत
फिर रखो हर पायदान पर
पाँव तुम्हारे बडे सुदृढ
-----------------------
बाबा कि बातें सुनकर मैं
लटकी सीढ़ी से नीचे आ गई
लिपटकर गले मे बाबा के
मैं सौ-सौ आँसू बहा गई
फिर थामा था हाथ मेरा
आज बाबा ने मज़बूती से
देकर कहा हिम्मत बाबा ने
अब ऐसे ना तुम घबराओ
दो मेरे हाथ मे हाथ तुम्हारा
सीधे एवरेस्ट को चढ़ जाओ
दिये हाथ मे हाथ बाबा के
मैं तो गिरते-गिरते सम्हल गई
लड़ने कि ताकत ले जुटा अब
दुनिया जितने निकल गई

नयना(आरती) कानिटकर
२२/०१/२०१३



सोमवार, 21 जनवरी 2013

पिता कि व्यथा

आओ हम-तुम यू गले मिले
माँ से तो तुम हर रोज मिले,

आओ ख़ुशियाँ  मेरे संग बाँटो
जज्बातों कि लहरों को काटो,

मन के छुपे भावो को यू ना रोको
आँसुओ को  आँखो मे ना  रोको,

ना लगे  बात न्याय युक्त तो
मुझ को भी रोको और टोको

फिर

तुमने मुझसे ये दूरी क्यों चुन ली
माँ कि सदा पकड़ ली उँगली,

आओ हम-तुम साथ चले
डाले हाथों मे हाथ चले,

माँ को तो हर दिन याद करो
पर मुश्किलों मे मेरा हाथ धरो,

लो अब हम तुम गले मिले
चले रिश्तों के सुनहरे सिलसिले