मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

"जान की किमत"

अपनी खानदानी परंपरा को आगे बढाते हुए उसने पापी पेट के लिये इस काम को अपनाया था.  काम के बदले मे  कुछ पैसे मिलते थे.  तब से दारु भी  उसकी चोली दामन की साथी बन गई  थी.
 काम ही ऐसा था दारु चढ़ा लो तो डर ना लगता. सीना तना रहता ,न घबराहट न दया, पूरी तरह बेखौफ़. अपने हाथों से उसने रस्सी का फंदा तैयार करना , काले कपड़े से बने थैलीनुमा आवरण से कैदी का चेहरा ढंका, लीवर खींचा और खटाक की आवाज़ के साथ कु्छ ही पलों में कैदी फंदे पर ...
एक दिन बेटे  छोटु की तबियत  ऐसी खराब हुई थी  की कई दिनों के उपचार के बाद भी सम्हलने का नाम नहीं ले रही थी. बुखार की वजह से वह बेहद कमजोर हो गया था, इलाज के लिये काफ़ी भाग दौड़ की किंतु दिन-
बेहोशी की सी हालत में वह बुदबुदा रहा था बाबा...मैं कब ठीक होउंगा, मैं कब खेलने लगुंगा.....बोलते बोलते उस पर मुर्छा छाने लगी और फिर कुछ ही देर में उसने उसकी की गोद में ही दम तोड़ दिया. 
दिनेश  के पाषाण ह्रदय में भावनाओं के बीज अंकुरित कर दिये को खुद पता नहीं चला, आखिर को था तो उसकी ही औलाद, उसका अपना खून, अपना अंश.
जिंदगी में पहली बार आंखों से आँसू टपक पड़े, उसका कठोर ह्रदय मोम की तरह पिघल गया. जिन हाथों से वह लोगों के गले में फाँसी का फ़ंदा डाला करता था आज उन्हीं हाथों में उसके बेटे की लाश थी.
अंत्येष्टी से निपट घर आकर भरभराकर ज़मीन पर गिर पडा.
आँसू भरी आँखो में फाँसी के फंदे के अलावा कुछ ना दिखाई दे रहा था.
पहली बार उसे  एहसास हुआ की किसी की जान की कीमत क्या होती है!

नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल
प्रतिदीन  उसकी हालत बिगड़ती गई ...

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

धरा पर
जब तक स्त्रियों, बच्चों पर
अत्याचार बिना, शत्रुत्व पूरा नहीं होता
जहाँ गर्भ पर भी
मारी जा सकती है लाथ
जहाँ एक नारी के हाथ
थमा दी जाती है हिंडोले की डोर
जहाँ वह स्वयं तय नहीं कर पाती
अपनी नग्नावस्था,
कब और किसके साथ
और जहाँ उसके बच्चे पर,
लगना होता है किसी
धर्म विशेष का ठप्पा
और ऐसी जगह पर्वत पर,
रक्त जमाने वाली ठंड ,
गर्म तपती रेत पर
मुसलाधार बारिश में, गिले कपड़ों मे
बाढ प्रदेश,सुखाग्रस्त ,कंपित क्षेत्र मे
अस्पताल,मंदिर,गंदगी के ढेर पर
और ऐसी जगह जहाँ
अन्न,पानी वस्त्र,शिक्षा,भविष्य
की कोई आश्वस्तता  नहीं होती
कोई उम्मीद नहीं होती शिशु के
जिवंतता की
बम विस्फोट में
सीमा के इस पार या उस पार
धरा पर सब जगह
जननी  अभी भी
उपज रही है सन्तानें

मूळ कविता--अपर्णा कडसकर
अनुवाद---नयना(आरती) कानिटकर

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

"वक्री" लघुकथा के परिंदे--मुहूर्तों की सलाखें--४थी


 दोनो ने एक अनाथ बच्ची गोद लेने का निर्णय लिया था ताकी वक्त रहते बच्ची का सही पालन-पोषण किया जा सके और  घर की रौनक को चार चाँद  लग जाए
इस निर्णय से घर  में तो हंगामा मच गया था....
घर वालो की जिद के आगे खर्चिली, अनआशवस्त  आय.वी.एफ़, तकनीक  अपनाने का निर्णय लिया गया। बच्चा सिजरियन होगा यह पहले से तय था। वह अब पूरे दिनों मे चल रही थीं
आखिर तय हुआ की इस अमुक तारीख़ को , इतनी बजे बच्चे का जन्म कराया जाए तो सारे ग्रहयोग उसके साथ होने से  उसके जीवन मे राजयोग होगा
मिनल के  थोड़ा असहज महसूस करते ही मोहित ने डा,रेखा से संपर्क कर अस्पताल...
"अरे!  कुछ ना होगा माँ बेटे को. अभी  राहु थोडा वक्री चल रहा हैजल्द मार्ग बदलने वाला है पिताजी अड़े रहे अपनी बात पर, इधर मिनल के हालात...
डा,रेखा ने तुरत-फुरत आपरेशन की तैयारी की किंतु  बच्चे को...
एक माँ की ख़ुशियाँ हमेशा के लिए वक्री हो सलाख़ों मे कैद हो गई.

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
२०-०४-२०१६


"टी.आर.पी" लघुकथा के परिंदे ३ री

----"टी.आर.पी"----

 "
ये देखो सिद्धार्थ! चारो ओर सूखे की मार, प्यासी धरती, घरो में खाली बर्तन, बिन नहाये गंदले से बच्चे ये तस्वीरे देखो....
अरे ,कहाँ गए ! ये सब किसकी तस्वीर ले रहे हो तुम ....! "घुटनो तक साड़ी चढाए खुदाई करती मज़दूरन की, तो कही स्तनपात कराती आदिवासी खेतिहर मज़दूर, तो कही उघाडी पीठ के साथ रोटी थेपती महिला की ...कैमरा हटाओ ! "यह सब थोडे ही ना हमे कवरेज करना था। हमे सुखाग्रस्त ग्रामीण ठिकानों का सर्वे कर उस पर रिपोर्ट तैयार करनी है"
"
तुमको इन सब के साथ रिपोर्ट तैयार करना होगा , वरना...!"
वरना क्या सिड...? "
"
वरना मैं दूसरे चैनल वाले के साथ..."
 "तुम  भी ना बाज आओ इस केकडा प्रवत्ति से.....! "
"
मुझे ताना मत दो रश्मि! अगर हमने इन तस्वीरों के साथ रिपोर्ट तैयार नही की तो चैनल का टी.आर.पी कैसे बढेगा और मेरा प्रमोशन तो इसी प्रोजेक्ट ...?"
"मेरे सपने तुम्हारे सपनों से ज्यादा ऊँचे है"
नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल

मौलिक एंव अप्रकाशित


मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

प्रतिष्ठा

"अरे विचार! इतनी जल्दी लौट आए. क्या भावना नही मिली तुम्हें."
"मिली थी! मीनी, मै गया भी था मिलने सरिता-मुक्ता से लेकिन मिलते वक्त उनमे वो उछाह (उत्साह) नहीं था जैसे कि हम पहले मिला करते थे.
"और फ़िर कादम्बिनी,कविता क्या ये भी नही मिली तुम्हें"
"नही मीनी! मै उनके पास गया ही नही, आखिर मेरी भी तो कुछ प्रतिष्ठा है,अस्तित्व है मैत्री का उनके जीवन मे. अगर वो उन्हें मंजुर नही तो...
"ओह!! मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ विचार."
"जानता हूँ तभी तो लौट आया. तुम मुझे हर बात पर टोकती भी नहीं हो, चाहे मे कुछ अनकहा रह जाऊँ या कम शब्दों मे अपनी बात रखूँ."
नयना(आरती) कानिटकर

मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

---उस-पार का रास्ता ---


ना स्वीकारा हो
राम ने सीता को
शाल्व ने अंबा को
स्वीकारा है सदा दायित्व
उसने अभिमान से
हारी नहीं है कभी
चाहे छली गई हो
भस्म हुए हो
स्वप्न उसके,
किंतु वो,
आज भी तलाश रही है
मंजिल से,
उस-पार का रास्ता

मौलिक एवं अप्रकाशित

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

वफ़ादर-३

अपनी सहेली संग कॉलेज से आते हुए दिप्ती  के पैर अचानक ठिठक  गये
"
स्नेहा! देख ईश्वर भी क्या- क्या रंग दिखाता है और हरेक का भाग्य भीएक तरफ़ ये दो मंजिला मकान और उसके कोने से सटे ज़मीन के टुकड़े पर टूटा-फूटा ये मकान,कचरा और ये गंदा सा आदमी उफ़!  इसे कैसे बर्दाश्त..."
"अरे! नहीं दिप्ती ये डा.आशुतोष है.नियती की मार झेल रहे है
"डा आशुतोष..?"
"हा! हा! सच कह रही हूँ.
अर्थ शास्त्र के ज्ञाता थे ये। "अरे! बडी लंबी कहानी है फ़िर भी बताती हूँ
आशुतोष जी  और अराध्या बहूत अच्छे पडौसी थे। अचानक आशुतोष के माता-पिता एक दूर्घटना मे चल बसे, तब अराध्या का बडा मानसिक संबल मिला...बहूत कुछ गुजरा बीच में

"फ़िर..अचानक ये सब?"
"बस नियती ने करवट बदली अराध्या के पिता का व्यपार डूब गया आशुतोष जी ने सहारा दिया बेटा बनकर रहे लेकिन तुम तो जानती हो पैसा अच्छे-अच्छे की नियत बदल देता है। 
एकबार  जब डा.किसी सेमिनार के सिलसिले में लंबे समय के लिये बाहर गये थे अराध्या के पिता ने बेटी के साथ मिलकर सब हडप लिया और अराध्या का...

आशुतोष तो लूट चुके थे, संपत्ति से भी और अराध्या से भी। अवसाद मे घिर गये। नौकरी जाती रही, बस अब इसी तरह...
अराध्या के घर वाले भी कहाँ चले गये किसी को नहीं पता.बस ये "डागी" तब भी उन साथ था, आज भी है अपने पिल्लो संग
 ये सबसे कहते है कुत्ते समान  वफ़ादार कोई नही इनका झुटन  खाने से मेरे रगो मे भी वफ़ादारी दौड़ रही है
नयना(आरती) कानिटकर