बुधवार, 27 जनवरी 2016

यह स्वप्न कैसा--कघुकथा के परिंदे --"मोबाईल टावर"

 मोहल्ले की गुप्ताईन के छत पे जब से मोबाईल का टावर लगा था  उसके तो व्यारे-न्यारे हो गए थे। मतकमाऊ लड़का भी बडे ठाठ से मोटरसाइकिल पे ऐठ मारते घूमता रहता था  टावर का किराया ही जो ४०-५० हजार आ रहा था। 
इधर शर्माईन भी सोचती रहती काश! मेरे घर भी कोई दूसरी मोबाईल कम्पनी वाले टावर लगाने आ जावे तो मैं भी अपनी छत तुरंत उन्हें दे दू,  फ़िर मुझे भी शर्मा जी और बच्चों के सामने हाथ ना फैलना पडे पैसों के लिये।  वो शर्मा जी के पिछे पडी रहती...
"ऎ जी! कोई जुगाड आप भी लगाओ ना टावर के लिये सोचो रिटायरमेंट के बाद आराम से जी लेंगे"
"अरी भागवान! क्यों अपने सर मुसीबत लेना चाहती हो अभी तो आंगन मे जो दो-चार चिड़िया चहकती है वो भी आना बंद हो जावेगी, फिर इतना भार हमारी छत..."
" तुम! चुप करो जी" -- मैं ही देखती हूँ कुछ
घर की डोर बेल बजने पर दरवाज़ा खोलते ही...
"जी! मै एक मोबाईल कंपनी से... क्या आप अपने छत की जगह हमे..."
" हाँ हाँ! क्यो नहीं मारे खुशी के उछलते शर्माईन बोली, कितना किराया और पेशगी रकम देगें आप "
"ये लिजीए इन कागज़ात पर दस्तख़त किजीए और ये आपकी पेशगी रकम पूरे "....." हजार नकद.
वो खुशी के मारे उछल पडी।  तभी ...
बादल कडकडाने की आवाज़ और  तेज बारिश के साथ कुछ ढहने की आवाज़ से उनकी नींद टूटी  भागकर बाहर आयी...
भरी बारिश मे लोग गुप्ताईन के घर के आगे भीड़ जमाए खड़े है। 
नयना(आरती) कानिटकर