रविवार, 3 जुलाई 2011

मै चुप रहूगीं

निन्द मेरी जब खूली धुप थी ढल गई
कदम मेरे उठते  जिन्दगी फिसल गई
होंठ अभी खुले ही थे कि उठ गई लहर
बह गये मेरे शब्द बिखर-बिखर कर

वक्त अब बदल गया लेकर करवट
अनकही बातें और ना शब्द ना तट
लो अब वही हुआँ जिसका था डर
ना रहे शब्द और शब्दो का समंदर

लगी होंठो पर पाबंदियाँ कुछ सुनाने कि
लगी होड प्राण पर समिधा चढाने कि
जिन्दगी में थी थोडी खुशियाँ ,थोडे गम
सिर्फ शब्द ही तो थे मेरे सच्चे हमदम

सही गलत का फैसला में ना कर पाऊ
मै कही टुकडो-टुकडो मे बिखर ना जाऊ
अब रस्ता चाहे कोई हो कोई हो मंजर
आँखे मूंदे मै चूप रहूँगी,कुछ ना कहूँगी