शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

समेटना चाँहती हूँ

फिर से समेटना चाहती हूँ मैं
उन अनमोल क्षणों को जो
प्रति पल मेरे रक्त के साथ
संचारित होते रहते थे,मेरी
देह मे मस्तक से पग तक
                               फिर से समेटना चाहती हूँ मैं
                                उन अनमोल भावनाओं को
                               जो मेरे अंदर रोम-रोम मे
                               बसी हुई थी गंध के समान
                              काया मे  नख से शीख तक     
फिर से समेटना चाहती हूँ मैं
उन अनमोल रिश्तों को जो
जो मेरे साथ  दाएँ-बाएँ चलते
 भरते थे मुझ मे आत्मविश्वास
उन्नत मस्तक से दृढ़ कदमों तक


फिर से समेटना चाहती हूँ !!!!!!