बुधवार, 14 दिसंबर 2016

"माँ"

माँ का आचल पकड हुई बडी
ना जाने कब पैरो पर हुई खडी
याद वह धुंधलासा बचपन
संस्कार सीखाता उसका जीवन
मेरे अस्तित्व सृजन का आधार
मैं  बस सिर्फ़ तुम्हारा विस्तार
तेरी छाया में पलते देखे ऊँचे सपने
इंद्र्धनुषी रंग में जीवन को रंगते अपने
दुसरे के मन की हर लूँ पीर पराई
तुमसे जीवन की अमुल्य निधी पाई
मुझमें इतनी शक्ति भर दो माँ
हर चोट फूलों सी सह जाउँ
चलते उसूलो पर तुम्हारे
गौरव से जीवन सार्थक कर जाउँ

नयना(आरती)कानिटकर

शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

"कर्मफ़ल"

 "कर्मफ़ल"

अपने सेवा काल में बहुत लूट खसोटकर यह फ़्लेटनुमा बहूमंजिला इमारत बडे शान से खड़ी की थी उन्होनेहर एक के लिए स्वतंत्र प्रकोष्ठ बनाकर। माता-पिता रोकते रहे किंतु   उनपर   लूटकर खाने का  स्वाद  जो हावी   गया  था। लक्ष्मी भी खूब बही,  बहते-बहते बेटे के हाथ पहुँची। उसने खूब लूटाई  और वो जाते-जाते सब कुछ लील गई
शराब के नशे मे लड़ाई-झगडे  मे बेटे ने घर को आग लगा दी। वे जैसे-तैसे बच कर बाहर निकले.घर बचाने की गुहार लगाते रहे मगर कोई आगे ना  आया
 सब आपस में कानाफ़ूसी करते रहे "आग भी  खुद ने ही लगाई होगी बीमा कि रकम हडपने के लिए"
अनेको   के पेट की जलती आग आज सुलग रही थी

नयना(आरती) कानिटकर


मंगलवार, 4 अक्तूबर 2016

"सृजन यात्रा "------ गागर मे सागर २६/०९/२०१६

 "सृजन यात्रा "
"जल्दी करो ! तुम्हारी ही माँ का वर्षश्राद्ध है, वृद्धाश्रम वाले राह देख रहे होंगे  इकलौती बेटी हो तुम उनकी।"।"  ---महेश  उतावला होते   हुए बोला
" बस करो महेश! जीते जी तो मेरी माँ को अपने साथ ना रख सके  जब देखो तब  पैसे के लिए माँ का अपमान,  उनके बांझ  होने का उपहास ... अब यह श्राद्ध का ढोंग मुझे दिखावा लगता है" वसुधा  ने बुझे मन से कहा
" अब फ़ालतू बातें बंद करो मैं साल भर से राह देख रहा हूँ इस दिन की.  कुछ तो समझा करो  यार सब चीजों भावनाओं मे बहकर पूरी नहीं होती  "महेश बोला
" चलो.."
वृद्धाश्रम मे पहुँचते ही  वसुधा  माँ  की फूलो का हार डली  तस्वीर  देखकर अपने आप को ना रोक पाई, आँसुओ की  धारा बह निकली। चुपचाप माँ के फ़ोटो के पास बैठ गई
महेश ने पूजा, भोजन आदी सभी कार्य तेजी से निपटा कर मैनेजर को आदेश देते हुए कहा-- वकिल साहब को बुलाओ और सासू माँ की इच्छा अनुसार अब उनकी वसियत भी  सबके सामने पढ दो
वकिल साहब ने सील बंद लिफ़ाफे मे रखा उनका इच्छापत्र पढते हुए कहा--
" मै सुशीला देवी अपनी व  अपनी  दत्तक बेटी की सहमति से यह इच्छापत्र निष्पादित करती हूँ  कि --"मेरी मृत्यु के पश्चात मेरी बची हुई सारी संपत्ति  का    पचास  प्रतिशत  इस आश्रम को दान दिया जाय तथा बचे  पचास प्रतिशत से अनाथ बच्चो के लिए एक रहवासी पाठशाला इसी परिसर के गैर उपयोगी पडे  पिछले खुले परिसर में खोलकर उसकी बिल्डिंग  के लिए उपयोग मे लाए जावे वसुधा उसी मे निवास कर उसका प्रबंधन करेगी "
विस्थापन से सृजन तक  की यात्रा  में वसुधा ने इमारत  की नींव का पहला पत्थर रख माँ को प्रणाम किया

नयना(आरती)कानिटकर
मौलिक एवं अप्रकाशित

रविवार, 28 अगस्त 2016

संक्रमण--लघुकथा

" हैलो.." ट्रीन-ट्रीन की घंटी बजते ही स्नेहा फोन  उठाते हुए बोली
" हैलो स्नेह! कैसी हो. बहुत व्यस्त हो क्या." उधर से बडे भैया की आवाज थी.
" अरे! भैया व्यस्त ही नही अस्तव्यस्त भी हूँ."
" क्यो क्या हुआ..."
"क्या बताऊँ  समझ नही पा रही. तुमने जो रिश्ता सुझाया था ना अपनी भांजी ले लिए कहती है प्रोफ़ाइल तो अच्छा है. मगर पाँच साल बडा है वो मेरे सामने अंकल लगेगा. आजकल तो एक साल मे ही गेनेरेशन गेप आ जाता है. अब तुम ही  बताओ मैं तो थक गई हूँ समझा कर भी और..."
" बहना! इधर भी यही हाल है. सोमेश को कोई भी लड़की दिखाओ कहता है पापा! मुझसे पाँच- छह साल छोटी हो वरना शादी के एकाध साल मे ही वो आंटी दिखने लगेगी."
"सच! बहुत मुश्किल है दादू इस पीढी को समझाना."
"कोई ना छोटी संक्रमण काल है ये हमारी पीढी का."
ना तो  पुराना सहेजा जा रहा और  ना ही नई पीढी के साथ सामंजस्य बैठ रहा.

मौलिक एंव अप्रकाशित

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

ठोस रिश्ता---"भावनिक विवाह"

"ठोस रिश्ता"
"अरे रश्मि! तुम यहाँ - तुमने चेन्नई कब शिफ़्ट किया, मुझे बताया भी नहीं और हा! तुम बडी सुंदर लग रही हो इतनी बडी बिंदी- मंगलसुत्र में. ये तुम कब से पहनने लगी . तुम तो इन सबके खिलाफ़ थी."
" हा! हा! सब एक साथ ही पूछ लेगी क्या. चल सामने की  शाप  मे एक-एक कप कॉफी  पीते है"
"अब बता" विभा ने कहा
" तू तो जानती है मैने अनिश के साथ प्रेम विवाह किया था. मैने तो उसे दिल मे बसाया था तो मैं इन सब चीजों का प्रदर्शन ढकोसला मानती थी.  उसने  भी कभी कुछ नहीं कहा वो मेरी हर बात का मान रखता था. जिंदगी बडी खुबसुरत चल रही थी कि अचानक एक दिन अनिश  गश खाकर गिर पडा. उसका निदान मस्तिष्क की रक्त वाहिनियो मे थक्के के रूप में हुआ. अनेक प्रयत्नो के बाद भी मैं उसे बचा ना सकी."
"तू भी कितनी बेगैरत निकली दूसरा विवाह भी कर लिया." विभा ने कुछ नाराज़गी से कहा
"नही रे! बहुत बुरा समय गुजरा इस बीच . तू तो जानती थी मेरे ससुराल वाले लोगो को मुझ पर देवर से शादी का दबाव...फिर मैं अपना तबादला लेकर यहाँ आ गई. लेकिन यहाँ भी भेडिये कम ना थे."
"फ़िर.." विभा ने पूछा
"फिर क्या मैने अनिश की आत्मा से विवाह रचा लिया और धारण करली ये भावनाएँ"

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
२३/०८/२०१६

गुरुवार, 18 अगस्त 2016

अनमोल पल

कितना आनंद है ना
इन त्योहारों का
ले ही जाते है स्मृतियो में
याद आ रहा है वो
माँ का एक ही छिंट के थान* से
दोनो बहनों का एक समान
फ्राक सिलना और
छोटे भाई का वो झबला
कि हम ना करे तुलना
एक दूसरे से तेरे-मेरे अच्छे की
फिर छोटे-छोटे हाथों से
वो उसका उपहार
साटिन की चौडे पट्टे की रिबन का
दो चोटियों मे गूँथ ऐसे डोलते
मानो सारा आकाश हमे मिल गया हो
फ़ुदकते रहते सारा दिन
आंगन और ओसरी पर कि
कोई तो देखे हमारे भाई ने क्या दिया
बहूत छोटी-छोटी खुशियाँ थी
संग ढेर सा प्यार
कितने अनमोल थे वे पल

"नयना"

*थान--असीमित कपड़े की लंबाई
रक्षाबंधन की शुभकामनाऎ भाई


रविवार, 24 जुलाई 2016

कोरे विचार-"विसर्जन"

"विसर्जन"
अखबार हाथ में लेकर सृजन लगभग दौड़ते हुए  घर  मे घुसा
"मम्मा!, पापा! ये देखो ये तो वही है ने जो हमारे गणपति बप्पा को..."
सुदेश ने उसके हाथ से पेपर झपटकर टेबल पर फ़ैलाया
"देखो दिशा! ये तो वही लड़का है"
अरे हा! कहते वो भी समाचार पर पर झुक गई. सब कुछ चल चित्र सा उसकी आँखो से गुज़र गया
यही कोई १४-१५ बरस का दूबला-पतला सा  किशोर होगा वह. उसका असली नाम तो नहीं जानते थे पर उसके रूप-रंग को देखकर सब उसे कल्लू के नाम से पुकारते थे. वह हमेशा ही उन्हें बडे तालाब के किनारे मिल जाया करता था. अंग्रेजी नही जानता था फ़िर भी विदेशी सैलानियों का दिल जीतकर उन्हे नौका विहार करा देता था. स्वभाव से खुश दिल था किंतु उसकी आँखो से लाचारी झलकती थी. उसका बाप बीमार रहता था. वो ही सहारा था घर का शायद इसलिए वो तालाब की परिक्रमा लगाया करता था.
बप्पा के विसर्जन के दिन तो भाग-भाग कर सबसे विनय करता कि लाओ मैं बप्पा को ठीक मध्य भाग मे विसर्जित कर दूँगा.आप चाहे अपनी दक्षिणा बाद मे दे  देना.
तालाब के मध्य भाग मे जोर-जोर से भजन गाकर बप्पा को प्रणाम कर उनको जल समाधि  दिया करता था. इसी बिच यदि अजान सुनाई देती तो आसमान की  ओर आँखें उठा कर अपना हाथ हृदय से लगा लेता.
 कुछ कायर,भिरुओ को शायद ये बात अखर गई थी. एक पवित्र परिसर मे छुरा घोपकर उसे मार दिया गया था.
 उसके मृत देह से उसकी वही लाचार दृष्टि दिखाई दे रही थी कि अब मेरे बप्पा को कौन सिराएगा (immerse) .
लगा बप्पा भी पास मे ही बैठे है अपने भक्त का रक्तरंजित हाथ लेकर  मानो कह रहे हो...विसर्जन तो अब भी होगा. दूसरे बच्चे ये काम करेंगे,किंतु
राम-राम कहने वाला रहमान अब शायद ही कोई हो.


*** विवेक सावरीकर "मृदुल" की  मराठी कविता "तो पोरगा" से प्रेरित होकर.

नयना (आरती) कानिटकर

बुधवार, 22 जून 2016

सिलसिला

 सालों बाद वे सब  गाँव आए थे. इस बार वादा जो किया था सबसे मिलने का.
गाड़ी से उतरते ही सुहानी दौड़ पडी थी. आनंद में मामी,नानी कहते हुए खूब सबके गले मिली.
"नानी! यशा दीदी कहाँ है?" पूछते ही उसका ध्यान कमरे के कोने पर गया जहाँ वो चुपचाप घुटनों को पेट के बल  मोडे एक टाट के बोरे पर लेटी थी.
"दीदी! कहते जैसे ही उससे मिलने दौडी कि," --अम्मा चिल्लाई.
"अरे ! उससे दूर रहना उसे कौवे ने छू लिया है." कोई उसके पास नही जाएगा."
"ये क्या होता है माँ.."
"अभी तू बडी होगी तो सब समझ जाएगी. सुधा दीदी रोको उसे ." भाभी ने बीच मे टोकते हुए कहा
"वो सब समझती है भाभी मगर ये सिलसिला यू कब तक चलेगा.अब तो दुनियाँजहान की लड़कियाँ इन दिनों मे भी सारे काम करती है,ऑफ़िस जाती है, समारोह मे हिस्सा लेती है, यहा तक की पहाड़ों पर चढने से भी नही कतराती और ये क्या इतने गंदे कपड़ों मे नहाई भी नहीं क्या?"
"उठो बेटा! चलो तुम्हें पानी गर्म कर दूँ.  पहले अच्छे से नहाओ फ़िर आगे बात करेंगे." सुधा ने उसे उठाते हुए कहा.
सुहानी ने  दौडकर  अपने बैग से एक पैकेट लाकर उसे थमा दिया.

नयना(आरती) कानिटकर
२२/०६/२०१६

मंगलवार, 21 जून 2016

"दया की दाई" इंसानियत की पीडा-- ---- ओबीओ २९-एप्रिल २०१६


--इंसानियत की पीडा--

वह  जल्द से जल्द घर पहुँचना चाहता था ताकि अपनी गर्भवती पत्नी को थोड़ा घूमा लाए। कई दिनों से दोनो कही बाहर नही गए थे ऑफ़िस से लेपटाप ,पेपर आदि  समेट कर वह लगभग भागते हुए प्लेटफॉर्म पर पहुँचातभी तेज गति की लोकल उसके सामने से निकल गई. उफ़ अब वक्त जाया हो जायेगा सारा

अचानक उसकी नजर प्लेटफ़ॉर्म की सीढ़ियों के नीचे गई।  अच्छी खासी भीड़ जमा थी वहां। कुतुहल  वश वह भी पहुँच गया
अरे! यह क्या ये तो वही भिखारन है जो लगभग रोज उसे यहाँ दिख जाती थी। पता नही किसका पाप ढो रही थी बेचारी आज दर्द से कराह रही थी शायद प्रसव- काल निकट आ गया था "
सहसा पत्नी का गर्भ याद कर विचलित हो गया
 भीड़ मे खड़े स्मार्ट फ़ोन धारी सभी नवयुवक सिर्फ़ विडिओ बनाने मे व्यस्त थे"
" जितने मुँह उतनी बातों ने ट्रेन के शोर को दबा दिया था"

तभी एक किन्नर  ने आकर अपनी साड़ी उतार उसको  आड कर दिया
" हे हे हे... ये किन्नर इसकी जचकी कराएगा" सब लोग उसका मजाक उडाने लगे थे.
चुप कारो बेशर्मो, चले परे हटो यहाँ से तुम्हारी माँ-बहने नहीं हे क्या? किन्नर चिल्लाते हुए बोला.


धरती से प्रस्फ़ुटित होकर नवांकुर बाहर आ चुका था किन्नर ने  उसे उठा अपने सीने से लगा लिया

अब सिर्फ़ नवजात के रोने की आवाज थी एक जीवन फिर  पटरी पर आ गया था
दोयम दर्जे ने इंसानियत दिखा दी थी, भीड़ धीरे-धीरे  छटने लगी

मौलिक एवं अप्रकाशित

नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल

०३/०५/२०१६




" हलवे का घी"

" हलवे का घी"

माँ से बिछडने का गम उसे अन्दर तक साल रहा थाI  उन्हें बरसों से तरह-तरह की बीमारियों ने जकड़ रखा थाI लेकिन साथ ही  कहीं ना कहीं उसे इस बात का संतोष  भी  था कि अंतत: उन्हे कष्टों से छुटकारा मिल गयाI
उनके कमरे के सामने से गुजरते बरबस आँखें भर आई I अब उसके लिए  गठरिया कौन सहेजेगा ,मकई का आटा,मूँग बडी,नींबू अचार ,कितना कुछ होता  था उसमें. अपने आँचल से कोरों को पोछने हुई  कि भाभी ने आवाज लगाई
"आ जाओ  बहना! खाना तैयार है. दामाद जी भी  वापसी की  जल्दी मचा रहे है। आओ! आज सब कुछ तुम्हारी पसंद का बनाया हैं. पुलाव, भरमा बैंगन, आटे-गुड का तर घी हलवा"
किंतु उसकी जिव्हा तो चिरपरिचित स्वाद के लिये व्याकुल थी
" अरे!चलो भी देर हो रही है , मुझे दफ़्तर भी  तो जाना है."रितेश ने  रोष में आवाज लगाते हुए बोला
बेमन से कुछ कौर उसने हलक से नीचे उतारे, पानी का घूट भरा और तुरंत सामान उठा बाहर को निकल पडी.
देहरी पार कर कार मे बैठने को हुई तो   भैया ने कुछ कागज हस्ताक्षर के लिये  आगे कर दिए
 

" ये क्या है भैया"

" वो जायदाद के...." हकलाते हुए भैया ने कहा
 उनके हाथों से कागज लेकर हस्ताक्षर के स्थान पर भरे नेत्रो से बस "स्नेह" ही लिख पाई कि...
कार अपने मंज़िल को निकल पडी

नयना(आरती)कानिटकर

 

प्रकृति और पर्यावरण


प्रकृति और पर्यावरण


उदास भोर
तपती दोपहर
कुम्हलाई शाम
धुआँ ही धुआँ
गाड़ी का शोर
अस्त व्यस्त मन
ये कैसा जीवन

मानव ने किया विनाश
हो गया सत्यानाश
पहाड़ हो गये खाली
कैसे फूल उगाँए माली

सूखा निर्मल जल
प्रदूषित नभमंडल
जिस देखो औद्योगिक मल
कैसे हो जंगल मे मंगल


कही खो गये है
वन-उपवन, वो बसंत का आगमन
कैसे गूँजे अब, कोयल की तान
बस! भाग रहा इंसान

मौलिक एवं अप्रकाशित




"छल" लघुकथा के परिंदे---निर्जन पगडंडी १ ली प्रस्तुति.



एक कथानक के तीन रूप
१-----
तेरह दिन का शोक और श्राद्ध करके सारे रिश्तेदार जा चुके थे. "कैसी औरत है मांग का सिंदूर पुछ गया,मजाल जो एक आँसू भी बाहर निकला हो ." सब के खुसफ़ुस ताने, तिरस्कार,धिक्कार, समझ कर भी अंजान बनी रही थी .जिंदा लाश बनी वह सब कुछ देखती,सुनती,सहती रही थी.

घर की व्यवस्था को ठिक करने के लिये उसने छुट्टी ले  रखी थी.बेटे को स्कूल भेज अस्तव्यस्त सामान को समेटने लगी थी कि उनके  अलमारी  की चाबी हाथ लग गई . खोली तो देखा बेतरतीब  भरी पड़ी थी. वो कभी उसके सामने उसे नही खोलते थे  और चाबियाँ सदा पास रखते थे. वैसे भी वो उनकी केवल पत्नी थी,राजदार  थी ही कहाँ कि अचानक  डायरी हाथ लग गई. पेज पलटती गई उसी के साथ रंग स्याह पडता गया था उसका . जीवन के १० वर्ष सामने थे उसके. पढते-पढते वह तिल मिला उठी.
"मैं पुरुष हूँ  ही कहाँ और पति धर्म ..  यह राज मेरे और अखिलेश के सीवा कोई नही जानता."
इतना बडा छल , धोखा , . तो क्या मधुयामिनी की रात अचानक रोशनी का चले जाना एक जान-बूझकर किया गया षडयंत्र  था . क्या दाम्पत्य की बुनियाद केवल सेक्स पर ही...जो अंधेरे का फ़ायदा उठा उनके दोस्त ने..
सब कुछ जान चुकी थी, अब डायरी में पढने को बचा ही क्या था. डायरी के हर पृष्ठ पर उनकी बेचारगी थी. निर्जन पगडंडी पर अकेले  चलते रहे थे आदित्य. अपनी पौरुष हिनता को छिपाने का ऐसा दिखावा कि शक होने लगे कि वे किसी अन्य को  चाहते है. उनके दुख के सामने अदिती का दु:ख बौना हो गया था.
उसने डायरी  हाथों मे भींच ली.
इसे आग लगानी होगी,अभी इसी वक्त अनुज के स्कूल लौटने से पहले ताकि उसके हदय मे पिता स्मृति आत्मिक और पावन बनी रहे.

नयना(आरती) कनिटकर
१०/०६/२०१६



 २---
तेरह दिन का शोक और श्राद्ध करके सारे रिश्तेदार जा चुके थे"कैसी औरत है मांग का सिंदूर पुछ गया,मजाल जो एक आँसू भी बाहर निकला हो |" सब के खुसफ़ुस ताने, तिरस्कार,धिक्कार, समझ कर भी अंजान बनी रही थी .जिंदा लाश बनी वह सब कुछ देखती,सुनती,सहती रही थी|
 माँ की बिमारी के चलते विवाह भी तो कोर्ट मे ही हुआ था.
  वो भी क्या करती प्रथम रात्री के पश्चात आदित्य उससे दूर रहने के सैकडो बहाने   ढूँढ लाते थे.कभी सासू माँ की बिमारी, कभी आफ़िस का दौरा...फ़िर कभी वो उनके स्नेह का स्पर्श महसूस नही कर सकी थी|
प्रकृति ने भी  तो उस रात्री मे ही अपनी रासलिला रचा ली थीउसका भाग्य  मातृत्व की और कदम बढा गया था|
बाद मे वह घर,बच्चा,सासू माँ और कालेज की नौकरी  मे ही व्यस्त हो गई|
वो तिल-तिल जलती रही उनके सानिध्य के लिये.ये तो भला था कि विवाह से पूर्व से ही कामकाजी थी.

घर की व्यवस्था को ठिक करने के लिये उसने छुट्टी ले  रखी थी.बेटे को स्कूल भेज अस्तव्यस्त सामान को समेटने लगी थी कि उनके  अलमारी  की चाबी हाथ लग गई . खोली तो देखा बेतरतीब  भरी पड़ी थी. वो कभी उसके सामने उसे नही खोलते थे  और चाबियाँ सदा पास रखते थे. वैसे भी वो उनकी केवल पत्नी थी,राजदार  थी ही कहाँ कि अचानक  डायरी हाथ लग गई. पेज पलटती गई उसी के साथ रंग स्याह पडता गया था उसका . जीवन के १० वर्ष सामने थे उसके. पढते-पढते वह तिल मिला उठी.

"मैं पुरुष हूँ  ही कहाँ और पति धर्म ..  यह राज मेरे और अखिलेश के सीवा कोई नही जानता."
इतना बडा छल , धोखा , . तो क्या मेरे साथ... मधुयामिनी की रात अचानक रोशनी का चले जाना एक जान-बूझकर किया गया षडयंत्र  था . क्या दाम्पत्य की बुनियाद केवल सेक्स पर ही...जो अंधेरे का फ़ायदा उठा उनके दोस्त ने..
सब कुछ जान चुकी थी, अब डायरी में पढने को बचा ही क्या था. डायरी के हर पृष्ठ पर उनकी बेचारगी थी. निर्जन पगडंडी पर अकेले  चलते रहे थे आदित्य. अपनी पौरुष हिनता को छिपाने का ऐसा दिखावा कि शक होने लगे कि वे किसी अन्य को  चाहते है. उनके दुख के सामने अदिती का दु:ख बौना हो गया था. मगर वह उनकी तरह डरपोक नहीं थी, उसने  प्रण कर लिया  नये रास्ते पर चलकर अनुज  को उसके असली पिता का हक दिलाने का.

डायरी  को अपने हाथो से आग के हवाले कर   भस्म कर  दिया.

"छल"


३---
तेरह दिन का शोक और श्राद्ध करके सारे रिश्तेदार जा चुके थे "कैसी औरत है मांग का सिंदूर पुछ गया,मजाल जो एक आँसू भी बाहर निकला हो " सब के खुसफ़ुस ताने, तिरस्कार,धिक्कार, समझ कर भी अंजान बनी रही थी। जिंदा लाश बनी वह सब कुछ देखती,सुनती,सहती रही थी
याद है उस दिन बेटे को स्कूल भेज अस्तव्यस्त सामान को समेटने लगी थी कि उनके  अलमारी  की चाबी हाथ लग गई उनके  अलमारी  की चाबी सदा कौतुहल का  विषय  रहा था  अचानक  डायरी हाथ लग गई पेज पलटती गई उसी के साथ रंग स्याह पडता गया था उसका
"मैं पुरुष हूँ  ही कहाँ और पति धर्म ..  यह राज मेरे और अखिलेश के सीवा कोई नही जानता"
इतना बडा छल , धोखा , . तो क्या मधुयामिनी की रात अचानक रोशनी का चले जाना एक जान-बूझकर किया गया षडयंत्र  था  निर्जन पगडंडी पर अकेले थे आदित्य  अपनी पौरुष हिनता को छिपाने का ऐसा दिखावा कि शक होने लगे कि वे किसी अन्य को  चाहते है। उनके दुख के सामने अदिती का दु:ख बौना हो गया था। मगर वह उनकी तरह डरपोक नहीं थी, उसने  प्रण कर लिया  नये रास्ते पर चलकर अनुज  को उसके असली पिता का हक दिलाने का

नयना(आरती) कनिटकर
१०/०६/२०१६



शनिवार, 18 जून 2016

व्यस्त

मैं
ढाल लेती हूँ
अपने को आप को
एक
सांचे की तरह
तुम्हारे व्यस्तताओ के बीच
तुम
मुझे ढलता देख
मन ही मन मुस्काते हो
किंतु
तुम्हारी व्यस्तता
बता जाती है मुझे
कि
वाकई में तुम
कितने खाली हो

नयना(आरती) कानिटकर

गुरुवार, 26 मई 2016

"हूनर"---लघुकथा के परिंदे-स्वयंसिद्धा ५ वी


अचानक वज्रपात हुआ था उस पर वरुण उसे कार दुर्घटना मे अकेला छोड गये थे वह  स्वयं भी  एक पैर से लाचार  हो गयी थी। कुछ सम्हलने के बाद उसने माँ से गुज़ारिश की थी कुछ काम करने की
"बेटा! कैसे कर पाओगी सब हमारे रहते तुम्हें किसी चिंता की जरुरत नहीं"
"नहीं माँ मैं  आप लोगो पर भार नहीं बन सकती मेरे पास आप के  दिये बहुत सारे हुनर हैमैं अपना एक  बूटिक खोलना चाहती हूँ
उसके मस्तिष्क मे अपने  दादी के साथ के  वे सारे संवाद घुमने लगे  थे जिससे कभी उसे बडी कोफ़्त होती थी
"बहू! गर्मी की छूट्टीयाँ हे इसका मतलब ये नही कि घर  की  लड़की अलसाई सी बस बिस्तर पर डली रहे। उसे कुछ सिलाई,कढाई,बुनाई का काम सिखाओ"
"क्या! दादी आप जब देखो मेरे पिछे पडी रहती है मुझे नहीं सीखना ये सब कुछ । ये किस काम का.आजकल तो बाज़ार मे सब मिलता है"
" हा बेटा! मगर ये सब काम करके  पैसा बचाना भी एक तरह से पैसे कमाने के समान है"
आखिर हार कर उसने माँ और दादी से धीरे-धीरे सब सीख लिया  घर के सब लोग उसकी सुघडता की  तारीफ़  करते। अब तो उसे भी इन कामों मे रस आने लगा थाअब वही उसका संबल बनने जा रहा था.वह तेजी से  सारी तैयारी कर चुँकी थी। बस एक विशिष्ठ मेहमान के आने का इंतजार था
राधिका  बूटिक के काउंटर पर बैठी अपनी माँ को देख रही थी जिनके चेहरे पर असीम संतुष्टि के भाव थे। 
तभी पापा दादी को लेकर आ गये। सारे मेहमान द्वार पर इकट्ठा हो चुके थे
दादी ने फ़िता काट उदघाटन किया और उसे अपने अंक मे भर लिया

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल


ड्राफ़्ट

"हुनर"
"बहू! गर्मी की छुट्टीयाँ हे इसका मतलब ये नही कि घर की लड़की अलसाई सी बस बिस्तर पर डली रहे.उसे कुछ सिलाई,कढाई,बुनाई का काम सिखाओ।"
"क्या! दादी आप जब देखो मेरे पीछे पडी रहती है। मुझे नहीं सीखना ये सब कुछ। ये किस काम का.आजकल तो बाज़ार मे सब मिलता है।"
" हा बेटा! मगर ये सब काम करके पैसा बचाना भी एक तरह से पैसे कमाने के समान है।"
आखिर हार कर उसने माँ और दादी से धीरे-धीरे सब सीख लिया। घर के सब लोग उसकी सुघडता की तारीफ़ करते। अब तो उसे भी इन कामों मे रस आने लगा था.
अचानक घर पर वज्रपात हुआ। वरुण उसे कार दुर्घटना मे अकेला छोड गये। वो स्वयं भी एक पैर से कमजोर हो गयी। कुछ सम्हलने के बाद उसने माँ से गुज़ारिश की कुछ काम करने की।
"बेटा! कैसे कर पाओगी सब, हमारे रहते तुम्हें किसी चिंता की जरुरत नहीं।"
"नहीं माँ मे आप लोगो पर भार नहीं बन सकती।मेरे पास आप के दिये बहुत सारे हुनर है। मैं अपना एक बूटिक खोलना चाहती हूँ।
राधिका काउंटर पर बैठी अपनी माँ को देख रही थी जिनके चेहरे पर असीम संतुष्टि के भाव थे।वह तेजी से बाकी सारी तैयारी कर चुँकी थी .बस एक विशिष्ठ मेहमान के आने का इंतजार था.
आशा बेटी की चल रही भाग दौड को देख रही थी। मन के किसी कोने मे दु:ख तो था अपने दामाद को खोने का मगर साथ ही स्नेहा को अपने पैरो पर खड़े होते देखने का संतोष भी।
तभी पापा दादी को लेकर आ गये। सारे मेहमान द्वार पर इकट्ठा हो चुके थे।
दादी ने फ़िता काट बूटिक का उदघाटन किया और उसे अपने अंक मे भर लिया।
नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल





शनिवार, 14 मई 2016

बसंत आया बसंत आया / सार छंद

बसंत आया बसंत आया, रंग कितने लाया
लाल पिला हरा व सिंदूरी, रंगाई है काया

बसंत आया बसंत आया, रंग देवरा लाया
मन रंगे थे पहले सबके, अब रंगाते  काया

बसंत आया बसंत आया, चटक रंग अब डालो
जीवन एक महकती बगिया, फाग अब तुम गालो

बसंत आया बसंत आया, देखो टेसू फूले
लिख देती कुदरत पहले, टहनी केसर झुले

बसंत आया बसंत आया, फूले गेहूँ बाली
पीत पीत स्वर्णिम भंडार, अमलतास की डाली

बसंत आया बसंत आया, भीगी  होली खेले
छोडो दुनिया की चिंता, दूर करो मन मैले

मौलिक एवं अप्रकाशित

शनिवार, 7 मई 2016

"संतुलन"

 "त्राहीमाम! त्राहीमाम!  तनिक आसमान से नीचे झांकिये प्रभु, मेरे मानव पुत्र पानी की बूँद-बूँद को तरस रहे है "--- धरा ने अपने दोनो हाथ फैला कर  इन्द्र देवता के समक्ष गुहार लगाई.
"इसकी जिम्मेदार तुम हो धरा"--- इन्द्र ने कहा
"मैं ?  वो कैसे प्रभु"--हाथ जोड़ते हुए धरा ने पूछा
"तुमने अपनी बेटी "प्रकृति" को अपने सानिध्य में, अपने आँचल मे फलने-फूलने देने की बजाय  पुत्रो को खुली छूट दे दी उसका दोहन करने की. प्रकृति की हरी-भरी वादियों के पेड रूपी जड़ों से तुम्हारे अंदर जो जीवन का प्रवाह था उसे तुमने प्रगति के नाम पर खुद नष्ट किया है."
" बहुत बडी ग़लती हुई है प्रभु! अब इस पर कोई उपाय"
" बस एक उपाय है.  ये जो डोर है  मानव के हाथ में  है पानी उलिचने के लिए  उसका एक सिरा  प्रकृति के हाथ मे थमा दो व दुसरा उनके गले मे डाल दो  जिन्होने बाँध बनाने के नाम पर पैसा बना लिया.
नयना(आरती) कानिटकर
BHOPAL









मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

"जान की किमत"

अपनी खानदानी परंपरा को आगे बढाते हुए उसने पापी पेट के लिये इस काम को अपनाया था.  काम के बदले मे  कुछ पैसे मिलते थे.  तब से दारु भी  उसकी चोली दामन की साथी बन गई  थी.
 काम ही ऐसा था दारु चढ़ा लो तो डर ना लगता. सीना तना रहता ,न घबराहट न दया, पूरी तरह बेखौफ़. अपने हाथों से उसने रस्सी का फंदा तैयार करना , काले कपड़े से बने थैलीनुमा आवरण से कैदी का चेहरा ढंका, लीवर खींचा और खटाक की आवाज़ के साथ कु्छ ही पलों में कैदी फंदे पर ...
एक दिन बेटे  छोटु की तबियत  ऐसी खराब हुई थी  की कई दिनों के उपचार के बाद भी सम्हलने का नाम नहीं ले रही थी. बुखार की वजह से वह बेहद कमजोर हो गया था, इलाज के लिये काफ़ी भाग दौड़ की किंतु दिन-
बेहोशी की सी हालत में वह बुदबुदा रहा था बाबा...मैं कब ठीक होउंगा, मैं कब खेलने लगुंगा.....बोलते बोलते उस पर मुर्छा छाने लगी और फिर कुछ ही देर में उसने उसकी की गोद में ही दम तोड़ दिया. 
दिनेश  के पाषाण ह्रदय में भावनाओं के बीज अंकुरित कर दिये को खुद पता नहीं चला, आखिर को था तो उसकी ही औलाद, उसका अपना खून, अपना अंश.
जिंदगी में पहली बार आंखों से आँसू टपक पड़े, उसका कठोर ह्रदय मोम की तरह पिघल गया. जिन हाथों से वह लोगों के गले में फाँसी का फ़ंदा डाला करता था आज उन्हीं हाथों में उसके बेटे की लाश थी.
अंत्येष्टी से निपट घर आकर भरभराकर ज़मीन पर गिर पडा.
आँसू भरी आँखो में फाँसी के फंदे के अलावा कुछ ना दिखाई दे रहा था.
पहली बार उसे  एहसास हुआ की किसी की जान की कीमत क्या होती है!

नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल
प्रतिदीन  उसकी हालत बिगड़ती गई ...

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

धरा पर
जब तक स्त्रियों, बच्चों पर
अत्याचार बिना, शत्रुत्व पूरा नहीं होता
जहाँ गर्भ पर भी
मारी जा सकती है लाथ
जहाँ एक नारी के हाथ
थमा दी जाती है हिंडोले की डोर
जहाँ वह स्वयं तय नहीं कर पाती
अपनी नग्नावस्था,
कब और किसके साथ
और जहाँ उसके बच्चे पर,
लगना होता है किसी
धर्म विशेष का ठप्पा
और ऐसी जगह पर्वत पर,
रक्त जमाने वाली ठंड ,
गर्म तपती रेत पर
मुसलाधार बारिश में, गिले कपड़ों मे
बाढ प्रदेश,सुखाग्रस्त ,कंपित क्षेत्र मे
अस्पताल,मंदिर,गंदगी के ढेर पर
और ऐसी जगह जहाँ
अन्न,पानी वस्त्र,शिक्षा,भविष्य
की कोई आश्वस्तता  नहीं होती
कोई उम्मीद नहीं होती शिशु के
जिवंतता की
बम विस्फोट में
सीमा के इस पार या उस पार
धरा पर सब जगह
जननी  अभी भी
उपज रही है सन्तानें

मूळ कविता--अपर्णा कडसकर
अनुवाद---नयना(आरती) कानिटकर

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

"वक्री" लघुकथा के परिंदे--मुहूर्तों की सलाखें--४थी


 दोनो ने एक अनाथ बच्ची गोद लेने का निर्णय लिया था ताकी वक्त रहते बच्ची का सही पालन-पोषण किया जा सके और  घर की रौनक को चार चाँद  लग जाए
इस निर्णय से घर  में तो हंगामा मच गया था....
घर वालो की जिद के आगे खर्चिली, अनआशवस्त  आय.वी.एफ़, तकनीक  अपनाने का निर्णय लिया गया। बच्चा सिजरियन होगा यह पहले से तय था। वह अब पूरे दिनों मे चल रही थीं
आखिर तय हुआ की इस अमुक तारीख़ को , इतनी बजे बच्चे का जन्म कराया जाए तो सारे ग्रहयोग उसके साथ होने से  उसके जीवन मे राजयोग होगा
मिनल के  थोड़ा असहज महसूस करते ही मोहित ने डा,रेखा से संपर्क कर अस्पताल...
"अरे!  कुछ ना होगा माँ बेटे को. अभी  राहु थोडा वक्री चल रहा हैजल्द मार्ग बदलने वाला है पिताजी अड़े रहे अपनी बात पर, इधर मिनल के हालात...
डा,रेखा ने तुरत-फुरत आपरेशन की तैयारी की किंतु  बच्चे को...
एक माँ की ख़ुशियाँ हमेशा के लिए वक्री हो सलाख़ों मे कैद हो गई.

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
२०-०४-२०१६


"टी.आर.पी" लघुकथा के परिंदे ३ री

----"टी.आर.पी"----

 "
ये देखो सिद्धार्थ! चारो ओर सूखे की मार, प्यासी धरती, घरो में खाली बर्तन, बिन नहाये गंदले से बच्चे ये तस्वीरे देखो....
अरे ,कहाँ गए ! ये सब किसकी तस्वीर ले रहे हो तुम ....! "घुटनो तक साड़ी चढाए खुदाई करती मज़दूरन की, तो कही स्तनपात कराती आदिवासी खेतिहर मज़दूर, तो कही उघाडी पीठ के साथ रोटी थेपती महिला की ...कैमरा हटाओ ! "यह सब थोडे ही ना हमे कवरेज करना था। हमे सुखाग्रस्त ग्रामीण ठिकानों का सर्वे कर उस पर रिपोर्ट तैयार करनी है"
"
तुमको इन सब के साथ रिपोर्ट तैयार करना होगा , वरना...!"
वरना क्या सिड...? "
"
वरना मैं दूसरे चैनल वाले के साथ..."
 "तुम  भी ना बाज आओ इस केकडा प्रवत्ति से.....! "
"
मुझे ताना मत दो रश्मि! अगर हमने इन तस्वीरों के साथ रिपोर्ट तैयार नही की तो चैनल का टी.आर.पी कैसे बढेगा और मेरा प्रमोशन तो इसी प्रोजेक्ट ...?"
"मेरे सपने तुम्हारे सपनों से ज्यादा ऊँचे है"
नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल

मौलिक एंव अप्रकाशित


मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

प्रतिष्ठा

"अरे विचार! इतनी जल्दी लौट आए. क्या भावना नही मिली तुम्हें."
"मिली थी! मीनी, मै गया भी था मिलने सरिता-मुक्ता से लेकिन मिलते वक्त उनमे वो उछाह (उत्साह) नहीं था जैसे कि हम पहले मिला करते थे.
"और फ़िर कादम्बिनी,कविता क्या ये भी नही मिली तुम्हें"
"नही मीनी! मै उनके पास गया ही नही, आखिर मेरी भी तो कुछ प्रतिष्ठा है,अस्तित्व है मैत्री का उनके जीवन मे. अगर वो उन्हें मंजुर नही तो...
"ओह!! मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ विचार."
"जानता हूँ तभी तो लौट आया. तुम मुझे हर बात पर टोकती भी नहीं हो, चाहे मे कुछ अनकहा रह जाऊँ या कम शब्दों मे अपनी बात रखूँ."
नयना(आरती) कानिटकर

मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

---उस-पार का रास्ता ---


ना स्वीकारा हो
राम ने सीता को
शाल्व ने अंबा को
स्वीकारा है सदा दायित्व
उसने अभिमान से
हारी नहीं है कभी
चाहे छली गई हो
भस्म हुए हो
स्वप्न उसके,
किंतु वो,
आज भी तलाश रही है
मंजिल से,
उस-पार का रास्ता

मौलिक एवं अप्रकाशित

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

वफ़ादर-३

अपनी सहेली संग कॉलेज से आते हुए दिप्ती  के पैर अचानक ठिठक  गये
"
स्नेहा! देख ईश्वर भी क्या- क्या रंग दिखाता है और हरेक का भाग्य भीएक तरफ़ ये दो मंजिला मकान और उसके कोने से सटे ज़मीन के टुकड़े पर टूटा-फूटा ये मकान,कचरा और ये गंदा सा आदमी उफ़!  इसे कैसे बर्दाश्त..."
"अरे! नहीं दिप्ती ये डा.आशुतोष है.नियती की मार झेल रहे है
"डा आशुतोष..?"
"हा! हा! सच कह रही हूँ.
अर्थ शास्त्र के ज्ञाता थे ये। "अरे! बडी लंबी कहानी है फ़िर भी बताती हूँ
आशुतोष जी  और अराध्या बहूत अच्छे पडौसी थे। अचानक आशुतोष के माता-पिता एक दूर्घटना मे चल बसे, तब अराध्या का बडा मानसिक संबल मिला...बहूत कुछ गुजरा बीच में

"फ़िर..अचानक ये सब?"
"बस नियती ने करवट बदली अराध्या के पिता का व्यपार डूब गया आशुतोष जी ने सहारा दिया बेटा बनकर रहे लेकिन तुम तो जानती हो पैसा अच्छे-अच्छे की नियत बदल देता है। 
एकबार  जब डा.किसी सेमिनार के सिलसिले में लंबे समय के लिये बाहर गये थे अराध्या के पिता ने बेटी के साथ मिलकर सब हडप लिया और अराध्या का...

आशुतोष तो लूट चुके थे, संपत्ति से भी और अराध्या से भी। अवसाद मे घिर गये। नौकरी जाती रही, बस अब इसी तरह...
अराध्या के घर वाले भी कहाँ चले गये किसी को नहीं पता.बस ये "डागी" तब भी उन साथ था, आज भी है अपने पिल्लो संग
 ये सबसे कहते है कुत्ते समान  वफ़ादार कोई नही इनका झुटन  खाने से मेरे रगो मे भी वफ़ादारी दौड़ रही है
नयना(आरती) कानिटकर

गुरुवार, 24 मार्च 2016

मेरे विचार--नया लेखन व लघुकथा के परिंदे ५वी प्रस्तुति

"अरे विचार! कहाँ चल दिये अचानक मुझे  यू अकेला छोड़कर" मीनी (कहानी) ने पूछा
"तुम बडी संकुचित और लघु हो गई हो आजकल. मैं कुछ दिन अपनी पुरानी सहेलियो  के साथ मुक्त विचरना चाहता हूँ"
"मतलब...."
 "मीनी मे तुम्हें छोड़कर कही नही जा रहा,बस कुछ दिन  मुक्ता, सरिता,कादम्बिनी से मिलने को उत्सुक हूँ। कई दिन बीत गये उनसे मिलकर। भावना मुझे ले जाने वाली है उनके पास
"मगर फ़िर मेरा क्या?"
" अरे मीनी!  मैं तो तुम्हारे साथ हूँ हरदम।  तुम अभी तंज और विसंगति  के पालन-पोषण... ऐसे मे मैं कुछ दिन के लिए...."
"रुको रुको विचार! ये दोनो ... सिर्फ़ मुझे दोष मत दो। सब लोग अब बडे समझदार हो गये है.लोगो के पास  अब ज्यादा वक्त कहाँ होता है। वो देखो कितनी धुंध और कुहासा छाया है चारों ओर.
लोग ज्यादा दूर का देख भी नहीं पाते


नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल

सोमवार, 21 मार्च 2016

दबा हुआ आवेश--लघुकथा के परिंदे-- दिल की ठंडक---- केक्टस मे फूल


पड़ोस के गुप्ता आंटी के घर से आती तेज आवाज़ से तन्मय के कदम अचानक बालकनी मे ठिठक गये। अरे! ये आवाज़ तो सौम्या की है।  यथा नाम तथा गुण वाली सौम्या को उसमे हरदम बस घर के कामों मे ही मगन देखा था या फ़िर चुपचाप कॉलेज जाते हुए।  हरदम उनका एक जुमला जबान पर होता काम ना करेगी तो ससुराल वाले लात मार बाहर कर देंगे।  वो भी बस चुपचाप क्यो सहती समझ ना पाया था और फ़िर वह ब्याह कर चली गई थी शहर छोड़कर...
"माँ! समझती क्यो नहीं हो भाभी पेट से है उनसे इतने भारी-भारी काम ..."
"सुन सौम्या! अब तुझे इस घर मे बोलने का कोई हक नहीं है. जो भी कहना सुनना है... और अब भाभी के रहते तुझे कोई काम को छूने की जरुरत नही है।  वैसे भी वो तेरी परकटी आधुनिक सास कुछ काम ना करती होगी। सारे दिन पिसती होगी तुम कोल्हू सी। "
"बस करो माँ! कई दिनो से सौम्या का दबा  आवेश बाहर निकल आया था।  जिसे तुम  परकटी  कह रही हो ना वो लाख गुना बेहतर है तुमसे।  समझती है मेरे मन को भी।  पुरी आज़ादी है मुझे वहाँ काम के साथ-साथ अपने शौक पूरे करने की और... ना ही भाई की तरह तुम्हारे दामाद को उन्होने मुट्ठी मे कर रखा है। "
"माँ!आखिर एक औरत ही औरत को कब समझेगी। "
पड़ोस के आँगन के केक्टस मे आज फूल खिल आये थे और तन्मय के दिल मे ठंडक।

 मौलिक एंव अप्रकाशित
नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल




बुधवार, 16 मार्च 2016

बदलाव का मतलब--लघुकथा के परिंदे--"सर चढा"

 "देखो जी! दिन चढ़ आया मगर अभी तक इनके कमरे का दरवाज़ा अटा (बंद) पडा है.तुम्हारी माँ तो सुबह चार बजे से बर्तन जोर-जोर से पटक कर मुझे उठने को मजबूर कर देती थी और मैं जुटी रहती ढोरो की तरह सारा दिन बस काम ही काम. दम मारने को फ़ुरसत ना मिलती.ये आजकल की बहूए तो पढ-लिख गई तो ...."
"चुप करो भगवान!   क्यो चिल्ला-चिल्ला के बोल रही हो बहू   भी तो खटती है सारा-सारा दिन ऑफ़िस में. किसके लिये हमारे लिए ही ना वरना क्या मेरी बीमारी...हमारा बेटा क्या अकेला इतना..."
"तो बोलो अब क्या करूँ? क्या सर चढाऊ  या कांधे पे बैठा के  नाँचू ..."
तभी बेटे के कमरे से निकलते हुए  बोला...
"माँ! काश  आपने  मुझे पहले  सर ना चढ़ाया होता तो ये नौबत..."

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
मौलिक एंव अप्रकाशित

शनिवार, 12 मार्च 2016

सफ़ेद चादर

कितनी हुलस थी केशवा को पढने की मगर सुखी पडी धरती ने उसकी माँ का खून भी सुखा दिया था और दिमाग की सोच भी. .क्या करती कब तक आटे मे सूखे घास को पीसकर मिला-मिला उसे खिलाती। इन्द्र देवता की इतनी लंबी नाराज़गी कि स्कूल का हेंडपम्प भी २०-२५ हाथ मारने पर दो लौटा पानी दे पाता. दिल पर पत्थर रखकर आखिर शहर जाने वाली गाड़ी मे बैठा लौट आई थी कैलासो। कुछ तो दो वक्त खा ही लेगा. मेरे पेट मे पडे बल तो मैं सह लूँगी पर... जवान होता बेटा...
वक्त गुज़र रहा था एकाध बार खबर आई भी केशवा की, कि वो ठिक है, मगर मुंबई की भागदौड़ उसे रास नही आ रही.सब एक दूसरे को कुचलते आगे बढने की होड मे है मगर...।
सूरज पूरे ताप पर चल रहा था कि अचानक एक बादल का टुकड़ा उसे कुछ पल को उसे ढक आगे निकल गया.बडी आंस से वो बाहर आई तो क्या...।
"इसे पहचानो अम्मा..कही ये केशवा...जैसे ही सफ़ेद चादर हटाई..।"
धरती मे पडी सुखी दरार आँसुओ से सिंच गई।
नयना(आरती)कानिटकर

गुरुवार, 10 मार्च 2016

मेरी माँ

माँ तो बस माँ होती है हमेशा मेरी नज़रों के सामने चाहे वह समा गई हो अनंत में किन्तु, मेरे हृदय मे समाई वो सदा खड़ी है मेरे पिछे मेरा आधार, मेरा संबल वो तो एक अनंत आकाश है जब भी याद करूँ वो ना बहन, ना बहू, ना ही लड़की किसी की वो तो सिर्फ़ माँ हैं अपने बच्चों की वो आशियाना होती हैं सब सहते हुए माँगती है अंजूली भर आशीर्वाद ,बेहतरी का बच्चों के ख़ातिर जिस दिन चले गये थे, मेरे बाबा मैने देखा है उन्हें सम्हलते खुद को,मेरे लिए पिता होते हुए. मूळ कविता ---प्रकाश रेडगावकर अनुवाद--नयना(आरती)कानिटकर १०/०३/२०१६

बुधवार, 2 मार्च 2016

"हस्ताक्षर"


पूरा घर गेंदे के फूलों की महक और छोटे-छोटे बल्ब की लडियों से दिप-दिप कर रहा था। हँसी-ठिठौली से सारा वातावरण आनंदमय था। वह भी अपनी सबसे अच्छी साड़ी निकाल हाथों से सिलवटो को दूर कर पहन के आईने के सामने...दंगो मे अगर सब कुछ ना लूटा होता तो...।
श्रेया के विवाह का अवसर और ...बीना उपहार शादी मे आना...मगर परिस्थितियाँ...।
" श्रीलेखा! चलो जल्दी बारात आने वाली है और हा! ये लो गहने एकदम खरे सोने के समान दिखते है. पहन लो जल्दी से आखिर बिरादरी मे हमारा भी कोई रुतबा...।"
" आपका...बस कुछ दिनों की बात है भैया। व्यवसाय  सम्हलते ही ...।"
"बारात घर के दरवाज़े तक ..." बस बहना जल्दी से इन कागज़ात पर हस्ताक्षर कर  आ जाइए।"
"बारात के स्वागत मे बुआ का सबसे आगे होना जरुरी है।"

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल.

मंगलवार, 1 मार्च 2016

"मातृछाया"-तीर्थयात्रा विषय पर-लघुकथा गागार मे सागर

"मातृछाया"
अटैची मे सामान जमाते-जमाते  एक  तस्वीर हाथ लग गई और खो गई पुरानी यादों मे....
कोख हरी ना होने पर घर-परिवार के तानो से तंग आकर आखिर उसने सुधीर को दूसरे विवाह की इजाज़त दे दी थी और स्वयं चली आई थी  "मातृछाया" में.
शुरुआती दिनों मे जो काम हाथ आता झाड़ू-पोंछा,बच्चों के कपड़े धोना, नहलाना, कभी-कभी खाना बनाना ...सब करती 
आखिर उसका सेवा भाव देखकर संस्था के संचालको ने उन्हे रहने का कमरा देकर बच्चों की देखभाल के लिये नियुक्त कर लिया.बस तब से दिन-रात अनाथ नवजात बच्चों की माँ हो गई थी
"सुनंदा अम्मा! जल्दी करो आपके स्टेशन जाने का वक्त हो गया है"
बच्चों का सब सामान करीने से रखते हुए सुनंदा अपनी मैनेजर से कहती जा रही थी...
देखो खुशी! सब बातों का ध्यान रखना बच्चों को कोई तकलीफ़ ना हो और...
"हा! हा! अम्मा आनंद से तीर्थयात्री कर आओ. मैं सब सम्हाल लूँगी। कोई बहुत दिनो की बात तो है नहीं जब लौट आओ तो फ़िर सारे डोर ले लेना अपने हाथ चलो  अब आपका आटो आ गया"
अपना सामान ले बाहर निकलने को थी कि अचानक आँगन मे रखे झूले से नवजात के रोने की आवाज़ गूँजी
दौडकर बच्चे को सीने से लगाया
"खुशी! मेरी अटैची अंदर ले जाओ."

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

नया लेखन नए दस्तखत--चित्र प्रतियोगिता- "सुरक्षा"


मंत्री जी के आवास को पूरे चाक-चौबंद के साथ सुरक्षा अधिकारियों ने घेर रखा था सारे श्रेष्ठ अधिकारी पूरी मुस्तैदी से तैनात कर दिये गये थे
मंत्री पद की शपथ के बाद अपने लवाजमे ( जी हुजूरी करता चमचो का घेरा) के साथ पधार रहे थे ....
"यार! एक बात समझ नहीं आती चुनाव जीतते  ही इन्हें इतनी सुरक्षा की जरुरत क्यो आन पडती है
"हा यार! पता नहीं कब कौन बदला निकाल ले"
चुनाव जितने के लिये इतने गुंडे जो पाल रखे होते है

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल

"नाहर" लघुकथा के परिंदे- कल का छोकरा विषय आधारित ८ वी प्रस्तुती

झाबुआ के लोक निर्माण विभाग मे जब पाठक जी नियुक्ति लेकर आए तो थोड़ा विचलित थे  अशिक्षित आदिवासी लोगो का इलाक़ा  पता नहीं कैसे सामंजस्य बैठा पाएँगे| वो तो सारा दिन ऑफ़िस मे गुजार देंगे लेकिन श्रुति क्या करेगी |
 श्रुति आस-पास के मज़दूर बच्चों को इकट्ठा कर उन्हे कहाँनिया सुनाती कभी साफ़-सुथरा रहने का सलिका सिखाती तो कभी नाच-गाना सिखाती | बडे हिल-मिल गये थे बच्चे |
नाहरसिंह तो आँखो का तारा था उसका बडा शोख और चंचल बच्चा भोपाल स्थानान्तरण पर उसे भी साथ ले आए | वह घर-बाहर के काम के उसकी मदद करता साथ-साथ सरकारी स्कूल मे पढ़ाई भी |
 सभागार के माइक से  गुंजी आवाज़ और उनका विचार चक्र थम गया |
 प्रदेश का करोड़पति जीवनबिमा एजेंट ....
दोनो के बीच खड़ा नाहरसिंग ..तालियों की गड़गड़ाहट और कैमरा की फ़्लैश लाईट |

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
२७-०२-२०१६


शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

छोटे-छोटे सपने-जिंदगी नामा. ऽ लघुकथा के परिंदे-सनसनाते बाण 6 टी प्रस्तुति

एक छोटा सा रेप सीन मारे आनंद के उसने सिर्फ़ इसलिये स्वीकार कर लिया था कि रोज के मिलने वाले मेहनताने से  दो से ढाई गुना ज्यादा रकम जो मिलनी थी.
अनेको जरुरतो के सपने तैर गये उसकी आँखो में. रेप सीन के अभिनय मे जान डालने के चक्कर मे  रीटेक पे रीटेक और आखिर....
थके तन और टूटे दिल से जब उसने इसपर ऎतराज जताया तो...
" तन के लिये इतना शोर मचा रहीं हो अपनी पेट की आग का क्या करोगी. ये लो तुम्हारी रकम .अब निकलो यहाँ से. तुम नहीं कर सकती तो बहूत है तुम्हारे पिछे इंतजार में."
टूटे काँच की तरह भरभरा गई वह.

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
२५-०२-२०१६

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

अविश्वसी -मन-लघुकथा के परिंदे-"आश्वासन" ५वी

ऑफ़िस मे पहुँचते ही उसकी  नजर   अधिकारी के उस नाम की तख़्ती पर पडी जिनसे  उसे काम करवाना था
"सर! ये लिजीए सारे कागज़ात जिनसे मेरा काम हो सकता है."
"ठिक हैं रख दिजीए।" नज़रें झुकाए हुए ही बाबू ने जवाब दिया.काम होते ही आपको सूचित कर दिया जाएगा व कागज़ात पोस्ट से भेज दिये जाएँगे."
"तो अब मैं निकलू." उसने कहा
"हू अ अ--"
"काम हो जाएगा ना?" प्रश्नवाचक नज़रों से देखते हुए उसने पूछा
"आप बार-बार क्यो पूछ रहे है, यकीन नहीं है क्या?"  अधिकारी ने जरा रोष से बोला
"तो अब मैं चलू,विश्वास तो  है. मगर??... उसने पैंट की जेब मे हाथ डालते हुए कहा
अधिकारी  ने चश्मा सिधा करते ही आँखों ही आँखो में कुछ इशारा किया.
वो अपनी पेंट की जेब में हाथ डालकर टटोलते हुए बाहर निकल गया.


नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
२३-०२-२०१६
अविश्वसी -मन

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

 अनेकों की तादाद में हैं
वे पुतले या कि निर्जीव प्रतिमाएँ
हर गाँव ,शहर के चौराहे पर
उकेरे हुआ है उनका इतिहास भी,
शिलाओं पर

कुछ तो अभी भी है स्मृतियों मे
इसलिये मिल जाता है,उन्हे
फूलों का हार,तालियों की करतल ध्वनि
सुनते है अपने गुणों का बखान
किंतु,वे निर्विकार,खामोश

वो बस देखता रह जाता है
अपने विचारों, सलाहो को ,
रौंदते हुए

किसी दिन अचानक
अपनी ही संतान को याद आता है
अस्तित्व उसका
वो चिखकर बताना चाहता है
उसके भ्रष्ट कोने की बात

एक रात कोई असहाय
लेता है उसकी शरण,मगर
कुल्हो पर डंडे की मार से
खदेड़ा जाता है उसे
फ़िर छूट जाती है उसकी,
टूटी चप्पले,निशान के तौर पर

मूळ कविता---- श्रीधर जहागीरदार
अनुवाद -----     नयना(अरती) कानिटकर

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

"लालबत्ती"

चौराहे पर लाल बत्ती का निशान देखते ही अपनी स्कुटी को ब्रेक लगया तभी पास ही एक एक्टिवा खचाक से आकर रुकी तो सहसा ध्यान उसकी तरफ़ मुड़ गया.उस पर सवार दोनो लड़कियों ने अपने आप को आपस मे कस के पकड़ रखा था .पिछे वाली के हाथ में जलती सिगरेट देख दंग रह गई मैं तो.
एक कश खुद लगा छल्ले आसमान मे उडा दिये और आगे हाथ बढा ड्रायविंग सीट पर बैठी लड़की के होंठो से लगा दिया .उसने भी जम के सुट्टा खींचा, तभी सिग्नल के हरे होते ही वे हवा से बातें करते फ़ुर्र्र्र्र हो गई.उन्हें देख मे जडवत हो गई थी, पिछे से आते हॉर्न की आवाज़ों से मेरी तंद्रा टूटी. पास से गुजरने वाला हर शख्स व्यंग्य से मुझे घुरते निकलता और कहते आगे बढ़ता कि गाड़ी चला नही सकती तो...
घर आते ही बेटी ने स्वागत किया एक कंधे से उतरती-झुलती टी-शर्ट और झब्बे सी पेंट के साथ.फ़िर तो...
"क्या बात है माँ आपका चेहरा इतना लाल क्यो हैं."
"चुप करो सुशी! पहले तुम अपने ये ओछे कपड़े बदल कर आओ"--मैने लगभग चिल्लाते हुए कहा और फ़िर पुरी राम कहानी उसके सामने उड़ेल दी."
"तो क्या हुआ माँ! ये सब तो अब आम बात है.अब लड़कियाँ भी कहा लड़कों से कम है."
"ओह! तुम्हें कैसे समझाऊ यही चिंता का विषय  हैं वह खुद अगर मार्यादित...?

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
१६/०२/२०१६

शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

“द्रोपदी” --लघुकथा के परिंदे-२री ह्रदय का रक्त

"उलझने"--- विषय आधारित
“द्रोपदी”
मन की कसक बढ़ती ही जा रही थी। अपनी पुत्रवधु को इस परिस्थिती में डालकर उन्हें क्या मिला होगा। संतानवति होने के लिए अपने पति इच्छा से खुद उन्होने भिन्न-भिन्न पुरूषो से...।
तो क्या अपने आप को लज्जित होने से बचाने के लिए और उनपर कोई कटाक्ष ना हो तो जानबूझकर पंचपति वरण की बात की होगी। वो भी तो एक स्त्री हैं फिर ऐसा निर्णय क्यों कर लिया होगा।
द्रोपदी का मन भी कितना टूक-टूक हो गया होगा। मन में उमड़ते भावों और झरते ह्रदय के रक्त से द्रोपदी ने कितना कुछ सहा होगा। अनंतकाल से संचित स्त्री की मनोवेदना का अंत...।
एक झटके में विचारों के तंतुओ कि डोर काट डाली।  क्यों उलझी हूं मैं...।

नयना(आरती)कानिटकर

सम्मान की- दृष्टि---लघुकथा के परिंदे--"रोशनी"

आभा अपने नियमित काम निपटा कर समाचार पत्र हाथ मे लेकर बैठी ही थी कि आयुष भुनभुनाते पैर पटकते घर मे घुसा.
"पता नहीं क्या समझते हे ये लोग अपने आप को विद्या के मंदिर को इन लोगो ने राजनीति का अखाडा बना लिया है. ना खुद पढेगे ना दुसरो को पढने देंगे. पता नही क्यो अपने माता-पिता का पैसा..."
"अरे! बस भी करो बताओ आखिर हुआ क्या है."
"माँ! समाचार पत्र तो है ना आपके हाथ मे..." देखो जरा आशीष पुरी तरह से तमतमाया हुआ था.
सुनो आशीष! सबसे पहले तो ये विदेशी झंडे की प्रिंट वाला टी-शर्ट उतारो . ब्रान्डेड के नाम पर तुम इन्हे अपने  छाती  से लगाए फ़िरते हो और..."
"मेरा जूता है... इंग्लिस्तानी ,सर पर लाल..., फिर भी दिल है हिंदुस्तानी"---  माँ.नाचते हुए आशीष ने कहा." वो तो ठिक है पर जब तक तुम अपने घर,देश को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखोगे तुम्हारी स्वतंत्रता के ..."
" बस करो माँ मेरे दिल और दिमाग से कोहरा पुरी तरह छट चुका है." विदेशी झंडे की  टी-शर्ट को बाहर का रास्ता दिखा दिया.
आभा ने घर का दरवाज़ा खोल दिया. सूरज की रोशनी छन-छन कर प्रवेश कर रही थी.
नयना(आरती)कनिटकर
भोपाल