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रविवार, 3 मई 2020

#लेखणी
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फक्त एक दिवस तुझी लेखणी होता आलं असंत तर ?
मिरवलं असंत तुझ्या शब्दांचं मुकूट माझ्या ललाटावर।
जगले असते तुझ्या शब्दांची सखी होऊन
आणि मग माझा क्षण अन् क्षण पुलकित झाला असता।
मी ही एकरूप झाले असते तुझ्या को-या
मनाशी
कळले असते मलाही तुझ्या शब्दांच्या मनातील हळवे कोपरे
कधीतरी या हळव्या कोप-यामुळे लेखणीतली शाई संपली तर..
तर, त्यात प्रेमाने शाई भर तुझ्या मनातल्या माझ्यासाठी उचंबळणा-या हजारो रंगाची.
मग त्या रंगातून एक अवखळ गीत उमलेल.
हे गीत धुंद जीवांना आरोहातून गगणा भेटून
अवरोहात उंच झोका देईल.
हो पण कधी लेखणी मात्र हरवू नकोस, नाहीतर शब्द कायमचे गोठतील ....आपल्या श्वासापरी
©वर्षा

#कलम
गर  मात्र एक दिन हो पाती तुम्हारी कलम
धर लेती तुम्हारे शब्दों का मुकुट मस्तक पर
जी उठती मैं तुम्हारे शब्दों की सखी बन
और तब मेरा क्षण  परम आनंद से भर जाता
मैं भी एक रुप हो जाती तुम्हारे कोरे(सपाट)
मन से
मैं भी जान पाती तुम्हारे शब्दों के मन की गहराई
कभी खत्म हो जाये तुम्हारे कलम की स्याही
तब, भरना उसमें प्रेम की स्याही मेरे मन में उठने वाले हजारो रंगो की
फिर उस रंग से एक गीत फुलेगा
ये गीत जीवन को आरोह में आकाश से मिल
अवरोह मे ऊँचे उठेंगे
पर हा! अपनी कलम कभी मत खोना, वरना शब्द हमेशा के लिए स्थिर हो जाएँगे----
हमारे सांसो की तरह
मूल कविता:--वर्षा थोटे
अनुवाद/भावानुवाद:- नयना(आरती)कानिटकर

गुरुवार, 21 सितंबर 2017

बेटा, मैं और पिता

बेटे की मांग पर
लेकर दी थी एक नयी छतरी उसे
रंग-बिरंगी कार्टून्स से सजी
तब मुझे दिखाई दिए थे
इंद्रधनुषी रंग
उसकी आँखो में
फिर...
अपना छाता खोल
उसके बारीक़-बारीक़ छिद्रों से
देख लिया
काले घुमडते बादलों को
घर आकर, कैलेंडर को देख
मन ही मन गिन लिए थे
बरखा के दिन

बाजार से लौटते वक्त
एकबार फिर जिद से
ले ही लिया उसने, वो
बंदर वाला खिलौना
नये खिलौने के खेलते, उछलकूद  करते
आनंद से नज़रे मिला  रहा था माँ से
तो कभी मुझसे
किंतु, मैं देख रहा था
अपने आप को उस खिलौने में

मुझे भी याद आ गये
मेरे बाबा
मेरी भी ऐसी ही  मांगो पर
क्या आता होगा उनके मन मे?
शायद आती होंगी मेरे जिद की
कुछ ऐसी ही सिलवटे
उनके मुरझाए चेहरे पर

मूळ कविता:-अरूण नाना गवळी, कल्याण
अनुवाद प्रयास:- नयना(आरती)कानिटकर, भोपाळ

गुरुवार, 29 जून 2017

शब्द

ओह! शब्द
मिल ही नही रहे
स्याही खत्म हो जाए
तो भर सकती हूँ कलम में
किंतु...

फिर भी वो
टिकी हुई है कागज़ पर
इस उम्मीद में...

की
शब्द प्रस्फ़ुटित होगें
हवा के स्पंदन से
बह उठेंगे  मन से
 टपक पडेंगे  नयनो से

मूळ कविता:- आसावरी काकडे
अनुवाद/ भावानुवाद  प्रयास:- नयना(आरती) कानिटकर

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

धरा पर
जब तक स्त्रियों, बच्चों पर
अत्याचार बिना, शत्रुत्व पूरा नहीं होता
जहाँ गर्भ पर भी
मारी जा सकती है लाथ
जहाँ एक नारी के हाथ
थमा दी जाती है हिंडोले की डोर
जहाँ वह स्वयं तय नहीं कर पाती
अपनी नग्नावस्था,
कब और किसके साथ
और जहाँ उसके बच्चे पर,
लगना होता है किसी
धर्म विशेष का ठप्पा
और ऐसी जगह पर्वत पर,
रक्त जमाने वाली ठंड ,
गर्म तपती रेत पर
मुसलाधार बारिश में, गिले कपड़ों मे
बाढ प्रदेश,सुखाग्रस्त ,कंपित क्षेत्र मे
अस्पताल,मंदिर,गंदगी के ढेर पर
और ऐसी जगह जहाँ
अन्न,पानी वस्त्र,शिक्षा,भविष्य
की कोई आश्वस्तता  नहीं होती
कोई उम्मीद नहीं होती शिशु के
जिवंतता की
बम विस्फोट में
सीमा के इस पार या उस पार
धरा पर सब जगह
जननी  अभी भी
उपज रही है सन्तानें

मूळ कविता--अपर्णा कडसकर
अनुवाद---नयना(आरती) कानिटकर

गुरुवार, 10 मार्च 2016

मेरी माँ

माँ तो बस माँ होती है हमेशा मेरी नज़रों के सामने चाहे वह समा गई हो अनंत में किन्तु, मेरे हृदय मे समाई वो सदा खड़ी है मेरे पिछे मेरा आधार, मेरा संबल वो तो एक अनंत आकाश है जब भी याद करूँ वो ना बहन, ना बहू, ना ही लड़की किसी की वो तो सिर्फ़ माँ हैं अपने बच्चों की वो आशियाना होती हैं सब सहते हुए माँगती है अंजूली भर आशीर्वाद ,बेहतरी का बच्चों के ख़ातिर जिस दिन चले गये थे, मेरे बाबा मैने देखा है उन्हें सम्हलते खुद को,मेरे लिए पिता होते हुए. मूळ कविता ---प्रकाश रेडगावकर अनुवाद--नयना(आरती)कानिटकर १०/०३/२०१६

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

 अनेकों की तादाद में हैं
वे पुतले या कि निर्जीव प्रतिमाएँ
हर गाँव ,शहर के चौराहे पर
उकेरे हुआ है उनका इतिहास भी,
शिलाओं पर

कुछ तो अभी भी है स्मृतियों मे
इसलिये मिल जाता है,उन्हे
फूलों का हार,तालियों की करतल ध्वनि
सुनते है अपने गुणों का बखान
किंतु,वे निर्विकार,खामोश

वो बस देखता रह जाता है
अपने विचारों, सलाहो को ,
रौंदते हुए

किसी दिन अचानक
अपनी ही संतान को याद आता है
अस्तित्व उसका
वो चिखकर बताना चाहता है
उसके भ्रष्ट कोने की बात

एक रात कोई असहाय
लेता है उसकी शरण,मगर
कुल्हो पर डंडे की मार से
खदेड़ा जाता है उसे
फ़िर छूट जाती है उसकी,
टूटी चप्पले,निशान के तौर पर

मूळ कविता---- श्रीधर जहागीरदार
अनुवाद -----     नयना(अरती) कानिटकर

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

"माँ को रोटी"


मैने देखा है माँ को
आटा सानते परात में
दो पैरो के बीच  थामकर
और रोटी तो कडेले*१पर जाते हुए
तब मै बैठा होता था उसके सामने
अपनी किताबे फ़ैलाए हुए
सने हाथो से खिसकाती थी वो डिबरी*२

संग बातें करते
चुल्हे की लकडियो को भी
सारते रहती आगे-पिछे
कहती रहती "ताप" सहन करना,
आना चाहिये हमे
बिना आँच लगे कुछ हासिल ना होगा
चुल्के मे पडे अंगारो की रोशनी
कम-ज्यादा होती रहती उसके मुख पर
इतनी आँच मे भी उसकी
 रोटी कभी जली नहीं,हमेशा फूली
सौंधी-सौंधी खुशबू संग
पर अब बच्चो का ऐसा नसीब कहा
कैसे निभाती होगी आग का
कम-ज्यादा करना की रोटी जले ना
जीवन के उतार-चढाव को भी
फूली रोटी के दो समान हिस्सो के समान
थमती रही अलग-अलग
क्या? ये उतार-चढाव झेलना संभव है
झेलना हमारे लिए
माँ को रोटी बनाते देखना भी
बडे तक़दीर की बात है मेरे लिए

*१-कडॆला= मिट्टी का तवा
*२ डीबरी=चिमनी

-----मूळ कवी सतीश सोळंकुरकर
अनुवाद नयना(आरती)कानिटकर