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गुरुवार, 23 नवंबर 2017

"रि्श्ते की जगमगाहट" ओबीओ

 "हलो! हलो!  पापा ? सुप्रभात, ममा को फोन दीजिए जल्दी से "---- ट्रीन-ट्रीन-ट्रीन की आवाज़ सुनते ही सुदेश मोबाईल उठाया स्क्रीन पर बिटिया को देख चहक उठे थे.
" हा बेटा! कैसी हो मुझसे बात नहीं करोगी. हर बार ममा ही क्यो लगती है तुम्हें मुझसे भी बात करो. वैसे वो तुम्हें फोन करने ही वाली थी."
" अरे! नही पप्पा ऐसी कोई बात नहीं मगर मेरी बात  पहले मम्मा ही समझ..."
" वो बुनाई करती बैठी है आँगन में. "अरे! सरला, सुनो भी तुम्हारी बेटी का फोन है कहती  है माँ से ही बात करना है."  सुदेश आवाज लगाते हुए बोले.
" मुह्हा-- कैसी हो बेटा? हो गया दिवाली पर घर आने का आरक्षण." स्वेटर बुनते हुए सलाईयां हाथ मे पकडे सरला ने उत्साहित होते हुए पूछा.
" हा ममा! इस बार मैं "रोशनी" को लेकर घर आ रही हूँ. आप जल्द ही नानी बनने वाली है उसके लिए एक स्वेटर  बुनिए." उत्साहित सी आकांक्षा ने कहा
" क्या..."
"हा! प्यारी माँ  फोन रखती हूँ मुझे कोर्ट से आदेश की प्रति लेकर अनाथालय भी जाना है." आकांशा ने कहा
" सुनते हो! आप नाना बनने वाले है."
सोफ़े पर धम्म से बैठ गये सुदेश. सरला भी  फोन पर बातें  करते-करते नीचे गिर गये ऊन के बाल को समेटते उनके पास आ बैठी. दोनों ने एक दूसरे का हाथ थाम लिया. अचानक दोनो साथ ही बोल उठे कुछ गलत नही कर  रही आकांक्षा  बिटिया
"पिछली कई बार आये  रिश्तों में हमारी पढी-लिखी होनहार लड़की का लडके वालो  ने  किस तरह मूल्यांकन करना चाहा था और ऐसा एक बार हुआ होता तब भी  हम सह लेते . सुदेश सरला का  हाथ पकडे -पकडे उठते  हुए ही बोले

" वही तो बार-बार एस दौर से गुजरना का स्त्री अस्मिता का अवमूल्यन ही तो हैं." सरला भी  हाथ छुड़ाते हुए बुनाई के फंदो को  सलाई से निकाल कर उधेडने लगी.
"अब ये क्यो खोलने लगी?"   सुदेश उठकर जाते हुए बोले
"और तुम कहा चल दिए" सरला ने पूछा
"ढेर सारे दीये  लेकर आता हूँ , सुंदर सुदंर रंगों से रंग कर मोतियों से सजाकर  जगमगाऊँगा  उन्हें"
" और अब  मैं नये फंदे बुनूंगी , नये डिज़ाइन  के साथ " दोनो की खिलखिलाहट से घर रौशन हो उठा

मौलिक व अप्रकाशित


बुधवार, 8 नवंबर 2017

"नया त्यौहार"

तीन साल का चीनू बाहर आँगन मे खेल रहा था .रसोई से आती शुद्ध घी कि खुशबू से मचल कर दौड़ते हुए अंदर आया.
---दादीSSS दादीSSS आप क्या बना रही है --जलेबी!!!!! वाह!  दादी के गले मे खुशी से झुमते हुए लटक गया
"अरे! अरे! मेरा गला छोडो वरना तुम्हें जलेबी नहीं मिलेगी"--दादी ने उसके हाथों की कसावट को ढिला करते हुए कहा
"आज कौन सा त्यौहार है दादी?? क्या आज दिवाली है?"
"हा बेटा आज तो दिवाली से भी बडा त्यौहार है--स्वतंत्रता  दिवस का आज ही के दिन तो हमारा देश आज़ाद  हुआ था. आज हम  दिवाली कि तरह ढेरों दीपक जलाएगे.मिठाईयाँ खाएगे ," दादी उत्साहित होते हुए बोली
"हुर्रे! तो क्या आज हम फ़टाखे भी चलाएँगे." चीनू खुशी से झूम उठा

" नही बेटे! आज बहुत बडे आनंदोत्सव का दिन है .आज हम शांति के प्रतीक शुभ वस्त्र पहन कर तिरंगा फहराकर उसकी पूजा करेंगे और भगवान के श्लोक पठन के स्थान पर राष्ट्रीय गीत गायेगे.

मात्र ३ वर्ष का चीनू दादी कि बात समझ ही नही पाया .वो तो खुश था कि आज घर मे त्यौहार है. माँ-पिताजी भी घर पर है. आज कुछ नये ढंग से त्यौहार मनाना है.
दादी आज एक प्रण ले चुकी थी कि आज से चीनू को रात को सोते वक्त राजा-रानी कि कहानियों के साथ-साथ देशभक्तो की कहाँनिया भी सुनाएगी .जिससे वह  इस देश के लिये प्राण न्यौछावर करने वालो के प्रति श्रद्धावान बन सके.
नयना(आरती)कानिटकर

शनिवार, 28 अक्तूबर 2017

"कलम की दशा"


"कलम की दशा"

प्रारंभिक उद्घाटन एक नियत मंच पर था तथा चारों और के बडे मैदान में हर विधा के लिए अलग-अलग स्थान निर्धारित था. सामने की कुर्सियाँ अभी खाली थी.
देश की चारों दिशाओं  से साहित्य सम्मेलन के लिए सभी छोटी-बडी रचनाकार कलम समाज के प्रति अपनी वफ़ादारी दिखाने के लिए एकत्रित हो चुकी थी.  कुछ घिस गई थी कुछ कलम घिसने के कगार पर थी तो कुछ अभी भी अपनी चमक पर इठला रही थी.

जहाँ-तहाँ झुंड में इकट्ठा हर बडी कलम छोटी को खाने पर आमदा लग रही थी.

तभी उद्घाटन की घोषणा हुई .सभी कलम अपने-अपने आवरण से निकल कर कुर्सी पर विराजमान हो गई.

मंचासिन सभी ने अलग-अलग विधा पर उनकी स्तुती में लार टपकाते उद्बोधन दिए.

इन दिनों की  तथाकथित सबसे चमकदार विधा ने आमद करते ही समर्पण व आस्था का मसाला लगाकर  समय का तकाजा देते हुए कहा कि "वर्तमान का दौर व्यस्तता का है, हमे हर बडी बात को कम शब्दों मे तौलते हुए सामाजिक विसंगति पर काम करना होगा बडी सी बात को कम शब्दों में लिखना  ही साहित्य है, तभी हम साहित्य के सच्चे सिपाही  साबित होंगे.  वही सच्चा साहित्य प्रेमी भी.

सभी  नई कलमें  पेशोपेश में थी कि आखिर क्या करे.
तभी मैदान के एक हिस्से से गर्मागर्म  बोटी भोजन की  खुशबू आते ही  समाज और राष्ट्र की वफ़ादारी  के ढोंग के  साथ सभी दूम हिलाते उस ओर दौड पडे.
मौलिक व अप्रकाशित

नयना(आरती कानिटकर


शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

हस्तरेखा

हस्तरेखा-----
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"इतना मान-सम्मान पाने वाली, फिर भी इनकी हथेली खुरदरी और मैली सी क्यों है?"-- हृदय रेखा ने धीरे-धीरे बुदबुदाते हुए दूसरी से पूछा तो हथेली के कान खड़े हो गए। "बडे साहसी, इनका जीवन उत्साह से भरपूर है,फिर भी देखो ना..." मस्तिष्क रेखा ने फुसफुसा कर ज़बाब दिया। " देखो ना! मैं भी कितनी ऊर्जा लिए यहाँ हूँ, किंतु हथेली की इस कठोरता और गदंगी से.....!" जीवन रेखा भी कसमसाई। "अरे! क्यों नाहक क्लेष करती हो तुम तीनों? भाग्य रेखा तो तुम अपने संग लेकर ही नहीं आई, तब मैं क्या करती" हथेली से अब चुप ना रहा गया, वह ऊँचे स्वर में बोल पड़ी। तीनों रेखाएँ अकबका कर एक दूसरे को देखने लगी। "हुँह!... इतनी ढेर सारी कटी-पिटी रेखाएँ भी साध ली तुमने अपनी हथेली पर तो हम भी क्या करते".----तीनों फिर से अपनी कमान संभाली। "तभी तो मैनें तुम सभी को मुट्ठी में कस, छेंनी-हथौडी उठा, कर्म रूपी पत्थर को तोडा , अब तक तोड़ रही हूँ। " हथेली का आत्मविश्वास छलक उठा। कठोर, मैली, खुरदरी-सी सशक्त हथेली पर उभरती हुई मजबूत भाग्य रेखा को देख, कसी हुई हथेली में वे अपना-अपना वजूद ढूँढने लगी। मौलिक व अप्रकाशित

बुधवार, 9 अगस्त 2017

बंधन ---विषय आधारित- नयलेखन नये दस्तखत

"पलट वार"-----

श्रुती जब से रक्षा बंधन के लिए घर पे आई थी देख रही थी भाई कुछ गुमसुम सा है. हरदम तंग करने वाला, चोटी पकड़ कर खींचने वाला, मोटी-मोटी कहकर चिढाने वाला भाई कही खो सा गया हैं.
" माँ! ये श्रेयु को क्या हो  गया  है. जब से आयी हूँ बस धौक (चरण स्पर्श) देकर अपने कमरे मे घुस गया हैं."--प्रवास के बाद तरोताजा होकर रसोई में प्रवेश करते हुए उसने पूछा
" बेटा पता नहीं क्या हुआ है. शायद नौकरी को लेकर परेशान हो ,काम पसंद ना हो.इससे..."
" तो छोड दे .दूसरी देख ले. अच्छा पढा लिखा है, काबिल है."
" तेरे बाबा भी बहुत बार कह चुके. अब तो चिकित्सक की सलाह पर भी अमल कर रहे." माँ ने उदास लहज़े में कहा
जैसे ही वह भाई के कमरे में गई देखा वो बिस्तर पर निढाल सा पडा था. आँखें बंद थी. दवाई का पैकेट हाथ में ही था. मोबाईल के  ब्लिंक होते ही उसकी नजर उस पर पडी. उठाकर देखा तो व्हाट्स एप पर ..."अरे! ये तो मेरी सहेली रीना हैं". उसी गली मे चार घर छोड़कर ही तो रहती है वह. एक ही झटके में सारे मेसेजेस पढ डाले. ओह तो ये बात है भाई के बीमारी की....जिसे उसने अपनी छोटी बहन  के समान प्यार दिया वो आज इस पवित्र रिश्ते को ठुकरा कर  ब्लैकमेल करने पर तुली है. उसकी नज़रों मे वो सारा वाक़या घूम गया जब उसने  रीना  से  उसके भाई शरद में अपने पसंदगी का  इज़हार किया था तब .... और फिर जबरन  उसने शरद के हाथ में राखी बंधवा दी थी.
" माँ में अभी आई कहकर तेजी से रीना के घर से जबरदस्ती  खिंचते कर लाते हुए श्रेयस के कमरे मे पहुँच गई.
"  श्रुती !छोड  ये क्या कर रही है कितना कस के पकडी  है मेरी कलाई, क्या चाहती है..." उसने  हाथ छुड़ाने का भरसक प्रयत्न करते हुए कहा
शरद तो मुझे चाहता था प्यार का रिश्ता था हमारा मगर श्रेयस उसने तो सदा तुम्हें छोटी बहन सा प्यार दिया और  तुमने भी अपने मतलब के वक्त  भाई- भाई कहकर अपने काम निकाल लिए.
" ये लो! बांधों भाई की कलाई पर  अब से, तुम से उसकी  रक्षा की  मेरी बारी "
नयना(आरती)कानिटकर
०९/०८/२०१७


शुक्रवार, 30 जून 2017

प्लेटोनिक लव

"प्लेटोनिक लव  "

"अरे! कहाँ खोई हो जी" गैलरी में खड़ी नीना के  कंधे पर हाथ रखते हुए उसने  कहा

"कुछ नहीं ! वो देखो सामने के मकान में इतनी रात हो जाने पर भी अंधेरा छाया है ना   घबराहट हो रही कि कुछ अनहोनी..."

"उफ़ !  ये व्यग्रता उसके लिए.  तुम तो मेरी समझ से परे हो!" उसने  झल्लाते हुए कहा

" तुमसे कुछ भी तो छिपा नही है" नीना ने परेशान थी.

" जानता हूँ,   पर वहाँ    बात-बात पर   तुम्हारी  बेइज्जती और छिछलेदारी होती है फ़िर भी?"

"-------"
" मगर वो तो अब तुमसे संवाद भी नहीं रखते फ़िर उनके घर मे अंधेरा हो या उजाला" क्या फर्क पडता है

"क्या करूँ अपने मन से उनके प्रति इज़्ज़त और स्नेह खत्म ही नहीं होता." नीना ने धीरे से कहा

" लो वो देखो  उस खिड़की की तरफ़  उजाला हो गया है वहाँ.

"हूँ"   नीना ने संतुष्टि की  गहरी साँस छोड़ी

" इससे क्या मिल गया तुम्हें"-- उसने रुष्ट होते हुए पूछा

"उनके होने का सबूत" नीना ने धीरे से मुस्काते हुए कहा

नयना(आरती) कानिटकर
२७/०६/२०१७--भोपाल









गुरुवार, 30 मार्च 2017

"मूल्यांकन"-----


"मूल्यांकन"-----
भोर होने को थी। रजाई से हाथ निकाल पास ही में सोई बेटी के सर पे हाथ फेरा तो तकिया कुछ गीला महसूस हुआ। ओह! तो सारी रात बिटिया ...। बहुत नाराज़ हुई थी उससे कि ये कैसे सामाजिक मूल्य है माँ! जिन्हे हरदम आप को या मुझे चुकाना हैं, क्या कमी है मुझमें , पढ़ी लिखी हूँ, बहुत अच्छा कमाती हूँ । शक्ल-सूरत भी ठीक फिर कौनसी बात को लेकर मेरा अवमूल्यन किया जाता हैं । हर बार बस ना और ना, बस अब बहुत हो गया।
उसका सर सहलाते सहलाते वो खुद कब सो गई पता ही ना चला था।
लिहाफ को परे सार उठने ही वाली थी कि बिटिया ने हाथ थाम लिया।
“माँ! मेरा सारा  अवसाद धूल चुका हैं और अब निर्णय भी पक्का।”
“कैसा निर्णय बेटा”
“ मम्मा मैने सोच लिया है, मैं अनाथ बच्ची को गोद लेकर एकल अभिभावक बन उसका लालन-पालन कर उसे उच्च शिक्षा दूँगी।”
“समाज में तुम्हारी बात को स्थान मिलने में वक्त लगेगा बेटा।”
“तो क्या हुआ मेरी प्यारी मम्मा!, वो देखो बंद दरवाज़े के उस छोटे सी जगह सुराख से सूरज रोशनी फैला सकता है तो..
मेरे पास तो पूरा का पूरा आंसमा है रोशन होने.के लिए।
मौलिक व अप्रकाशित
 नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल 17/12/2016

शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

"कर्मफ़ल"

 "कर्मफ़ल"

अपने सेवा काल में बहुत लूट खसोटकर यह फ़्लेटनुमा बहूमंजिला इमारत बडे शान से खड़ी की थी उन्होनेहर एक के लिए स्वतंत्र प्रकोष्ठ बनाकर। माता-पिता रोकते रहे किंतु   उनपर   लूटकर खाने का  स्वाद  जो हावी   गया  था। लक्ष्मी भी खूब बही,  बहते-बहते बेटे के हाथ पहुँची। उसने खूब लूटाई  और वो जाते-जाते सब कुछ लील गई
शराब के नशे मे लड़ाई-झगडे  मे बेटे ने घर को आग लगा दी। वे जैसे-तैसे बच कर बाहर निकले.घर बचाने की गुहार लगाते रहे मगर कोई आगे ना  आया
 सब आपस में कानाफ़ूसी करते रहे "आग भी  खुद ने ही लगाई होगी बीमा कि रकम हडपने के लिए"
अनेको   के पेट की जलती आग आज सुलग रही थी

नयना(आरती) कानिटकर


मंगलवार, 4 अक्तूबर 2016

"सृजन यात्रा "------ गागर मे सागर २६/०९/२०१६

 "सृजन यात्रा "
"जल्दी करो ! तुम्हारी ही माँ का वर्षश्राद्ध है, वृद्धाश्रम वाले राह देख रहे होंगे  इकलौती बेटी हो तुम उनकी।"।"  ---महेश  उतावला होते   हुए बोला
" बस करो महेश! जीते जी तो मेरी माँ को अपने साथ ना रख सके  जब देखो तब  पैसे के लिए माँ का अपमान,  उनके बांझ  होने का उपहास ... अब यह श्राद्ध का ढोंग मुझे दिखावा लगता है" वसुधा  ने बुझे मन से कहा
" अब फ़ालतू बातें बंद करो मैं साल भर से राह देख रहा हूँ इस दिन की.  कुछ तो समझा करो  यार सब चीजों भावनाओं मे बहकर पूरी नहीं होती  "महेश बोला
" चलो.."
वृद्धाश्रम मे पहुँचते ही  वसुधा  माँ  की फूलो का हार डली  तस्वीर  देखकर अपने आप को ना रोक पाई, आँसुओ की  धारा बह निकली। चुपचाप माँ के फ़ोटो के पास बैठ गई
महेश ने पूजा, भोजन आदी सभी कार्य तेजी से निपटा कर मैनेजर को आदेश देते हुए कहा-- वकिल साहब को बुलाओ और सासू माँ की इच्छा अनुसार अब उनकी वसियत भी  सबके सामने पढ दो
वकिल साहब ने सील बंद लिफ़ाफे मे रखा उनका इच्छापत्र पढते हुए कहा--
" मै सुशीला देवी अपनी व  अपनी  दत्तक बेटी की सहमति से यह इच्छापत्र निष्पादित करती हूँ  कि --"मेरी मृत्यु के पश्चात मेरी बची हुई सारी संपत्ति  का    पचास  प्रतिशत  इस आश्रम को दान दिया जाय तथा बचे  पचास प्रतिशत से अनाथ बच्चो के लिए एक रहवासी पाठशाला इसी परिसर के गैर उपयोगी पडे  पिछले खुले परिसर में खोलकर उसकी बिल्डिंग  के लिए उपयोग मे लाए जावे वसुधा उसी मे निवास कर उसका प्रबंधन करेगी "
विस्थापन से सृजन तक  की यात्रा  में वसुधा ने इमारत  की नींव का पहला पत्थर रख माँ को प्रणाम किया

नयना(आरती)कानिटकर
मौलिक एवं अप्रकाशित

रविवार, 28 अगस्त 2016

संक्रमण--लघुकथा

" हैलो.." ट्रीन-ट्रीन की घंटी बजते ही स्नेहा फोन  उठाते हुए बोली
" हैलो स्नेह! कैसी हो. बहुत व्यस्त हो क्या." उधर से बडे भैया की आवाज थी.
" अरे! भैया व्यस्त ही नही अस्तव्यस्त भी हूँ."
" क्यो क्या हुआ..."
"क्या बताऊँ  समझ नही पा रही. तुमने जो रिश्ता सुझाया था ना अपनी भांजी ले लिए कहती है प्रोफ़ाइल तो अच्छा है. मगर पाँच साल बडा है वो मेरे सामने अंकल लगेगा. आजकल तो एक साल मे ही गेनेरेशन गेप आ जाता है. अब तुम ही  बताओ मैं तो थक गई हूँ समझा कर भी और..."
" बहना! इधर भी यही हाल है. सोमेश को कोई भी लड़की दिखाओ कहता है पापा! मुझसे पाँच- छह साल छोटी हो वरना शादी के एकाध साल मे ही वो आंटी दिखने लगेगी."
"सच! बहुत मुश्किल है दादू इस पीढी को समझाना."
"कोई ना छोटी संक्रमण काल है ये हमारी पीढी का."
ना तो  पुराना सहेजा जा रहा और  ना ही नई पीढी के साथ सामंजस्य बैठ रहा.

मौलिक एंव अप्रकाशित

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

ठोस रिश्ता---"भावनिक विवाह"

"ठोस रिश्ता"
"अरे रश्मि! तुम यहाँ - तुमने चेन्नई कब शिफ़्ट किया, मुझे बताया भी नहीं और हा! तुम बडी सुंदर लग रही हो इतनी बडी बिंदी- मंगलसुत्र में. ये तुम कब से पहनने लगी . तुम तो इन सबके खिलाफ़ थी."
" हा! हा! सब एक साथ ही पूछ लेगी क्या. चल सामने की  शाप  मे एक-एक कप कॉफी  पीते है"
"अब बता" विभा ने कहा
" तू तो जानती है मैने अनिश के साथ प्रेम विवाह किया था. मैने तो उसे दिल मे बसाया था तो मैं इन सब चीजों का प्रदर्शन ढकोसला मानती थी.  उसने  भी कभी कुछ नहीं कहा वो मेरी हर बात का मान रखता था. जिंदगी बडी खुबसुरत चल रही थी कि अचानक एक दिन अनिश  गश खाकर गिर पडा. उसका निदान मस्तिष्क की रक्त वाहिनियो मे थक्के के रूप में हुआ. अनेक प्रयत्नो के बाद भी मैं उसे बचा ना सकी."
"तू भी कितनी बेगैरत निकली दूसरा विवाह भी कर लिया." विभा ने कुछ नाराज़गी से कहा
"नही रे! बहुत बुरा समय गुजरा इस बीच . तू तो जानती थी मेरे ससुराल वाले लोगो को मुझ पर देवर से शादी का दबाव...फिर मैं अपना तबादला लेकर यहाँ आ गई. लेकिन यहाँ भी भेडिये कम ना थे."
"फ़िर.." विभा ने पूछा
"फिर क्या मैने अनिश की आत्मा से विवाह रचा लिया और धारण करली ये भावनाएँ"

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
२३/०८/२०१६

रविवार, 24 जुलाई 2016

कोरे विचार-"विसर्जन"

"विसर्जन"
अखबार हाथ में लेकर सृजन लगभग दौड़ते हुए  घर  मे घुसा
"मम्मा!, पापा! ये देखो ये तो वही है ने जो हमारे गणपति बप्पा को..."
सुदेश ने उसके हाथ से पेपर झपटकर टेबल पर फ़ैलाया
"देखो दिशा! ये तो वही लड़का है"
अरे हा! कहते वो भी समाचार पर पर झुक गई. सब कुछ चल चित्र सा उसकी आँखो से गुज़र गया
यही कोई १४-१५ बरस का दूबला-पतला सा  किशोर होगा वह. उसका असली नाम तो नहीं जानते थे पर उसके रूप-रंग को देखकर सब उसे कल्लू के नाम से पुकारते थे. वह हमेशा ही उन्हें बडे तालाब के किनारे मिल जाया करता था. अंग्रेजी नही जानता था फ़िर भी विदेशी सैलानियों का दिल जीतकर उन्हे नौका विहार करा देता था. स्वभाव से खुश दिल था किंतु उसकी आँखो से लाचारी झलकती थी. उसका बाप बीमार रहता था. वो ही सहारा था घर का शायद इसलिए वो तालाब की परिक्रमा लगाया करता था.
बप्पा के विसर्जन के दिन तो भाग-भाग कर सबसे विनय करता कि लाओ मैं बप्पा को ठीक मध्य भाग मे विसर्जित कर दूँगा.आप चाहे अपनी दक्षिणा बाद मे दे  देना.
तालाब के मध्य भाग मे जोर-जोर से भजन गाकर बप्पा को प्रणाम कर उनको जल समाधि  दिया करता था. इसी बिच यदि अजान सुनाई देती तो आसमान की  ओर आँखें उठा कर अपना हाथ हृदय से लगा लेता.
 कुछ कायर,भिरुओ को शायद ये बात अखर गई थी. एक पवित्र परिसर मे छुरा घोपकर उसे मार दिया गया था.
 उसके मृत देह से उसकी वही लाचार दृष्टि दिखाई दे रही थी कि अब मेरे बप्पा को कौन सिराएगा (immerse) .
लगा बप्पा भी पास मे ही बैठे है अपने भक्त का रक्तरंजित हाथ लेकर  मानो कह रहे हो...विसर्जन तो अब भी होगा. दूसरे बच्चे ये काम करेंगे,किंतु
राम-राम कहने वाला रहमान अब शायद ही कोई हो.


*** विवेक सावरीकर "मृदुल" की  मराठी कविता "तो पोरगा" से प्रेरित होकर.

नयना (आरती) कानिटकर

बुधवार, 22 जून 2016

सिलसिला

 सालों बाद वे सब  गाँव आए थे. इस बार वादा जो किया था सबसे मिलने का.
गाड़ी से उतरते ही सुहानी दौड़ पडी थी. आनंद में मामी,नानी कहते हुए खूब सबके गले मिली.
"नानी! यशा दीदी कहाँ है?" पूछते ही उसका ध्यान कमरे के कोने पर गया जहाँ वो चुपचाप घुटनों को पेट के बल  मोडे एक टाट के बोरे पर लेटी थी.
"दीदी! कहते जैसे ही उससे मिलने दौडी कि," --अम्मा चिल्लाई.
"अरे ! उससे दूर रहना उसे कौवे ने छू लिया है." कोई उसके पास नही जाएगा."
"ये क्या होता है माँ.."
"अभी तू बडी होगी तो सब समझ जाएगी. सुधा दीदी रोको उसे ." भाभी ने बीच मे टोकते हुए कहा
"वो सब समझती है भाभी मगर ये सिलसिला यू कब तक चलेगा.अब तो दुनियाँजहान की लड़कियाँ इन दिनों मे भी सारे काम करती है,ऑफ़िस जाती है, समारोह मे हिस्सा लेती है, यहा तक की पहाड़ों पर चढने से भी नही कतराती और ये क्या इतने गंदे कपड़ों मे नहाई भी नहीं क्या?"
"उठो बेटा! चलो तुम्हें पानी गर्म कर दूँ.  पहले अच्छे से नहाओ फ़िर आगे बात करेंगे." सुधा ने उसे उठाते हुए कहा.
सुहानी ने  दौडकर  अपने बैग से एक पैकेट लाकर उसे थमा दिया.

नयना(आरती) कानिटकर
२२/०६/२०१६

मंगलवार, 21 जून 2016

"दया की दाई" इंसानियत की पीडा-- ---- ओबीओ २९-एप्रिल २०१६


--इंसानियत की पीडा--

वह  जल्द से जल्द घर पहुँचना चाहता था ताकि अपनी गर्भवती पत्नी को थोड़ा घूमा लाए। कई दिनों से दोनो कही बाहर नही गए थे ऑफ़िस से लेपटाप ,पेपर आदि  समेट कर वह लगभग भागते हुए प्लेटफॉर्म पर पहुँचातभी तेज गति की लोकल उसके सामने से निकल गई. उफ़ अब वक्त जाया हो जायेगा सारा

अचानक उसकी नजर प्लेटफ़ॉर्म की सीढ़ियों के नीचे गई।  अच्छी खासी भीड़ जमा थी वहां। कुतुहल  वश वह भी पहुँच गया
अरे! यह क्या ये तो वही भिखारन है जो लगभग रोज उसे यहाँ दिख जाती थी। पता नही किसका पाप ढो रही थी बेचारी आज दर्द से कराह रही थी शायद प्रसव- काल निकट आ गया था "
सहसा पत्नी का गर्भ याद कर विचलित हो गया
 भीड़ मे खड़े स्मार्ट फ़ोन धारी सभी नवयुवक सिर्फ़ विडिओ बनाने मे व्यस्त थे"
" जितने मुँह उतनी बातों ने ट्रेन के शोर को दबा दिया था"

तभी एक किन्नर  ने आकर अपनी साड़ी उतार उसको  आड कर दिया
" हे हे हे... ये किन्नर इसकी जचकी कराएगा" सब लोग उसका मजाक उडाने लगे थे.
चुप कारो बेशर्मो, चले परे हटो यहाँ से तुम्हारी माँ-बहने नहीं हे क्या? किन्नर चिल्लाते हुए बोला.


धरती से प्रस्फ़ुटित होकर नवांकुर बाहर आ चुका था किन्नर ने  उसे उठा अपने सीने से लगा लिया

अब सिर्फ़ नवजात के रोने की आवाज थी एक जीवन फिर  पटरी पर आ गया था
दोयम दर्जे ने इंसानियत दिखा दी थी, भीड़ धीरे-धीरे  छटने लगी

मौलिक एवं अप्रकाशित

नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल

०३/०५/२०१६




" हलवे का घी"

" हलवे का घी"

माँ से बिछडने का गम उसे अन्दर तक साल रहा थाI  उन्हें बरसों से तरह-तरह की बीमारियों ने जकड़ रखा थाI लेकिन साथ ही  कहीं ना कहीं उसे इस बात का संतोष  भी  था कि अंतत: उन्हे कष्टों से छुटकारा मिल गयाI
उनके कमरे के सामने से गुजरते बरबस आँखें भर आई I अब उसके लिए  गठरिया कौन सहेजेगा ,मकई का आटा,मूँग बडी,नींबू अचार ,कितना कुछ होता  था उसमें. अपने आँचल से कोरों को पोछने हुई  कि भाभी ने आवाज लगाई
"आ जाओ  बहना! खाना तैयार है. दामाद जी भी  वापसी की  जल्दी मचा रहे है। आओ! आज सब कुछ तुम्हारी पसंद का बनाया हैं. पुलाव, भरमा बैंगन, आटे-गुड का तर घी हलवा"
किंतु उसकी जिव्हा तो चिरपरिचित स्वाद के लिये व्याकुल थी
" अरे!चलो भी देर हो रही है , मुझे दफ़्तर भी  तो जाना है."रितेश ने  रोष में आवाज लगाते हुए बोला
बेमन से कुछ कौर उसने हलक से नीचे उतारे, पानी का घूट भरा और तुरंत सामान उठा बाहर को निकल पडी.
देहरी पार कर कार मे बैठने को हुई तो   भैया ने कुछ कागज हस्ताक्षर के लिये  आगे कर दिए
 

" ये क्या है भैया"

" वो जायदाद के...." हकलाते हुए भैया ने कहा
 उनके हाथों से कागज लेकर हस्ताक्षर के स्थान पर भरे नेत्रो से बस "स्नेह" ही लिख पाई कि...
कार अपने मंज़िल को निकल पडी

नयना(आरती)कानिटकर

 

"छल" लघुकथा के परिंदे---निर्जन पगडंडी १ ली प्रस्तुति.



एक कथानक के तीन रूप
१-----
तेरह दिन का शोक और श्राद्ध करके सारे रिश्तेदार जा चुके थे. "कैसी औरत है मांग का सिंदूर पुछ गया,मजाल जो एक आँसू भी बाहर निकला हो ." सब के खुसफ़ुस ताने, तिरस्कार,धिक्कार, समझ कर भी अंजान बनी रही थी .जिंदा लाश बनी वह सब कुछ देखती,सुनती,सहती रही थी.

घर की व्यवस्था को ठिक करने के लिये उसने छुट्टी ले  रखी थी.बेटे को स्कूल भेज अस्तव्यस्त सामान को समेटने लगी थी कि उनके  अलमारी  की चाबी हाथ लग गई . खोली तो देखा बेतरतीब  भरी पड़ी थी. वो कभी उसके सामने उसे नही खोलते थे  और चाबियाँ सदा पास रखते थे. वैसे भी वो उनकी केवल पत्नी थी,राजदार  थी ही कहाँ कि अचानक  डायरी हाथ लग गई. पेज पलटती गई उसी के साथ रंग स्याह पडता गया था उसका . जीवन के १० वर्ष सामने थे उसके. पढते-पढते वह तिल मिला उठी.
"मैं पुरुष हूँ  ही कहाँ और पति धर्म ..  यह राज मेरे और अखिलेश के सीवा कोई नही जानता."
इतना बडा छल , धोखा , . तो क्या मधुयामिनी की रात अचानक रोशनी का चले जाना एक जान-बूझकर किया गया षडयंत्र  था . क्या दाम्पत्य की बुनियाद केवल सेक्स पर ही...जो अंधेरे का फ़ायदा उठा उनके दोस्त ने..
सब कुछ जान चुकी थी, अब डायरी में पढने को बचा ही क्या था. डायरी के हर पृष्ठ पर उनकी बेचारगी थी. निर्जन पगडंडी पर अकेले  चलते रहे थे आदित्य. अपनी पौरुष हिनता को छिपाने का ऐसा दिखावा कि शक होने लगे कि वे किसी अन्य को  चाहते है. उनके दुख के सामने अदिती का दु:ख बौना हो गया था.
उसने डायरी  हाथों मे भींच ली.
इसे आग लगानी होगी,अभी इसी वक्त अनुज के स्कूल लौटने से पहले ताकि उसके हदय मे पिता स्मृति आत्मिक और पावन बनी रहे.

नयना(आरती) कनिटकर
१०/०६/२०१६



 २---
तेरह दिन का शोक और श्राद्ध करके सारे रिश्तेदार जा चुके थे"कैसी औरत है मांग का सिंदूर पुछ गया,मजाल जो एक आँसू भी बाहर निकला हो |" सब के खुसफ़ुस ताने, तिरस्कार,धिक्कार, समझ कर भी अंजान बनी रही थी .जिंदा लाश बनी वह सब कुछ देखती,सुनती,सहती रही थी|
 माँ की बिमारी के चलते विवाह भी तो कोर्ट मे ही हुआ था.
  वो भी क्या करती प्रथम रात्री के पश्चात आदित्य उससे दूर रहने के सैकडो बहाने   ढूँढ लाते थे.कभी सासू माँ की बिमारी, कभी आफ़िस का दौरा...फ़िर कभी वो उनके स्नेह का स्पर्श महसूस नही कर सकी थी|
प्रकृति ने भी  तो उस रात्री मे ही अपनी रासलिला रचा ली थीउसका भाग्य  मातृत्व की और कदम बढा गया था|
बाद मे वह घर,बच्चा,सासू माँ और कालेज की नौकरी  मे ही व्यस्त हो गई|
वो तिल-तिल जलती रही उनके सानिध्य के लिये.ये तो भला था कि विवाह से पूर्व से ही कामकाजी थी.

घर की व्यवस्था को ठिक करने के लिये उसने छुट्टी ले  रखी थी.बेटे को स्कूल भेज अस्तव्यस्त सामान को समेटने लगी थी कि उनके  अलमारी  की चाबी हाथ लग गई . खोली तो देखा बेतरतीब  भरी पड़ी थी. वो कभी उसके सामने उसे नही खोलते थे  और चाबियाँ सदा पास रखते थे. वैसे भी वो उनकी केवल पत्नी थी,राजदार  थी ही कहाँ कि अचानक  डायरी हाथ लग गई. पेज पलटती गई उसी के साथ रंग स्याह पडता गया था उसका . जीवन के १० वर्ष सामने थे उसके. पढते-पढते वह तिल मिला उठी.

"मैं पुरुष हूँ  ही कहाँ और पति धर्म ..  यह राज मेरे और अखिलेश के सीवा कोई नही जानता."
इतना बडा छल , धोखा , . तो क्या मेरे साथ... मधुयामिनी की रात अचानक रोशनी का चले जाना एक जान-बूझकर किया गया षडयंत्र  था . क्या दाम्पत्य की बुनियाद केवल सेक्स पर ही...जो अंधेरे का फ़ायदा उठा उनके दोस्त ने..
सब कुछ जान चुकी थी, अब डायरी में पढने को बचा ही क्या था. डायरी के हर पृष्ठ पर उनकी बेचारगी थी. निर्जन पगडंडी पर अकेले  चलते रहे थे आदित्य. अपनी पौरुष हिनता को छिपाने का ऐसा दिखावा कि शक होने लगे कि वे किसी अन्य को  चाहते है. उनके दुख के सामने अदिती का दु:ख बौना हो गया था. मगर वह उनकी तरह डरपोक नहीं थी, उसने  प्रण कर लिया  नये रास्ते पर चलकर अनुज  को उसके असली पिता का हक दिलाने का.

डायरी  को अपने हाथो से आग के हवाले कर   भस्म कर  दिया.

"छल"


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तेरह दिन का शोक और श्राद्ध करके सारे रिश्तेदार जा चुके थे "कैसी औरत है मांग का सिंदूर पुछ गया,मजाल जो एक आँसू भी बाहर निकला हो " सब के खुसफ़ुस ताने, तिरस्कार,धिक्कार, समझ कर भी अंजान बनी रही थी। जिंदा लाश बनी वह सब कुछ देखती,सुनती,सहती रही थी
याद है उस दिन बेटे को स्कूल भेज अस्तव्यस्त सामान को समेटने लगी थी कि उनके  अलमारी  की चाबी हाथ लग गई उनके  अलमारी  की चाबी सदा कौतुहल का  विषय  रहा था  अचानक  डायरी हाथ लग गई पेज पलटती गई उसी के साथ रंग स्याह पडता गया था उसका
"मैं पुरुष हूँ  ही कहाँ और पति धर्म ..  यह राज मेरे और अखिलेश के सीवा कोई नही जानता"
इतना बडा छल , धोखा , . तो क्या मधुयामिनी की रात अचानक रोशनी का चले जाना एक जान-बूझकर किया गया षडयंत्र  था  निर्जन पगडंडी पर अकेले थे आदित्य  अपनी पौरुष हिनता को छिपाने का ऐसा दिखावा कि शक होने लगे कि वे किसी अन्य को  चाहते है। उनके दुख के सामने अदिती का दु:ख बौना हो गया था। मगर वह उनकी तरह डरपोक नहीं थी, उसने  प्रण कर लिया  नये रास्ते पर चलकर अनुज  को उसके असली पिता का हक दिलाने का

नयना(आरती) कनिटकर
१०/०६/२०१६



बुधवार, 20 अप्रैल 2016

"टी.आर.पी" लघुकथा के परिंदे ३ री

----"टी.आर.पी"----

 "
ये देखो सिद्धार्थ! चारो ओर सूखे की मार, प्यासी धरती, घरो में खाली बर्तन, बिन नहाये गंदले से बच्चे ये तस्वीरे देखो....
अरे ,कहाँ गए ! ये सब किसकी तस्वीर ले रहे हो तुम ....! "घुटनो तक साड़ी चढाए खुदाई करती मज़दूरन की, तो कही स्तनपात कराती आदिवासी खेतिहर मज़दूर, तो कही उघाडी पीठ के साथ रोटी थेपती महिला की ...कैमरा हटाओ ! "यह सब थोडे ही ना हमे कवरेज करना था। हमे सुखाग्रस्त ग्रामीण ठिकानों का सर्वे कर उस पर रिपोर्ट तैयार करनी है"
"
तुमको इन सब के साथ रिपोर्ट तैयार करना होगा , वरना...!"
वरना क्या सिड...? "
"
वरना मैं दूसरे चैनल वाले के साथ..."
 "तुम  भी ना बाज आओ इस केकडा प्रवत्ति से.....! "
"
मुझे ताना मत दो रश्मि! अगर हमने इन तस्वीरों के साथ रिपोर्ट तैयार नही की तो चैनल का टी.आर.पी कैसे बढेगा और मेरा प्रमोशन तो इसी प्रोजेक्ट ...?"
"मेरे सपने तुम्हारे सपनों से ज्यादा ऊँचे है"
नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल

मौलिक एंव अप्रकाशित