मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

संस्कार

नाट्य विद्यालय मे दोनो ने एक साथ प्रवेश लिया था.संवेदनशील अराधना के मन मे  बुद्धिमान अमर का एक अलग ही स्थान था.संवेदनशीलता और   बुद्धिमानी के मिलन से नाट्य विद्यालय मे नाटकों के   नये-नये आयाम रचना उनका शग़ल बन गया.
  एक रात एक नाटक के मंचन के लिये दोनो के बीच विचार-विमर्श चल रहा था.अराधना फाइनल ड्राफ़्ट की तैयार कर रही थी.रात बहुत गहरा चुकी थी.
अराधना के लिये अमर के मन मे जो कुछ था दिमाग से दिल पर हावी होने लगा.मन की तंरगे उठी  और उसने अराधना को खींचकर सिने से लगा लिया.
"पास आओ अराधना आज मे तुम्हें जी भर देखना चाहता हूँ."
तभी सुरुर भरा अहसास होश पर हावी हुआ और
"तडाक!!!! तडाक!!! तडाक!!!! ------ ये क्या है?
"मेरी संस्‍कार की दीवारें इतनी कच्‍ची नहीं हैं अमर।"