शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

कई दिनो बाद आज
बादलों की आड से
जब सूरज ने झांका
बंद खिड़की के पल्लो
बीच कि दरार से एक किरण
प्रवेश कर गई घर के अंदर
साथ मे लाई थी प्रकृति
सारी खुशनुमाई  समेट
एक उजाले के रुप में
बस मिल गया जीवन को
एक लक्ष्य पुन: लड़ने का
अंधियारे के बादल भगा
दूर तक रोशनी की किरण
संग चलने का---


बुधवार, 5 सितंबर 2012

परम्पराए और वैज्ञानिक आधार---भाग (१)




भारतीय संस्कृति में पुरातन समय से कई परंपराए चली आ रही है जिनका कही-कही तो निर्बाध गती से पालन होता है किंतु कुछ का आधुनिकता के चलते त्याग कर दिया जाता है.विज्ञान सम्मत कुछ परंपराओं को हमे मानना चाहिये इसलिये यह उप क्रम.
               अभी कुछ दिनों पूर्व एक समाचार पत्र के कालम मे पढने मे आया कि "ट्रसी बायर्न" जो बच्चों के पैरों पर विशेष संशोधन कर रही है का कहना है कि बहुत कम उम्र से जुते उपयोग मे लाने से बच्चों  मे अनेक दोष उत्पन्न होते है एवं उनके मस्तिष्क  विकास मे बाधा पहुँचती है.उनका कहना है कि हम जैसे चमड़े य अन्य किसी वस्तु के जुते पहनाते है तो पैरो का नैसर्गिक विकास रुक जाता है.बच्चा जितना छोटा खतरा उतना अधिक है.वास्तव मे बच्चों के पैर उपास्थि(cartilage) के बने होते है और १६-१७ वर्ष कि उम्र तक आकर उनका अस्थिकरण होता है.
           रेंगकर(घुटनों के बल) चलने वाले बच्चों को जुते पहनाना बडा धोकादायक हो सकता है.कई सम्पन्न लोग अपनी शान के लिये घुटनों के बल चलने बच्चों को जुते पहनाते है लेकिन इससे उनके निकट दृष्टि कौशल मे बधा उत्पन्न होती है जो आगे जाकर उसके वाचन कौशल  मे बाधा उत्पन्न कर सकते है
               हम भारतीय घरों मे भी  जुते बाहर उतारने कि परंपरा है उसका मुल भी यही रहा होगा. लेकिन आधुनिकता के चलते आजकल ऐसा अनुरोध करने पर लोग इसे अपना अपमान समझते है ऐसा मेरा स्वानुभव है.हमारे घरों मे यह परंपरा रही है कि कही बाहर से आने पर जुते बाहर उतार कर पहले पैर-हाथ धोने के बाद हम घर मे चहलकदमी कर सकते है.किसी अतिथि के आने पर भी बाहर उसके हाथ- पैर धुलाने की व्यवस्था कि जाती थी.
            एकबार मुझे याद है मेरे घर कोई परिचित आये थे मुझे घर मे नंगे पाँव काम करते देखकर उपहास करते हुए उन्होने मेरी आर्थिक स्थिति पर व्यंग्य किया था.जब मैने उन्हें बताया कि हमारे घरों मे चप्पल पहनकर काम करने कि आदत ही नही डाली जाती हमारे यहा जुते-चप्पलो का स्थान देहरी के बाहर ही होता है तो उन्होंने मेरी स्वच्छता पर व्यंग्य किया था.अब चूँकि ज्यादा देर जुते पहने रहना या घर मे भी जुते पहने रहना कितना नुकसानदायक है यह अमेरिका में संशोधन के रुप मे स्वीकार हो चुका है तो अब वे तथाकथित भारतीय भी इसका अनुसरण करेंगे.
          बचपन मे जब हम स्कूल जाया करते थे तो वहाँ भी जुते-चप्पल कक्षा के बाहर एक पंक्ति मे उतारने कि परंपरा थी और टाटपट्टी पर नीचे बैठकर सामने एक डेस्क(ढलवां मेज़) पर अभ्यास का क्रम चलता था.आजकल स्कूल जाने के समय से लेकर घर वापस आने तक ७-८ घंटे या अघिक समय तक जुते का प्रयोग उनके पैरो कि निरोगी वृद्धि मे बाधा निर्माण कर सकते है और इतने समय तक मेज़- कुर्सी पर पैर लटका कर बैठना उनके पैरो के रक्त संचार मे बाधा उत्पन्न कर सकता है.
       मेरा उन सभी पालको से अनुरोध है कि अपने बच्चों को कम से कम घरों में तो भी नंगे पाँव घूमने दे खेलने दे.परंपराओं का निर्वाह करते हुए बच्चों के स्वस्थ्य एवं निरोगी भविष्य के लिये यह अत्यंत आवश्यक है.

सोमवार, 3 सितंबर 2012

त्रिवेणी


(१)ठहरे हुए पानी कि तरह
      मेरे लफ़्ज भी कोइ ऐसे

      "पन्नो पर बिखर गये"


(२)सिंचा था एक पौधा अपने घर के आँगन मे
      उस प्लवित फूल की खूशबू से बेभान थी मै

      "अचानक आँगन से कोई चुरा ले गया"

(३)"सावन के रिमझिम कि मस्त फ़ुहार,
       आल्हादित मन नाचने को है बेकरार"

       (सामने मेज पर लगा फ़ाइल का अंबार)



(4)लिये हाथ मे कलम,नजरे कागज पे गडी है
      शब्दो कि लडियाँ है,बस  ना जुडती कडी है

       "दो राहो पर मेरी भावना खडी है""

5) माली  बाग का कली-कली खिलाता
      मधुपान करता कोई भँवरा भुनभुनाता

    ( स्त्रित्व का अस्तित्व खतरे में  है)



(६)शमशिरें अब तुम झुका लो,
     शांति कि बयार चहु  फैला दो

   (रचनाओं कि मजलिस आनंद देगी)

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

चाँद

चाँद,
ना तेरा है ना मेरा,
वो तो हम सबका,
अनंत समुद्र के उस
रेतीले किनारे पर बैठे
उन लाखों लोगों का
वो हम सबका
चाँद तो आखिर
चाँद ही है
फिर वो चाहे ईद का हो
या कि किसी तीज का
वो तो अखंड ब्रम्हांड का
वो हम सब का
इसीलिये तो जब
हम सब गहन तिमिर मे
नींद के आगोश मे भी
हर एक के स्वप्न मे भी
होते है उस चाँद के साथ
तो वो हम सबका
आओ उस अमावस के
अंधकार को भगाकर
पुर्णिमा कि रौशनी को
बाँट ले सब मिलकर
क्योकिं वह
चाँद तो
हम सबका



मंगलवार, 28 अगस्त 2012

बैलेंस शीट

वैवाहिक जीवन के २६ सालो की,
जब लिखने बैठी बैलेंस शीट
याद आ रही कैसे रचाई ईंट पे ईंट
कभी सिमेंट का जोड मजबूततो
कभी पानी कि कमी सताई
पर सब चिजों को अनदेखा कर
रिश्तों की मजबूत नींव बनाई

.जीवन की इस बैलेंस शीट मे
देयता और संपत्ति बाँए दाँए----(liability-asset)
साथ-साथ मे चलते रहे हैआय-व्यय के भी साँए---(income-expenditure)
स्थायी संपत्ति के कालम में
जब खुद के घर ने जगह बनाई
आवासिय ऋण के कालम ने
देयता के कालम मे सेंध लगाई

बच्चो की उत्तम शिक्षा का खर्च
जनरल एक्सपेंसेस को हुआ डेबिट
बुद्धि का सारा श्रेय पतिदेव के खाते क्रेडिट
घर कि मेरी मेहनत सेलरी को हुई डेबिट
interest income का मुझे मिला क्रेडिट
बच्चे मेरी बैलेंस शीट के बडे गुड-विल
अब इस घर कि नींव नही सकती हिल

रिश्तें मे अपनत्व और प्यार का
बैंक बेलेन्स रहा  बडा मजबुत
दोनो परिवारो के संबंधो ने साथ मे
प्यार का कैश इन हैंड किया सुदृढ
रिश्तें मे मरम्म्त रख-रखाव का चलता रहा खेल
इसी तरह इस जीवन कि चल रही हे रेल

बुधवार, 15 अगस्त 2012

मेरा देश


ये कैसा आघात हुआ है
देश के साथ घात हुआ है
युवा देश का सो चुका है
नियत,हिम्मत खो चुका है

सालो से देश कहने को स्वतंत्र
आज नेताओ के हाथ परतंत्र है
ॠषि मुनी की तपोभूमी में
मिलावट के फूल है
भ्रष्टाचार की चहू और दलदल
महंगाई की फैली धूल है

बुनीयादी ढाँचा ध्वस्त हुआ है
आदमी आदमी से त्रस्त हुआ है
शिक्षा का स्तर गिरा हुआ है
पापी पेट के लिये समझलो
गुरु देश का बिका हुआ है
नेताओ ने हाथ साफ किया है
देश को यु बरबाद किया है

६५ वर्ष की उम्र में माँ को
गहरा ह्रदयाघात हुआ है
न्यायिक सेवा की धमनी मे
रक्त बहाव कम हुआ है
प्रशासन की धमनी मे
भ्रष्टाचार है भरा हुआ
रक्त संचार का मार्ग ह्रदय तक
पूर्ण रुप से है रुका हुआ
लेकिन अब
हमें भी कुछ करना होगा
अपने खातिर उठना होगा
भंगूर होते देश के खातिर
फिर एक जुट हो लडना होगा
धून सी लगती भ्रष्टाचरी
कब तक सहें ये मक्कारी
फिर अब खून उबलना होगा
देश कि खातिर लडना होगा

सर्वाधिकार सुरक्षित-----मौलिक रचना

मंगलवार, 7 अगस्त 2012


संरक्षित खाद्द्य पदार्थ भाग-2
              
संरक्षित खाद्द्य पदार्थ भाग-1 मे मैने अचार मुरब्बे के बारे मे लिखा था.आज दो  अहम संरक्षित खाद्द्य पदार्थ इस सूची मे जुड रहे  है वे दो अन्य खाद्द्य पदार्थ है-बडी-पापड.
          आज बहूत तेज वर्षा का क्रम जारी है ऐसे मे घर से बाहर सब्जी खरीदने निकलना तो दूर बडा कठीन भी है.साथ ही साथ पानी कि वजह से सडी-गली सब्जी खरीदने के स्थान पर कोई अन्य उपाय निकालना बेहतर समझा . अपनी माँ के साथ ग्रिष्म ऋतु मे बनाई बडी कि याद हो आई.बचपन से मेरे घर मे बडी बनाने कि एक प्रथा सी है और मै भी उसकी उपयोगिता समझकर व्यसतता के बीच भी बडी तन्मयता से अपनी बेटी के साथ उस प्रथा को निभाने का भरसक प्रयत्न करती हूँ.
           मूंग दाल,चना दाल,उडद दाल के साथ बनाई जाने वाली बडी अनेको प्रकार से बनाई जाती है.कोई सभी दालो को मिलाकर ,तो कोई अलग-अलग दालो मे कुछ सब्जियाँ आदी मिलाकर बनाते है तो कुछ केवल दालो के साथ.
         घर मे बचपन से मूंग एवं चना दाल कि बडी बनाई जाती है दाल को रातभर भिगो कर रखा जाता है. सुबह उसका पानी निथार कर पत्थर पे थोडा दरदरा पिसा जाता है बिल्कुल नाम मात्र के पानी के साथ पिसते वक्त उसमे अदरक ,जीरा ,मिर्च आदी मसाले मिलाये जाते है.पिसी दाल का घनापन इतना हो कि वह फैले नही. मेरी माँ बडी रचनात्मक एंव कलात्मक प्रवृती कि है जब हम बचपन मे बडी बनाते तो वे हम दोनो  बहनो के बीच एक प्रतियोगीता रख देती कि कौन आकार मे एक जैसी और उसके डालते वक्त सुंदर डिज़ाइन कि रचना करता है और हम दोनो बहने खेल-खेल मे बहूत सारी बडी चुटकी मे बना देते थे.
        आज मैने इन्ही बडी का उपयोग सब्जी बनाने किया .आलू तो सभी सब्जियों का सखा है.टमाटर कि ग्रेवी के साथ हरिमिर्च और धनिया पत्ती इसके स्वाद को दोगुना कर देती है.इस शुद्ध शाकाहारी सब्जी के आगे अनेको नामांकित सब्जीयाँ फिकी पड जाती है.साथ मे भूना पापड और गर्म-गर्म रोटियाँ वाह!!!! बारिश का आनंद दोगुना हो जाता है.
    उडद और चने की दाल के आटे से बने पापड के भी क्या कहने.वो तो किसी भी ॠतु मे कभी भी ,समारोह मे भी अपनी आमद दर्ज करता है.बचपन मे आस-पडौस कि चाची-मौसी के साथ इन्हे बनाने का अपना अलग मजा था.ये आस-पडौसी का मिलन समारोह भी हुआ करता था.उम्र मे छोटी हम बहने कडक गूंथे आटे से छोटे-छोटे पापड बनाती ,फिर माँ ,चाची मौसी उन्हे बडा आकार देती .हम बच्चे उन्हे सुखाने मे मदद करते.
     ऐसे अनेको संरक्षित खाद्द्य पदार्थ है जो गाहे- बगाहे ,परेशानियो मे हमारी मदद करते है हमारी रसोईमे.