गुरुवार, 2 जून 2011

मै उजियारा हूँ

उठो कि---
भोर हुई अब

मै धूप हूँ उजियारा हूँ
मुर्गे ने हे बांग लगाई
कोयल ने हे कूक सुनाई
चिडीयों की चह्चहाट से
प्रकृति भी देखो मुस्काई
अब उठो कि -----
मै धूप हूँ उजियारा हूँउठो सुबह हुई,मुँह ना ढापो
कमरे की धूल को छाटों
छितरे घर को सहलाओ
मकान को अपना घर बनाओ
अब उठो कि -----
मै धूप हूँ उजियारा हूँ
तानपुरे की एक तार को छेडो
स्वर लहरी में रस बरसाओ
अंग अंग मे भरो उत्साह
समय को फिर मुठ्ठी मे करके
पूरे दिन का पर्व मनाओ
अब उठो कि -----
मै धूप हूँ उजियारा हूँ

मंगलवार, 17 मई 2011

नदियों सी बहूँ

मै तो चाहूँ मै तो
झरने और नदियों
सी बहूँ
निर्बाध अकाट्य सत्य
सी उछ्लू कुदू औरफिर
नदियों सी बहूँ
आये कोई रोडा,पत्थर
प्रकृति के बूंद-बूंद से सिंचित
धार बनकर बहूँ
पेड और घाटो को ले साथ में
प्रकृति के संग कहूँ
मैं तो नदियों सी बहूँ
संग पहाड और झरनो के
लेकर अनन्त तक सिर्फ
नही भेद हो स्त्री पुरूष का
मैं तो कर्म संग बहूँ
मैं तो नदियों सी बहूँ
मन के उठते तूफानो को
बिना किसी डर के कहूँ
जीवन मृत्यु का भेद अमिट हे
फिर क्यो अंतर्द्वन्द सहूँ
मैं तो नदियों सी बहूँ

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

अब माँ का मन पत्र में

प्रिय बेटे/बेटी,
नानाजी का स्नेह एवं आशिर्वाद से भरा पत्र तो तुम पढ हि चुके हो.उनके जीतना अनुभव तो मुझे नहि लेकिन माँ होने की एक फिक्र हे एहसास हे जिसे केवल मन मे रखना अब मुश्किल इसलिये यह प्रपंच.
बचपन मे एक था कौआ एक थी चिडीया कि कहानी सुनते वक्त उँचे उडने के सपने तुमने देखे होंगे  अब कौऎ-चिडीया से ज्यादा गिद्ध दृश्टि और बलवान पंख तुम्हारे पास है,  विश्वास नहिं हे तो आसपास के पर्यावरण का.
बुद्धि एवं विचारो कि अमुल्य नीधि तो हमे विधाता से मिली हे इसलिये पशु से अलग होने का गर्व हम करते हे जो सहि भी हे लेकिन सात्विकता से समाधान कि तरफ ले जाने वाला संस्कार हमे घर से हि मिलते हे और वह घर सिर्फ माँ-पिता का हि हो सकता हे. केवल मातृ-पितृ दिन मनाकर कर्तव्य कि इतिश्री नहि कि जा सकती बल्कि इसमे छिपा होता हे उनका वात्सल्य,निस्वार्थ प्रेम,कर्तव्य जिसका हम जन्म भर अभिमान कर सकते हे.
किसी सुंदर चित्र का फ्रेम नक्षीदार खूबसुरत होगा तो चित्र ज्यादा टिकाऊ और खूबसुरत होगा
उसके फटने टुकडे-टुकडे होने की संभावना भी कम होगी इसलिये अपने जीवन की फ्रेम तुम्हें चुनना हे.
किसी सुगंधित फूल को मसलकर भी उसकि खूशबु ली जा सकती हे और धिरे-धिरे गहरी साँस लेकर भीउसे सुंघ सकते है.दूसरो का आदर करके मिला सुगंध हमें आत्मसम्मान देता हे जो चिरकाल तक टिका रहता हे.तुम दोनो अब आकाश मे उँचा उडने घर से निकले हो तो वहाँ फिसलन भरे रास्ते,प्रतिकुल हवामान भी मिलेगा तब अपनी नीरक्षीर विवेक बुद्धि से आत्मसम्मान संभालकर चलना तभी घर के मिले संस्कारतुम्हारे यश की गाथा गाएँगे.अब स्वविवेक से काम लोगे ऎसी आशा करती हूँ
                 तुम्हारी
                     माँ
                                                                                                   

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011


आओ गुनगुनाऊँ

एक गीत नया गाऊँ

अपनो के मेले मे

हर पल मुस्कुराऊँ

एक गीत नया गाऊँ

बूंद बनकर पनी की

नदी मे घुल जाऊँ

पंख फैलाकर व्योम मे

सुरिली तान गाऊँ

फिर गुनगुनाऊ---

केनवास पर उतरता

चित्र बन जाऊँ

प्रकृति के रंगो मे

घुलमिल जाऊ

एक गीत नया गाऊँ

झरझर कर झर रहे

पिले-पिले पात

नये कपोंलो का

श्रॄंगार पेडों पर आज

नयनो मे रस भरके

फिर गुनगुनाऊ----

एक गीत नया गाऊँ

कल्पवृक्ष कि छाँव

में बैठकर

समय कि फिसलन में

उम्र भुल जाऊ

फिर गुनगुनाऊ----

एक गीत नया गाऊँ

गुरुवार, 31 मार्च 2011

नानाजी का पत्र अपने नाती को शुभकामनओं के साथ आशीर्वाद से भरा

प्रिय अभिषेक(नन्दन),
अनेको आशिर्वाद,
यह सुखद समाचार सुनकर खुशी हुई कि तुम internship करने जर्मनी जा रहे हो.मुझे वह दिन यद आया जब तुम अपनी शिक्षा के लिये आई-आई-टी पवई ज रहे थे तब रेल्वे स्थानक पर हम सब तुम्हें विदा करने आये थे तब तुम नयना-सुरेश के पुत्र, अभिलषा के भाई,अपने मित्रो का सहपाठी तो थे हि साथ ही भोपाल के अपने पडौसियो के भोपली भी थे। अब जब तुम जर्मनी जा रहे हो तो उपरोक्त तो
हो ही परन्तु अब तुम सर्वप्रथम भारतमाता के नागरिक वैदिक धर्म के मानने वाले समाज के प्रतिनिधी
भी हो.तुम्हे अब सर्वग्य होना चाहिये.कोई भी सुकर्म करते वक्त अपने आप में कमी महसूस न हो
अर्थात परशुराम के समान क्षात्र तेजवैश्य के समान अर्थशास्त्री व शुद्र के समान सेवाभावी भी होना चाहिये ये सभी गुण लेकर तुम जर्मनी ज रहे हो वहाँ तुम्हें अपना श्रेठत्व सिद्ध करना है.भारत कभी विश्वगुरु था उसे वह स्थान पुन: दिलाना है.
जर्मनी के विद्वान मक्समुलर जब भारत मे क्रिशचन धर्म के प्रचार के लिये आये थे तब उन्होने सर्वप्रथम संस्कृत भाषा का अभ्यास किया तथा अपने वेदो को जर्मन भाषा में अनुवादित करके सम्पुर्ण
विश्व के सामने रखा तथा वेदो को श्रेष्ठ बताया.उन्होने भारत से अनेक संस्कॄत ग्रंथो को जर्मनी मे ले जाकर उनसे ग्यान प्राप्त कर अनेको शोध लगाए .तुम जिस रसायनशास्त्र के अध्ययन के लिये जा रहे हो उस रसायनशास्त्र क मूल अपने अथर्ववेद में हे यह बात ध्यान रखना। जर्मनीमे तुम मुश्किल से ९० दिन रहोगे किन्तु उस कालावधि मे तुम्हें अनेको अच्छे-बुरे अनुभव आऎगे,प्रलोभन भी मिलेगे,अनेको कुमार्ग सुझाए जाएगे किन्तु पहले इन सब का मनन कर अपना मत तुम्हे बनाना होगा. आज तुम उस मोड पर खडे हो जहाँ से तुम्हारे माता-पिता,कुटुंबियो,समाज तथा धर्म ने जो संस्कार दिये हे उसकि परीक्षा होने वाली है.इस परीक्षा मे उत्तीर्ण होकर एक सुविग्य भारतीय बनकर वापसी कि प्रतिक्षा हम करेगें. पर्यटन से जीवन मे अनुभवों का पिटारा मिलता हे अत: जब भी वक्त मिले आसपास के देश -रोम ,इटली,फ्रान्स आदि देखने का प्रयत्न करना.आर्थिक मदद तुम्हें मिलेगी ही. जर्मनी मे तुम्हें भाषा कि समस्या आ सकती हे यह मैं अपने अनुभव से बता रहा हुँ.मै सिर्फ १०वी पास करके केरल मे ट्रेनिंग के लिये गया था तब मुझे सिर्फ मराठी,हिन्दी आता था अंग्रेजी समझता तो था किन्तु फर्राटेदार बोल नहि पाता था और समझ भी नहि पाता था.शुरुआत मे बडी तकलीफ उठानी पडी लेकिन जल्द ही मलयाली सीख गया .वैसे अब तो जर्मनी मे अंग्रेजी के जानकार बहुत होगे फिर भी वहाँ सब व्यवहार जर्मनी मे होते हे ऎसा ग्यात हुआ हे
तुम भी जर्मनी सिखने कि कोशिश करना यह एक additional qualification होगा.आजकल दूरभाष के महाजाल से तुम्हे अच्छी सुविधा हे अपनो के सम्पर्क मे रहने की फिर भि अपनी प्रकृति को सम्हालना.लिखने को बहुत हे लेकिन अब बस.हमारे आशिर्वाद तुम्हारे साथ है।
जय हिन्द-जय भारत
सिर्फ तुम्हारा नाना

शनिवार, 19 मार्च 2011

शब्दों की होली

ओ खेले हम होली
अक्षरो के सागर में
शब्दों कि हो नाव
लेकर हाथ मे कलम
रंग स्याही का साथ
पर्व ये ऐसा जब
रंग खिले
बैर और दुश्मनी के
सब दंभ धूले
होठों पर गीत फाग
ढपली पर बजे राग
आओ खेले होली
शब्दों के साथ
प्रकृति के आतंकी प्रहार से
धरती हे डोली---(जापान में)
खो गई है हँसी-ठिठोली
कैसे खेले हम रंगो की होली
आओ खेले होली
हम शब्दों के साथ
पतझड सी जले बुराई
नये कपोलो सी
अच्छाई हो संग
बिन पानी के हम
शब्दों के खेले रंग
अबीर गुलाल तो बहाना है
दिल को दिल के
करीब लाना है
शब्दों कि होली आज
मनाना है

मंगलवार, 8 मार्च 2011

पहचान से

जीना है हरपल,
खुदकी अपनी---
पहचान से
पूरी करना हरपल
ख्वाहीशे अपनी
पहचान से
नजरिया समाज क हरपल
बदलेगे अपनी
पहचान से
बहेगे नदी कि तरह
निरन्तर अपनी
पहचान से
रुके कन्या भृण हत्या हरपल
लडेंगे अपनी
पहचान से
नही झूकेंगे दहेज कि वेदी पर हरपल
डटेंगे निर्णय पर अपने
पहचान से
शंखनाद करेगे हरपल
वजूद का अपनी
पहचान से
प्रकृति द्वरा निर्धारीत
मकसद में हरपल
जीएंगे इत्मिनान से
पहचान से