मंगलवार, 5 जनवरी 2016

यादें---"सरहद"-लघुकथा गागर मे सागर

उसका जीवन सवार कर अपने पैरो पर खड़ा करने में  माँ का बडा योगदान था  पति के सहारे  से वंचित  उसकी पिता भी बन गई थी वो।  बडी खुशी-खुशी विदा किया उसे डोली मे बैठा कर और फिर मानो उसका  मकसद पूर्ण हुआ जल्द ही विदा ले ली दूनिया से भी। 
आज कंपनी मे प्रमोशन के बाद आदेश पत्र  माँ के फोटो के सामने रख प्रणाम करने झुकी ही थी कि मोहित बोल पड़े...
"मेघा! इतने बडे ओहदे पर आकर भी  बचपना  गया नही। तुम्हारी दूनिया सिर्फ़ माँ और माँ तक ही सिमटी है।  मेरा कोई वजूद..."
अंदर तक टूट कर रह गयी  मेघा। काश...
माँ तेरी यादों की कोई सरहद होती तो कितना बेहतर होता

नयना(आरती) कानिटकर
०५/०१/२०१६

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