मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

अविश्वसी -मन-लघुकथा के परिंदे-"आश्वासन" ५वी

ऑफ़िस मे पहुँचते ही उसकी  नजर   अधिकारी के उस नाम की तख़्ती पर पडी जिनसे  उसे काम करवाना था
"सर! ये लिजीए सारे कागज़ात जिनसे मेरा काम हो सकता है."
"ठिक हैं रख दिजीए।" नज़रें झुकाए हुए ही बाबू ने जवाब दिया.काम होते ही आपको सूचित कर दिया जाएगा व कागज़ात पोस्ट से भेज दिये जाएँगे."
"तो अब मैं निकलू." उसने कहा
"हू अ अ--"
"काम हो जाएगा ना?" प्रश्नवाचक नज़रों से देखते हुए उसने पूछा
"आप बार-बार क्यो पूछ रहे है, यकीन नहीं है क्या?"  अधिकारी ने जरा रोष से बोला
"तो अब मैं चलू,विश्वास तो  है. मगर??... उसने पैंट की जेब मे हाथ डालते हुए कहा
अधिकारी  ने चश्मा सिधा करते ही आँखों ही आँखो में कुछ इशारा किया.
वो अपनी पेंट की जेब में हाथ डालकर टटोलते हुए बाहर निकल गया.


नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
२३-०२-२०१६
अविश्वसी -मन

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