शुक्रवार, 13 मार्च 2020

गुजरा बचपन

गुजरा  बचपन

 एक खुशनुमा सी सुबह
ठंडी हवा के झोंके संग
याद दिला गई
उस  आँगन की
गाँव के गलियों की , जहाँ
गुजरा था बचपन
वो घर की दिवारें , वे आले
जिनमें  शाम को जलती थी
घासलेट की डिबरी
वो घर की बगियाँ उनमें ,
गिलहरीयों का शोर
पतझड में झरे पत्तों की सरसराहट
संग नये  नये कोपलों की खूशबू
पीपल के पेड से टंगा वह झूला
जिस पर डौलते वक्त की
वो डर भरी खिलखिलाहट
जो समय के धूल भरे ओसारे में
कही छूट गये हैं
इस दूर देश में आकर
किताबें भी नहीं दे पाई वो सीख
कि तुम्हें भूल जाऊँ
फिर में चाहे ओट दू
सारे घर के किवाड
पर यादों की खिडकियाँ
उनका क्या
वो तो खुलनी ही चाहिए ना
हैं ना  😊
©नयना(आरती)कानिटकर
१३/०३/२०२०




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