रविवार, 1 अक्तूबर 2023

मेरी दादी

 अपनो से दूर  देवता  की शरण में जा बसे अपने बुजुर्गो को याद करने का समय

 

मेरी दादी!!
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मेरे मन के कोने में बसी है 

मेरी दादी की वह छोटी सी संदूक 

उसे जब भी वह खोलती 

हम दोनों बहनें बैठ जाती 

अगल-बगल ताकाझाँकी करने

भाई भी खड़ा होता बगल में कभी कभी 

दादी गुस्सा करती 

चलो! परे हटो कोई धन नहीं गड़ा है इसमें 

वो तो बस सहेजती थी कभी कभी अपना सामन 

जिसमे होती थी बस दो-तीन साधारण सूती 

नौ वार धोती , दो झक सफेद अपने हाथ की सिली 

अंगिया (ब्लाउज)


एक सफेद धागे की गिट्टी और सुई 

एक छोटी कैची , एक बहुत पुराना सा पिद्दू चाकू 

जिसे वो हमेशा अपने सिरहाने रखती 

एक अमृतांजन  बाम की शीशी 

मात्रा दस पैसे वाला एक हवाबाण हरड़े का पाऊच

जिसमे होती  थी  बस पांच या छ: गोली 

हम अपनी  हथेली  फैला देते 

वो धर देती  हमारे हाथ एक-एक गोली 

फिर खोलती धीमे से अपना बटुआ 

चारों  और नजर घुमाती कोई देखा तो नहीं रहा 

जबकि उसमे होती थी मुश्किल से पांच-सात रुपयों की चिल्लर 

उन्हें भी सौ -सौ  बार गिनती 

फिर नजर दौड़ती अपने आजू बाजू 

छोटे भाई के हाथ थमा देती चवन्नी 

हम दौड़कर ले आते "नरेन" की दूकान से 

एक *पारले जी* का पैकेट 

बाट लेते आपस में और  :) मुँह में  दबाकर ऐसे खाते 

कि कही  चोरी ना पकड़ी जाए 

बक्से में सहेजे रहती पीतल की एक छोटी  सी चिमटी 

आजकल के प्लकर जैसी 

उसे चुभते थे अपनी पलकों के बाल 

आँखो की निचली कोर पर 

जिसे निकाल देते थे हम 

खींचकर चिमटी से 

चुभन हटने पर छोड़ती थी गहरी सांस 

कहती पता नहीं कब तक 

सहनी  है ये चुभने 

चौदह बच्चों को जनने वाली 

दस जिन्दा बच्चों की माँ 

बस उन्हें पालने में ही खप गयी होगी

©नयना (आरती)कानिटकर

०१/०१/२०२३ 

 

  


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