बुधवार, 20 जुलाई 2011

तुम कौन हो?


तूम कौन हो?
पूर्व से होता अरुणोदय या
पश्चिम की रजनी विषादमय
तूम कौन हो?
अधरो को छूता अमृत प्याला या
मानस की विषमय मधुशाला
तूम कौन हो?
पक्षियो के कल-कल करते स्वर या
रक्षक पर भक्षक के उठते ज्वर
तूम कौन हो?
समुद्र के लहरो की हलचल या
उजाड  प्यासा मरुस्थल
तूम कौन हो?
धूंधली दिशा और छाता कुहासा या
सर-सर करती हवा की आशा
तूम कौन हो?
दूःखो का उन्मत निर्माण या
अमरता नापते अपने पाद
तूम कौन हो?

रविवार, 3 जुलाई 2011

मै चुप रहूगीं

निन्द मेरी जब खूली धुप थी ढल गई
कदम मेरे उठते  जिन्दगी फिसल गई
होंठ अभी खुले ही थे कि उठ गई लहर
बह गये मेरे शब्द बिखर-बिखर कर

वक्त अब बदल गया लेकर करवट
अनकही बातें और ना शब्द ना तट
लो अब वही हुआँ जिसका था डर
ना रहे शब्द और शब्दो का समंदर

लगी होंठो पर पाबंदियाँ कुछ सुनाने कि
लगी होड प्राण पर समिधा चढाने कि
जिन्दगी में थी थोडी खुशियाँ ,थोडे गम
सिर्फ शब्द ही तो थे मेरे सच्चे हमदम

सही गलत का फैसला में ना कर पाऊ
मै कही टुकडो-टुकडो मे बिखर ना जाऊ
अब रस्ता चाहे कोई हो कोई हो मंजर
आँखे मूंदे मै चूप रहूँगी,कुछ ना कहूँगी



    

गुरुवार, 23 जून 2011

वर्षा ऋतु आई

अरसे से प्यसी धरा पर
उतर नभ से वर्षा  आई
उड-घुमड कर बादल बरसे
पवन पाती-पाती इतराई
देखो वर्षा ऋतु आई.

सौंधि-सौंधि खूशबू ने फिर
हवा के संग करी चढाई
बयार हुई ठंडी मदमस्त
बूंदोने  हे प्यास बुझाई
देखो वर्षा ऋतु आई

खुशी से भर उठा किसान
धरा को चुमने दौड लगाई
हल उठाओ चलो काम पर
धरती ने आवज लगाई
देखो वर्षा ऋतु आई
देखो वर्षा ऋतु आई


  

गुरुवार, 2 जून 2011

मै उजियारा हूँ

उठो कि---
भोर हुई अब

मै धूप हूँ उजियारा हूँ
मुर्गे ने हे बांग लगाई
कोयल ने हे कूक सुनाई
चिडीयों की चह्चहाट से
प्रकृति भी देखो मुस्काई
अब उठो कि -----
मै धूप हूँ उजियारा हूँउठो सुबह हुई,मुँह ना ढापो
कमरे की धूल को छाटों
छितरे घर को सहलाओ
मकान को अपना घर बनाओ
अब उठो कि -----
मै धूप हूँ उजियारा हूँ
तानपुरे की एक तार को छेडो
स्वर लहरी में रस बरसाओ
अंग अंग मे भरो उत्साह
समय को फिर मुठ्ठी मे करके
पूरे दिन का पर्व मनाओ
अब उठो कि -----
मै धूप हूँ उजियारा हूँ

मंगलवार, 17 मई 2011

नदियों सी बहूँ

मै तो चाहूँ मै तो
झरने और नदियों
सी बहूँ
निर्बाध अकाट्य सत्य
सी उछ्लू कुदू औरफिर
नदियों सी बहूँ
आये कोई रोडा,पत्थर
प्रकृति के बूंद-बूंद से सिंचित
धार बनकर बहूँ
पेड और घाटो को ले साथ में
प्रकृति के संग कहूँ
मैं तो नदियों सी बहूँ
संग पहाड और झरनो के
लेकर अनन्त तक सिर्फ
नही भेद हो स्त्री पुरूष का
मैं तो कर्म संग बहूँ
मैं तो नदियों सी बहूँ
मन के उठते तूफानो को
बिना किसी डर के कहूँ
जीवन मृत्यु का भेद अमिट हे
फिर क्यो अंतर्द्वन्द सहूँ
मैं तो नदियों सी बहूँ

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

अब माँ का मन पत्र में

प्रिय बेटे/बेटी,
नानाजी का स्नेह एवं आशिर्वाद से भरा पत्र तो तुम पढ हि चुके हो.उनके जीतना अनुभव तो मुझे नहि लेकिन माँ होने की एक फिक्र हे एहसास हे जिसे केवल मन मे रखना अब मुश्किल इसलिये यह प्रपंच.
बचपन मे एक था कौआ एक थी चिडीया कि कहानी सुनते वक्त उँचे उडने के सपने तुमने देखे होंगे  अब कौऎ-चिडीया से ज्यादा गिद्ध दृश्टि और बलवान पंख तुम्हारे पास है,  विश्वास नहिं हे तो आसपास के पर्यावरण का.
बुद्धि एवं विचारो कि अमुल्य नीधि तो हमे विधाता से मिली हे इसलिये पशु से अलग होने का गर्व हम करते हे जो सहि भी हे लेकिन सात्विकता से समाधान कि तरफ ले जाने वाला संस्कार हमे घर से हि मिलते हे और वह घर सिर्फ माँ-पिता का हि हो सकता हे. केवल मातृ-पितृ दिन मनाकर कर्तव्य कि इतिश्री नहि कि जा सकती बल्कि इसमे छिपा होता हे उनका वात्सल्य,निस्वार्थ प्रेम,कर्तव्य जिसका हम जन्म भर अभिमान कर सकते हे.
किसी सुंदर चित्र का फ्रेम नक्षीदार खूबसुरत होगा तो चित्र ज्यादा टिकाऊ और खूबसुरत होगा
उसके फटने टुकडे-टुकडे होने की संभावना भी कम होगी इसलिये अपने जीवन की फ्रेम तुम्हें चुनना हे.
किसी सुगंधित फूल को मसलकर भी उसकि खूशबु ली जा सकती हे और धिरे-धिरे गहरी साँस लेकर भीउसे सुंघ सकते है.दूसरो का आदर करके मिला सुगंध हमें आत्मसम्मान देता हे जो चिरकाल तक टिका रहता हे.तुम दोनो अब आकाश मे उँचा उडने घर से निकले हो तो वहाँ फिसलन भरे रास्ते,प्रतिकुल हवामान भी मिलेगा तब अपनी नीरक्षीर विवेक बुद्धि से आत्मसम्मान संभालकर चलना तभी घर के मिले संस्कारतुम्हारे यश की गाथा गाएँगे.अब स्वविवेक से काम लोगे ऎसी आशा करती हूँ
                 तुम्हारी
                     माँ
                                                                                                   

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011


आओ गुनगुनाऊँ

एक गीत नया गाऊँ

अपनो के मेले मे

हर पल मुस्कुराऊँ

एक गीत नया गाऊँ

बूंद बनकर पनी की

नदी मे घुल जाऊँ

पंख फैलाकर व्योम मे

सुरिली तान गाऊँ

फिर गुनगुनाऊ---

केनवास पर उतरता

चित्र बन जाऊँ

प्रकृति के रंगो मे

घुलमिल जाऊ

एक गीत नया गाऊँ

झरझर कर झर रहे

पिले-पिले पात

नये कपोंलो का

श्रॄंगार पेडों पर आज

नयनो मे रस भरके

फिर गुनगुनाऊ----

एक गीत नया गाऊँ

कल्पवृक्ष कि छाँव

में बैठकर

समय कि फिसलन में

उम्र भुल जाऊ

फिर गुनगुनाऊ----

एक गीत नया गाऊँ