मंगलवार, 8 नवंबर 2011

जीवन

नमन शब्दग्राम!
मीनाक्षी मोहन 'मीता' जी के आह्वान पर 💐💐💐

पंक्ति_आधारित_काव्य_सृजन



जीवन मृत्यु का यह खेल अजीब,
इस खेल से न कोई बच पाया है.
जीवन वैभव के उन्माद को अब तक
मृत्यु  सन्मुख  नतमस्तक ही पाया है
इसलिए तो----
जीवन सिर्फ इक सीप नहीं है
इसके हर मोती को चुन लो,
गिर कर उठकर बारबार तुम,
जीवन का रस पूरा चख लो,
बूंद-बूंद जोड मधु जीवन का
इस अमृत घट को प्यार से पीलो
खुशियों का ढेर भर अंजुरी में,
सुंदर जीवन का रस पीलो
मदमस्त हो जीवन जीलो

मदमस्त हो जीवन जीलो

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

तुमको दे दूँ

दिल कहता हैशब्द ह्र्दय में,
उन्हें समेटू
तुमको दे दूँ
होठों तक आते शब्दो को
भावो मे भरकर
तुमको दे दूँ
कहूँ मन की अभिलाषा
सुनहले स्वप्न में
तुमको दे दूँ
आओ उजियारे की एक किरण संग
खूला हुआ पथ
तुमको दे दूँ

बुधवार, 20 जुलाई 2011

तुम कौन हो?


तूम कौन हो?
पूर्व से होता अरुणोदय या
पश्चिम की रजनी विषादमय
तूम कौन हो?
अधरो को छूता अमृत प्याला या
मानस की विषमय मधुशाला
तूम कौन हो?
पक्षियो के कल-कल करते स्वर या
रक्षक पर भक्षक के उठते ज्वर
तूम कौन हो?
समुद्र के लहरो की हलचल या
उजाड  प्यासा मरुस्थल
तूम कौन हो?
धूंधली दिशा और छाता कुहासा या
सर-सर करती हवा की आशा
तूम कौन हो?
दूःखो का उन्मत निर्माण या
अमरता नापते अपने पाद
तूम कौन हो?

रविवार, 3 जुलाई 2011

मै चुप रहूगीं

निन्द मेरी जब खूली धुप थी ढल गई
कदम मेरे उठते  जिन्दगी फिसल गई
होंठ अभी खुले ही थे कि उठ गई लहर
बह गये मेरे शब्द बिखर-बिखर कर

वक्त अब बदल गया लेकर करवट
अनकही बातें और ना शब्द ना तट
लो अब वही हुआँ जिसका था डर
ना रहे शब्द और शब्दो का समंदर

लगी होंठो पर पाबंदियाँ कुछ सुनाने कि
लगी होड प्राण पर समिधा चढाने कि
जिन्दगी में थी थोडी खुशियाँ ,थोडे गम
सिर्फ शब्द ही तो थे मेरे सच्चे हमदम

सही गलत का फैसला में ना कर पाऊ
मै कही टुकडो-टुकडो मे बिखर ना जाऊ
अब रस्ता चाहे कोई हो कोई हो मंजर
आँखे मूंदे मै चूप रहूँगी,कुछ ना कहूँगी



    

गुरुवार, 23 जून 2011

वर्षा ऋतु आई

अरसे से प्यसी धरा पर
उतर नभ से वर्षा  आई
उड-घुमड कर बादल बरसे
पवन पाती-पाती इतराई
देखो वर्षा ऋतु आई.

सौंधि-सौंधि खूशबू ने फिर
हवा के संग करी चढाई
बयार हुई ठंडी मदमस्त
बूंदोने  हे प्यास बुझाई
देखो वर्षा ऋतु आई

खुशी से भर उठा किसान
धरा को चुमने दौड लगाई
हल उठाओ चलो काम पर
धरती ने आवज लगाई
देखो वर्षा ऋतु आई
देखो वर्षा ऋतु आई


  

गुरुवार, 2 जून 2011

मै उजियारा हूँ

उठो कि---
भोर हुई अब

मै धूप हूँ उजियारा हूँ
मुर्गे ने हे बांग लगाई
कोयल ने हे कूक सुनाई
चिडीयों की चह्चहाट से
प्रकृति भी देखो मुस्काई
अब उठो कि -----
मै धूप हूँ उजियारा हूँउठो सुबह हुई,मुँह ना ढापो
कमरे की धूल को छाटों
छितरे घर को सहलाओ
मकान को अपना घर बनाओ
अब उठो कि -----
मै धूप हूँ उजियारा हूँ
तानपुरे की एक तार को छेडो
स्वर लहरी में रस बरसाओ
अंग अंग मे भरो उत्साह
समय को फिर मुठ्ठी मे करके
पूरे दिन का पर्व मनाओ
अब उठो कि -----
मै धूप हूँ उजियारा हूँ

मंगलवार, 17 मई 2011

नदियों सी बहूँ

मै तो चाहूँ मै तो
झरने और नदियों
सी बहूँ
निर्बाध अकाट्य सत्य
सी उछ्लू कुदू औरफिर
नदियों सी बहूँ
आये कोई रोडा,पत्थर
प्रकृति के बूंद-बूंद से सिंचित
धार बनकर बहूँ
पेड और घाटो को ले साथ में
प्रकृति के संग कहूँ
मैं तो नदियों सी बहूँ
संग पहाड और झरनो के
लेकर अनन्त तक सिर्फ
नही भेद हो स्त्री पुरूष का
मैं तो कर्म संग बहूँ
मैं तो नदियों सी बहूँ
मन के उठते तूफानो को
बिना किसी डर के कहूँ
जीवन मृत्यु का भेद अमिट हे
फिर क्यो अंतर्द्वन्द सहूँ
मैं तो नदियों सी बहूँ