गुरुवार, 21 जनवरी 2016

"विभाजन" नया लेखन नये दस्तखत

शहर की दस मंजिल इमारत के आफ़िस खिडकी से झांकते हुए अनंत ने कहा---
"वो देखो अनन्या! वो दो रास्ते देख रही हो ना ,अलग-अलग दिशाओ से आकर यहाँ एक हो गये है . . आखिर इस स्थान पर अब हमारी मंज़िल एक हो गयी है। भूल जाओ उन पुरानी बातों को। "
"हा अंनत! देख रही हूँ , किंतु उन कड़वी यादों से बाहर ..."
"ओहो! कब तक उन्हें..."
" एक होती सडक के बीच की वो सफ़ेद विभाजन रेखा भी देख रहे हो ना अंनत! वो भी अंनत से ही चली आ रही है।"
उसे कभी एकाकार करना ...
नयना(आरती) कानिटकर

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