मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

मुँह दिखाई-नयी रीत लघु कथा के परिदे

 धूम-धड़ाके के साथ विवाह पश्चात जब बारात घर लौटी तो चारों ओर ख़ुशियों का माहौल था. सुरेखा ने आरती उतार घर मे प्रवेश कराया.भिन्न-भिन्न रस्मो मे समय कब गुजरा पता ही ना चला.तभी दादी माँ का आदेशात्मक स्वर सुनाई दिया.
"सुरेखा बहूरिया!! लगे हाथ मुँह दिखाई की रस्म भी कर लो,आसपास के घरो मे बुलावा भेज दो,लल्ली(नई बहू) जो दहेज़ लाई है उसे करिने से  सजा  लो ताकि जब वे आए तो उन्हे मुझसे  पूछना ना पडे --"तेरी पोते री बहू क्या लाई है संग"
"ना अम्मा!!! अब ये मुँह दिखाई की रस्म ना होगी इस घर मे और ना ही बहू घूँघट काढेगी.वैसे से भी शर्म आँखो मे और अदब दिल से होता है .मैं उसे अपनी  बेटी बनाकर लाई हूँ उसे अपने सुमन  बेटी की तरह स्वीकारो.दहेज़ मे मैने उसके माँ-बाबू से कुछ ना लिया.वो अपने पैरो पर खड़ी है,नौकरी करती है.जरुरत पडने पर होनी-अनहोनी ,हारी-बीमारी मे हमारे साथ है.बस यही दहेज़ है हमारा." कहकर बहू शकून के माथे हाथ फ़ेरने लगी .थक गई है सारा दिन रस्मो के चलते.
"जा बेटा शकुन थोडा आराम कर ले."
शकुन को घर मे अपने मिलने वाले स्थान का आश्वासन मिल गया.
"मगर बहूरिया!!! इस घर की रीत--"
"अम्मा आज से इस घर की यही नयी-रीत है."
नयना(आरती)कानिटकर

रविवार, 20 दिसंबर 2015

अपराध विषय आधारित-लघुकथा के परिंदे-"जमीन"

शीना और  शशांक के साथ  अपनी गाड़ी से प्रवास पर निकले शर्मा दंपत्ति सडक के  बाँयी ओर कोयले की आँच पर गर्मागर्म भुट्टे सेंकते देख उनका स्वाद लेने और  कुछ देर सुस्ताने के हिसाब से गाड़ी एक किनारे लगा देते है. पास ही एक महिला को ताजे-ताजे भुट्टे सेंकने का कह थोडा चहलकदमी करने लगते है.
 भुट्टे वाली के पास ही कुछ दूरी पर शीना की हम उम्र लड़की पत्थरों से घर बना ,झाडीयो मे लटकती ,लहराती बेलों से झुला बनाकर अपनी पुरानी सी गुड़िया जिसके हाथ-पैर लूले हो चुके थे ,खेल रही थी.शीना भी अपनी गुड़िया थामे  वहा पहुँच गई.उस लड़की ने भी शीना को अपने खेल मे शामिल करना चाहा ,तभी नमक-निंबू लगे भुट्टे हम तक आ चुके थे,वे उन्हे ले गाड़ी मे बैठ गये.
छीSSS मम्मी!!! कितनी गंदी गुड़िया थी उसकी और  वो कैसे पत्थर का घर बना उसे खिला रही थी मानो कोई महल हो,मेरी देखो इतनी सुंदर गुड़िया के साथ खेलना था उसे.---ना जाने क्या-क्या अर्नगल बोलने लगी.
चुप करो शीना!!! बहुत हो गया. अभाव क्या होता है तुम्हें मालूम नही है,तुम जो मांगती हो वह तुम्हें तुरंत मिल जाता है. उसकी माँ को देखो क्या कमा पाती होगी वो दिन भर मे किसी को इस तरह गंदा कहना,उसका मज़ाक उडाना---बोलते-बोलते मेरा बदन काँपने लगा.
बच्चों को सारी भौतिक सुविधाएँ तो जुटा दी किंतु उन्हे ज़मीन से ना जोड पाई.इस अपराध बोध मे मुझे अस्वस्थ कर दिया था.
 बच्ची को  शीना ने अपनी गुडिया भेंट स्वरुप दे दी. 
नयना(आरती) कानिटकर
२०/१२/२०१५

गले की जंजीर-लघुकथा के परिंदे-दहलीज

 बहू को अचानक अपने पिता  के साथ जाते देख शांती बहन के मन मे कुछ संदेह हुआ" माँजी!! मै सुनंदा को अपने  घर  ले जाने आया हू
"हा माँ !!!मैने ही पिताजी को बुला भेजा है"
बात को बीच मे ही काटते माँ दहाड उठी-" जानते हो क्या करने जा रहे हो,समाज के लोग क्या कहेगे?
"माँ आप तो सब जानती थी की --- फिर मै मना  भी करता रहा किंतू आप बिन माँ की बच्ची को प्यार और घर मिल जायेगा कहकर 
समाज मे दिखावे के खातिर  जबरन मेरा विवाह----
 बात यही खत्म होती तब भी ठिक था .सुनंदा तो बिन माँ की प्यार की भूखी थी,उसने मेरे साथ भी  सामंजस्य बैठा लिया आप लोगो से प्यार की लालसा मे.
"तो अब क्या हुआ?"
"हद तो अब हुई है माँ!!"-जब बडे भैया ने---घर के चिराग का वास्ता देकर----
"और भाभी आप??? --"
आप तो एक स्त्री थी,एक स्त्री दुसरी के साथ इस तरह--"
एक मिनट सुनो भैया!!  भाभी बोल पडी जब मैं माँ नही बन पा रही तो बाबुजी ने तुम्हारे भैया को ये सब करने को मजबूर किया  ये कहकर की घर की बात घर मे रहेगी और एक ही घर का खून भी.तब जबरन उनके कमरे मे ठेल दिया गया
हमने विरोध भी किया मगर--हम कमजोर थे शायद.धन्य है सुनंदा वो मजबूत निकली.
सुनंदा का हाथ थामे  सारी जंजीरे तोड रोहन भी  पिताजी के साथ घर की दहलीज लांघ गया

नयना(आरती)कानिटकर

शनिवार, 19 दिसंबर 2015

समरसता-लघु कथा के परिंदे-"बेटी का फ़र्ज"

सुधा  बिस्तर पर पड़े-पड़े सोच रही है  कल "सूमी" की भी फिस भरना है.भैया को क्या जवाब दूँ
"सुनो!!! अचानक सुधीर की आवाज़ से चौक गयी."
"कहो!!"
"क्या बात है कब से देख रहा हूँ सिर्फ़ करवटे बदल रही हो, चुप-चुप भी हो."
"कुछ नही"
"यू घुलते रहने से तो समस्या हल नहीं होगी ना,मैने सुबह फोन पर भैया से बातें करते सुन लिया था"
बाबूजी की लंबी बीमारी के चलते उन्हें जरुरत आन पड़ी होगी,कितनी उम्मीद से पहली बार उन्होने तुमसे सहायता माँगी है.वरना हरदम तो वे देते ही रहे है.
"जाओ बेटी होने का फर्ज अदा करो.कुछ रुपये लाकर रखे है मैने अलमारी मे."
भावविह्हल हो सुधा की आँखें भर आई.सुधीर ने कस कर सुधा का हाथ थाम लिया.

नयना(आरती)कानिटकर
१९/१२/२०१५

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

लोहे की जाली--- अवसाद लघुकथा के परिंदे

एक दुर्घटना मे अपनी युवा बेटी की मौत के बाद  सुलक्षणा का मानो सब कुछ लूट गया था.सदमे से वह अंधकार के गर्त मे समा सी गई थी.घर, परिवार, मित्र,समाज इन सबसे उसका कोई सरोकार नहीं बचा था.
 प्यारा सा होनहार बेटा भी  इस आग मे झुलसता जा रहा था.आखिर मैने अपने आप पर काबू पाया और सारे सूत्र अपने हाथ मे ले लिये.उसकी हर छोटी -बडी जरुरत का हिस्सा बन गया.हम साथ टीवी देखते,साथ खाते मगर सुलक्षणा ? ,वो रसोई की छोटी-मोटी ज़िम्मेदारी निभा कमरे मे कैद हो जाती.
   बेटा विवाह योग्य हो गया तो मैने ही अपने प्रयासों से रिश्ता ढूंढा.आज वो लोग आ रहे थे"अनुज" से मिलने अपनी बेटी संग.उसके दोस्त विभोर  ने सम्हाल ली सारी ज़िम्मेदारी आवभगत की.सुलक्षणा तैयार होकर आई मगर उसने कोई बात नहीं की. स्वास्थ्य ठीक ना होने का बहाना बना बात को  सम्हाल लिया.
      उनके जाने के बाद बिफ़र पडी सुलक्षणा.---
"आप लोगो ने इतना बडा प्लान मुझे बताए बीना कैसे तय कर लिया.आपको मेरी बेटी के जाने का कोई गम नही है."जानबूझकर आप लोग वही सब नाश्ते की चीज़े लाए जो मेरी बेटी को पसंद थी."
   "अपने आप से बाहर निकलो सुलक्षणा यू कब तक अपने चारों ओर लोहे की जाली बना कर रखोगी. हमारा बेटा भी झुलस रहा  है उसमे.वो उसकी भी बहन थी लेकिन उसके सामने अभी पूरी जिंदगी पडी है ,तुम्हारे इस व्यवहार से वो टूट जायेगा.तुम एक नही दो-दो जिंदगियों को गवा बैठोगी. शुक्र मनाओ तुम्हारे निर्लिप्त आचरण के बावजूद भी वो लोग अपनी लडकी हमारे घर देने को तैयार है."
  मेरे सहलाने से  सुलक्षणा सामान्य हुई.उठो नया वक्त तुम्हारा इंतजार कर रहा है.तभी--अनुज! बेटी निकिता संग दरवाज़े पर खड़ा था.
 .सारा अवसाद आँसू बन बह चुका था.सुलक्षणा ने दौड़ कर निकिता को बाहों मे भर लिया.
नयना(आरती)कानिटकर
१८/१२/२०१५

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असली मुखौटा

अनाथ आश्रम"सहेली" के नियमानुसार बालिग होते ही मुझे अब अपनी व्यवस्था बाहर देखनी थी मैने जूनियर कॉलेज तक की शिक्षा आश्रम मे रहते ही  पूरी कर ली थी.आश्रम के मैनेजर सज्जन सिंह से मुझे विमला देवी का पता थमा उनसे संपर्क करने को कहा था ।
डोरबेल बजाते ही एक उम्रदराज महिला ने दरवाज़ा खोला
"जी   मुझे  सज्जन सिंह जी ने आपके पास भेजा है मेरा नाम---"
मैं आगे कुछ कहती उसके पहले ही हाथ खिंचते हुए वो मुझे अंदर ले गयी थी । ये हे तुम्हारा कमरा और ज्यादा कुछ बोले बगैर दरवाज़ा बंद कर बाहर निकल गई थी । मुझे कुछ अजीब सा लगा उनका बर्ताव ।कुछ घबरा सी गई पर फिर आश्रम के कर्ताधर्ता सेठ हरिशचन्द्र जी को फोन लगाया 
"हलौ!! सेठ जी मैं सुहानी बोल रही हूँ.सज्जन सिंह जी ने मुझे विमला देवी का पता दिया था मगर यहाँ  कुछ---
मेरी बात पुरी होने से पहले ही सेठ जी बोल पडे--
"क्या इतने साल तोड़ी मुफ़्त की रोटी की किमत भी अदा नही करोगी."अब तुम्हें वही करना होगा जो मैं चाहूँगा "
सेठ  हरिशचन्द्र का असली  मुखौटा मेरे सामने आ चुका था ।
इतने सालो विपरीत  परिस्थितीयो से लड़ते हुए मैने भी कच्ची गोलियां नही खेली थी. वहा से भाग निकलने मे कामयाब हुई ।
आज समाचार पत्रो मे सेठ  हरिशचन्द्र का मुखौटा मुख्य पृष्ठ की खबर बन चुका है ।

नयना(आरती)कानिटकर

"माँ को रोटी"


मैने देखा है माँ को
आटा सानते परात में
दो पैरो के बीच  थामकर
और रोटी तो कडेले*१पर जाते हुए
तब मै बैठा होता था उसके सामने
अपनी किताबे फ़ैलाए हुए
सने हाथो से खिसकाती थी वो डिबरी*२

संग बातें करते
चुल्हे की लकडियो को भी
सारते रहती आगे-पिछे
कहती रहती "ताप" सहन करना,
आना चाहिये हमे
बिना आँच लगे कुछ हासिल ना होगा
चुल्के मे पडे अंगारो की रोशनी
कम-ज्यादा होती रहती उसके मुख पर
इतनी आँच मे भी उसकी
 रोटी कभी जली नहीं,हमेशा फूली
सौंधी-सौंधी खुशबू संग
पर अब बच्चो का ऐसा नसीब कहा
कैसे निभाती होगी आग का
कम-ज्यादा करना की रोटी जले ना
जीवन के उतार-चढाव को भी
फूली रोटी के दो समान हिस्सो के समान
थमती रही अलग-अलग
क्या? ये उतार-चढाव झेलना संभव है
झेलना हमारे लिए
माँ को रोटी बनाते देखना भी
बडे तक़दीर की बात है मेरे लिए

*१-कडॆला= मिट्टी का तवा
*२ डीबरी=चिमनी

-----मूळ कवी सतीश सोळंकुरकर
अनुवाद नयना(आरती)कानिटकर