मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

"लालबत्ती"

चौराहे पर लाल बत्ती का निशान देखते ही अपनी स्कुटी को ब्रेक लगया तभी पास ही एक एक्टिवा खचाक से आकर रुकी तो सहसा ध्यान उसकी तरफ़ मुड़ गया.उस पर सवार दोनो लड़कियों ने अपने आप को आपस मे कस के पकड़ रखा था .पिछे वाली के हाथ में जलती सिगरेट देख दंग रह गई मैं तो.
एक कश खुद लगा छल्ले आसमान मे उडा दिये और आगे हाथ बढा ड्रायविंग सीट पर बैठी लड़की के होंठो से लगा दिया .उसने भी जम के सुट्टा खींचा, तभी सिग्नल के हरे होते ही वे हवा से बातें करते फ़ुर्र्र्र्र हो गई.उन्हें देख मे जडवत हो गई थी, पिछे से आते हॉर्न की आवाज़ों से मेरी तंद्रा टूटी. पास से गुजरने वाला हर शख्स व्यंग्य से मुझे घुरते निकलता और कहते आगे बढ़ता कि गाड़ी चला नही सकती तो...
घर आते ही बेटी ने स्वागत किया एक कंधे से उतरती-झुलती टी-शर्ट और झब्बे सी पेंट के साथ.फ़िर तो...
"क्या बात है माँ आपका चेहरा इतना लाल क्यो हैं."
"चुप करो सुशी! पहले तुम अपने ये ओछे कपड़े बदल कर आओ"--मैने लगभग चिल्लाते हुए कहा और फ़िर पुरी राम कहानी उसके सामने उड़ेल दी."
"तो क्या हुआ माँ! ये सब तो अब आम बात है.अब लड़कियाँ भी कहा लड़कों से कम है."
"ओह! तुम्हें कैसे समझाऊ यही चिंता का विषय  हैं वह खुद अगर मार्यादित...?

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
१६/०२/२०१६

शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

“द्रोपदी” --लघुकथा के परिंदे-२री ह्रदय का रक्त

"उलझने"--- विषय आधारित
“द्रोपदी”
मन की कसक बढ़ती ही जा रही थी। अपनी पुत्रवधु को इस परिस्थिती में डालकर उन्हें क्या मिला होगा। संतानवति होने के लिए अपने पति इच्छा से खुद उन्होने भिन्न-भिन्न पुरूषो से...।
तो क्या अपने आप को लज्जित होने से बचाने के लिए और उनपर कोई कटाक्ष ना हो तो जानबूझकर पंचपति वरण की बात की होगी। वो भी तो एक स्त्री हैं फिर ऐसा निर्णय क्यों कर लिया होगा।
द्रोपदी का मन भी कितना टूक-टूक हो गया होगा। मन में उमड़ते भावों और झरते ह्रदय के रक्त से द्रोपदी ने कितना कुछ सहा होगा। अनंतकाल से संचित स्त्री की मनोवेदना का अंत...।
एक झटके में विचारों के तंतुओ कि डोर काट डाली।  क्यों उलझी हूं मैं...।

नयना(आरती)कानिटकर

सम्मान की- दृष्टि---लघुकथा के परिंदे--"रोशनी"

आभा अपने नियमित काम निपटा कर समाचार पत्र हाथ मे लेकर बैठी ही थी कि आयुष भुनभुनाते पैर पटकते घर मे घुसा.
"पता नहीं क्या समझते हे ये लोग अपने आप को विद्या के मंदिर को इन लोगो ने राजनीति का अखाडा बना लिया है. ना खुद पढेगे ना दुसरो को पढने देंगे. पता नही क्यो अपने माता-पिता का पैसा..."
"अरे! बस भी करो बताओ आखिर हुआ क्या है."
"माँ! समाचार पत्र तो है ना आपके हाथ मे..." देखो जरा आशीष पुरी तरह से तमतमाया हुआ था.
सुनो आशीष! सबसे पहले तो ये विदेशी झंडे की प्रिंट वाला टी-शर्ट उतारो . ब्रान्डेड के नाम पर तुम इन्हे अपने  छाती  से लगाए फ़िरते हो और..."
"मेरा जूता है... इंग्लिस्तानी ,सर पर लाल..., फिर भी दिल है हिंदुस्तानी"---  माँ.नाचते हुए आशीष ने कहा." वो तो ठिक है पर जब तक तुम अपने घर,देश को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखोगे तुम्हारी स्वतंत्रता के ..."
" बस करो माँ मेरे दिल और दिमाग से कोहरा पुरी तरह छट चुका है." विदेशी झंडे की  टी-शर्ट को बाहर का रास्ता दिखा दिया.
आभा ने घर का दरवाज़ा खोल दिया. सूरज की रोशनी छन-छन कर प्रवेश कर रही थी.
नयना(आरती)कनिटकर
भोपाल

एफ़ आइ.आर--लघुकथा के परिन्दे पहली प्रस्तुति

"विक्षिप्तता की झलक" विषय आधारित
१ली प्रस्तुति

“एफ.आई.आर”

स्वाति मेडम के प्रवेश करते ही इंस्पेक्टर आदित्य आश्चर्य से देखते हुए झटके से अपनी सीट से खड़े होकर कुर्सी आगे खिसकाते हुए बैठने का आग्रह करते हैं।
“अरे! सुनो मेडम के लिए एक ग्लास पानी लाना।” थाने में अचानक तेजी से हलचल हो उठती हैं।
“आप क्या लेंगी चाय या काफी…”
“सुनो! मेडम के लिए गर्मागर्म काफी लाना।”
“जी मेडम कैसे याद किया, आपने क्यो तकलीफ की। बंगले पर बुलवा लिया होता और साहब जी कैसे हैं? सचमुच साहब जी जैसा सुशील,सहयोगी इंसान हमने नहीं देखा। ना तो कभी किसी पर नाराज होते देखा ना अपशब्द बोलते। बडे आला दर्जे के शरीफ़ हैं हमारे साहब। क्या वे दौरे पर हैं?
“फालतू बाते छोडिए मुझे एक एफ.आई. आर. दर्ज करानी हैं “-- प्लीज जल्दी कीजिए।
“जी!बताईए” रजिस्टर और पेन उठाते इंसपेक्टर आदित्य ने कहा।
“मुझे  “....” के खिलाफ मानसिक प्रताड़ना और बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराना हैं।
थाने की हलचल कानाफूसी में बदल गई।

नयना(आरती)कानिटकर
०६/०२/२०१६
भोपाल

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

हायकू

 चाँद चाहता
धरणी से मिलाप
छाया कोहरा   (१)

तारे आतुर
उतरने धरा पर
छाया कोहरा(२)

बाँट जोहती
धरती सूरज की
छटे कोहरा(३)

सूरज आया
है धरा सम्मोहित
छटा कोहरा(४)

ऋतु बसंत
नाचे सुरताल में
हटा कोहरा(५)

मौलिक एंव अप्रकाशित

कोहरा -कुहासा (अतुकान्त)

 कोहरा -कुहासा (अतुकान्त)


मैं ढुंढती हूँ तुम्हें
टेबल पर, फाइलों में
किताबों से अटी
अलमारी के खानो में भी
कभी गाड़ी मे बैठे-बैठे
पास की सीट पर,तो कभी
बाजार मे हाथ मे लटकाए झोले संग
कभी-कभी तो
अमरुद की फाँक मे भी कि
खाएंगे संग
चटपटे मसाले के साथ और
झुमेंगे पेड़ो के झुरमुट मे,
पक्षियों के कलरव के बीच
फिर भिगेंगे प्यार की ओंस मे
छुपते-छुपाते नज़रों से और
धो डालेंगे रिश्तों पर छाया कोहरा
नदी किनारे के कुहांसे में,
एकसार होकर

"नयना"

मौलिक और अप्रकाशित

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

कोकिल कंठी

एक  बहुत साधारण  परिवार में उसका जन्म हुआ था पिता के कमाई मे बस सरकारी स्कूल मे साधारण शिक्षा और अन्य बहुत ही आवश्यकताओ को जुटाया जा सकता था. माँ अपनी क्षमता से अच्छा से अच्छा करती मगर...
उसका मन पढने में लगता मगर ... बहुत सुरीला कंठ पाया था रेडियो पर सुन-सुनकर ही गीत दोहराती रहती थी।  घर से कुछ दूरी पर ही संगीत विद्यालय था मगर वहाँ प्रवेश की हसरते लिये ही वक्त गुजर गया। समय के साथ ब्याह हो गया अच्छे सुखी परिवार में जब पहली आहट हुई माँ बनने की तो पुन: नई हसरते... ईश्वर से बस एक प्रार्थना करती कि मुझे एक बेटी देना बडी-बडी आँखो वाली और उसका कंठ सुरीला बिलकुल कोकिल कंठी हो फिर चाहे उसका रंग सावंला ही क्यो ना हो
अनेको रुकावटो के बावजूद उसने कोकिल कंठी बेटी को संगीत की शिक्षा दिलाई
बेटी के पहले शास्त्रीय  संगीत कार्यक्रम  मे  जाते वक्त पति ने रास्ता रोकना चाहा मगर..
प्रस्तुति देती  बेटी को देखते उसकी आँखो मे संतुष्टि के भाव उभर आयेकार्यक्रम समाप्ति पर आशिर्वाद देने पिता सबसे पहले मंच पर थे.
नयना(आरती)कानिटकर