असंख्य बिंदुओं से
फैलती
तुम्हारी वृत्ताकार परिधि
में
मैं मात्र एक
केन्द्र बिंदू
"नयना"
लेबल
- अनुवाद (7)
- कुछ पत्र (2)
- कुछ मन का (12)
- मराठी कविता (3)
- मेरा परिचय (1)
- मेरी कविता (65)
- मेरी पसन्द की कविता (1)
- लघु कथा (84)
- लघुकथा (17)
रविवार, 26 जुलाई 2020
*अकर्मण्यहीन*
हल्के में लेती
रहती हैं, वो अपनी
हारी-बिमारी को
It's ok यार
उम्र का तकाजा है
डरती है
बिस्तर पर देख उसे
कि कही
रोटी का साथ भी ना
छूठ जाए और
वो
बस तकता रहता हैं
भावना शून्य होकर
इंतजार में कि
शायद
कल दिखे बिस्तर सिमटा
थाली भोजन से भरी
"नयना"
19/07/2020
गुरुवार, 7 मई 2020
मेरा परिचय-:-
नयना(आरती) कानिटकर
शिक्षा:- एम.एस.सी, एल.एल.बी
संप्रति:- पति के चार्टड अकाउँटंट फ़र्म मे पूर्ण कालावधी सहयोग
लघुकथा ,कविता , लेख आदि विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित। पड़ाव और पड़ताल के "नयी सदी की धमक में लघुकथा "लालबत्ती " प्रकाशित .अनेक लघुकथा सग्रहो में साझा प्रकाशन .
nayana.kanitkar@gmail.com
रविवार, 3 मई 2020
#लेखणी
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फक्त एक दिवस तुझी लेखणी होता आलं असंत तर ?
मिरवलं असंत तुझ्या शब्दांचं मुकूट माझ्या ललाटावर।
मिरवलं असंत तुझ्या शब्दांचं मुकूट माझ्या ललाटावर।
जगले असते तुझ्या शब्दांची सखी होऊन
आणि मग माझा क्षण अन् क्षण पुलकित झाला असता।
आणि मग माझा क्षण अन् क्षण पुलकित झाला असता।
मी ही एकरूप झाले असते तुझ्या को-या
मनाशी
कळले असते मलाही तुझ्या शब्दांच्या मनातील हळवे कोपरे
मनाशी
कळले असते मलाही तुझ्या शब्दांच्या मनातील हळवे कोपरे
कधीतरी या हळव्या कोप-यामुळे लेखणीतली शाई संपली तर..
तर, त्यात प्रेमाने शाई भर तुझ्या मनातल्या माझ्यासाठी उचंबळणा-या हजारो रंगाची.
मग त्या रंगातून एक अवखळ गीत उमलेल.
मग त्या रंगातून एक अवखळ गीत उमलेल.
हे गीत धुंद जीवांना आरोहातून गगणा भेटून
अवरोहात उंच झोका देईल.
अवरोहात उंच झोका देईल.
हो पण कधी लेखणी मात्र हरवू नकोस, नाहीतर शब्द कायमचे गोठतील ....आपल्या श्वासापरी
©वर्षा
#कलम
गर मात्र एक दिन हो पाती तुम्हारी कलम
धर लेती तुम्हारे शब्दों का मुकुट मस्तक पर
जी उठती मैं तुम्हारे शब्दों की सखी बन
और तब मेरा क्षण परम आनंद से भर जाता
मैं भी एक रुप हो जाती तुम्हारे कोरे(सपाट)
मन से
मैं भी जान पाती तुम्हारे शब्दों के मन की गहराई
कभी खत्म हो जाये तुम्हारे कलम की स्याही
तब, भरना उसमें प्रेम की स्याही मेरे मन में उठने वाले हजारो रंगो की
फिर उस रंग से एक गीत फुलेगा
ये गीत जीवन को आरोह में आकाश से मिल
अवरोह मे ऊँचे उठेंगे
पर हा! अपनी कलम कभी मत खोना, वरना शब्द हमेशा के लिए स्थिर हो जाएँगे----
हमारे सांसो की तरह
मूल कविता:--वर्षा थोटे
अनुवाद/भावानुवाद:- नयना(आरती)कानिटकर
#कलम
गर मात्र एक दिन हो पाती तुम्हारी कलम
धर लेती तुम्हारे शब्दों का मुकुट मस्तक पर
जी उठती मैं तुम्हारे शब्दों की सखी बन
और तब मेरा क्षण परम आनंद से भर जाता
मैं भी एक रुप हो जाती तुम्हारे कोरे(सपाट)
मन से
मैं भी जान पाती तुम्हारे शब्दों के मन की गहराई
कभी खत्म हो जाये तुम्हारे कलम की स्याही
तब, भरना उसमें प्रेम की स्याही मेरे मन में उठने वाले हजारो रंगो की
फिर उस रंग से एक गीत फुलेगा
ये गीत जीवन को आरोह में आकाश से मिल
अवरोह मे ऊँचे उठेंगे
पर हा! अपनी कलम कभी मत खोना, वरना शब्द हमेशा के लिए स्थिर हो जाएँगे----
हमारे सांसो की तरह
मूल कविता:--वर्षा थोटे
अनुवाद/भावानुवाद:- नयना(आरती)कानिटकर
शुक्रवार, 13 मार्च 2020
गुजरा बचपन
गुजरा बचपन
एक खुशनुमा सी सुबह
ठंडी हवा के झोंके संग
याद दिला गई
उस आँगन की
गाँव के गलियों की , जहाँ
गुजरा था बचपन
वो घर की दिवारें , वे आले
जिनमें शाम को जलती थी
घासलेट की डिबरी
वो घर की बगियाँ उनमें ,
गिलहरीयों का शोर
पतझड में झरे पत्तों की सरसराहट
संग नये नये कोपलों की खूशबू
पीपल के पेड से टंगा वह झूला
जिस पर डौलते वक्त की
वो डर भरी खिलखिलाहट
जो समय के धूल भरे ओसारे में
कही छूट गये हैं
इस दूर देश में आकर
किताबें भी नहीं दे पाई वो सीख
कि तुम्हें भूल जाऊँ
फिर में चाहे ओट दू
सारे घर के किवाड
पर यादों की खिडकियाँ
उनका क्या
वो तो खुलनी ही चाहिए ना
हैं ना 😊
©नयना(आरती)कानिटकर
१३/०३/२०२०
एक खुशनुमा सी सुबह
ठंडी हवा के झोंके संग
याद दिला गई
उस आँगन की
गाँव के गलियों की , जहाँ
गुजरा था बचपन
वो घर की दिवारें , वे आले
जिनमें शाम को जलती थी
घासलेट की डिबरी
वो घर की बगियाँ उनमें ,
गिलहरीयों का शोर
पतझड में झरे पत्तों की सरसराहट
संग नये नये कोपलों की खूशबू
पीपल के पेड से टंगा वह झूला
जिस पर डौलते वक्त की
वो डर भरी खिलखिलाहट
जो समय के धूल भरे ओसारे में
कही छूट गये हैं
इस दूर देश में आकर
किताबें भी नहीं दे पाई वो सीख
कि तुम्हें भूल जाऊँ
फिर में चाहे ओट दू
सारे घर के किवाड
पर यादों की खिडकियाँ
उनका क्या
वो तो खुलनी ही चाहिए ना
हैं ना 😊
©नयना(आरती)कानिटकर
१३/०३/२०२०
बुधवार, 19 जून 2019
#मैं_और_मेरा_मन
पहन रखा हैं
मैने गले में, एक
गुलाबी चमक युक्त
बडा सा मोती
जिसकी आभा से दमकता हैं
मेरा मुखमंडल
मैं भी घूमती हूँ ईतराती हुई
उसके नभमंडल में
किंतु नहीं जानती थी
समय के साथ होगा
बदलाव उसमें भी
धूप, बादल, बारिश
आंधी के थपेड़ो को झेलते
बदलेगा उसका तेज
बुरी, काली,झपटने को आतुर
लोंगो की नज़रों से
बदलेगा उसका वैभव
अब तक उसे हथेली की
अंजुरी में रख निहारने वाली मैं
निस्तब्ध हूँ
कोशिश में लगी हूँ कि
अब ढक लू उसे हथेलियों से कि
ना पड़े ऐसी कोई दृष्टि
जो खत्म कर दे
उसकी भव्यता
और तब गले में लटका वह मोती
पिरो लेती हूँ एक
लंबे से धागे में लटकाते हुए
जो अब रहेगा मेरे
सीने में बिल्कुल
हृदय के निकट स्पर्श करता हुआ
©नयना(आरती)कानिटकर
१९/०६/२०१९
पहन रखा हैं
मैने गले में, एक
गुलाबी चमक युक्त
बडा सा मोती
जिसकी आभा से दमकता हैं
मेरा मुखमंडल
मैं भी घूमती हूँ ईतराती हुई
उसके नभमंडल में
किंतु नहीं जानती थी
समय के साथ होगा
बदलाव उसमें भी
धूप, बादल, बारिश
आंधी के थपेड़ो को झेलते
बदलेगा उसका तेज
बुरी, काली,झपटने को आतुर
लोंगो की नज़रों से
बदलेगा उसका वैभव
अब तक उसे हथेली की
अंजुरी में रख निहारने वाली मैं
निस्तब्ध हूँ
कोशिश में लगी हूँ कि
अब ढक लू उसे हथेलियों से कि
ना पड़े ऐसी कोई दृष्टि
जो खत्म कर दे
उसकी भव्यता
और तब गले में लटका वह मोती
पिरो लेती हूँ एक
लंबे से धागे में लटकाते हुए
जो अब रहेगा मेरे
सीने में बिल्कुल
हृदय के निकट स्पर्श करता हुआ
©नयना(आरती)कानिटकर
१९/०६/२०१९
सोमवार, 26 नवंबर 2018
भावनाओं का खेल
भावनाओं का खेल
बह गये हैं ,आजकल
शब्दों के आकार
नदी के प्रवाह में मिलने वाले,
चिकने पत्थरों के समान
जो बस लूढकते रहते हैं
यहाँ-वहाँ
शब्दों के बहाव के संग
और
फिर प्रवाह की धार कम होते ही
भावनाएँ होने लगती हैं
कुंद
"नयना"
बह गये हैं ,आजकल
शब्दों के आकार
नदी के प्रवाह में मिलने वाले,
चिकने पत्थरों के समान
जो बस लूढकते रहते हैं
यहाँ-वहाँ
शब्दों के बहाव के संग
और
फिर प्रवाह की धार कम होते ही
भावनाएँ होने लगती हैं
कुंद
"नयना"
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