मंगलवार, 28 अगस्त 2012

बैलेंस शीट

वैवाहिक जीवन के २६ सालो की,
जब लिखने बैठी बैलेंस शीट
याद आ रही कैसे रचाई ईंट पे ईंट
कभी सिमेंट का जोड मजबूततो
कभी पानी कि कमी सताई
पर सब चिजों को अनदेखा कर
रिश्तों की मजबूत नींव बनाई

.जीवन की इस बैलेंस शीट मे
देयता और संपत्ति बाँए दाँए----(liability-asset)
साथ-साथ मे चलते रहे हैआय-व्यय के भी साँए---(income-expenditure)
स्थायी संपत्ति के कालम में
जब खुद के घर ने जगह बनाई
आवासिय ऋण के कालम ने
देयता के कालम मे सेंध लगाई

बच्चो की उत्तम शिक्षा का खर्च
जनरल एक्सपेंसेस को हुआ डेबिट
बुद्धि का सारा श्रेय पतिदेव के खाते क्रेडिट
घर कि मेरी मेहनत सेलरी को हुई डेबिट
interest income का मुझे मिला क्रेडिट
बच्चे मेरी बैलेंस शीट के बडे गुड-विल
अब इस घर कि नींव नही सकती हिल

रिश्तें मे अपनत्व और प्यार का
बैंक बेलेन्स रहा  बडा मजबुत
दोनो परिवारो के संबंधो ने साथ मे
प्यार का कैश इन हैंड किया सुदृढ
रिश्तें मे मरम्म्त रख-रखाव का चलता रहा खेल
इसी तरह इस जीवन कि चल रही हे रेल

बुधवार, 15 अगस्त 2012

मेरा देश


ये कैसा आघात हुआ है
देश के साथ घात हुआ है
युवा देश का सो चुका है
नियत,हिम्मत खो चुका है

सालो से देश कहने को स्वतंत्र
आज नेताओ के हाथ परतंत्र है
ॠषि मुनी की तपोभूमी में
मिलावट के फूल है
भ्रष्टाचार की चहू और दलदल
महंगाई की फैली धूल है

बुनीयादी ढाँचा ध्वस्त हुआ है
आदमी आदमी से त्रस्त हुआ है
शिक्षा का स्तर गिरा हुआ है
पापी पेट के लिये समझलो
गुरु देश का बिका हुआ है
नेताओ ने हाथ साफ किया है
देश को यु बरबाद किया है

६५ वर्ष की उम्र में माँ को
गहरा ह्रदयाघात हुआ है
न्यायिक सेवा की धमनी मे
रक्त बहाव कम हुआ है
प्रशासन की धमनी मे
भ्रष्टाचार है भरा हुआ
रक्त संचार का मार्ग ह्रदय तक
पूर्ण रुप से है रुका हुआ
लेकिन अब
हमें भी कुछ करना होगा
अपने खातिर उठना होगा
भंगूर होते देश के खातिर
फिर एक जुट हो लडना होगा
धून सी लगती भ्रष्टाचरी
कब तक सहें ये मक्कारी
फिर अब खून उबलना होगा
देश कि खातिर लडना होगा

सर्वाधिकार सुरक्षित-----मौलिक रचना

मंगलवार, 7 अगस्त 2012


संरक्षित खाद्द्य पदार्थ भाग-2
              
संरक्षित खाद्द्य पदार्थ भाग-1 मे मैने अचार मुरब्बे के बारे मे लिखा था.आज दो  अहम संरक्षित खाद्द्य पदार्थ इस सूची मे जुड रहे  है वे दो अन्य खाद्द्य पदार्थ है-बडी-पापड.
          आज बहूत तेज वर्षा का क्रम जारी है ऐसे मे घर से बाहर सब्जी खरीदने निकलना तो दूर बडा कठीन भी है.साथ ही साथ पानी कि वजह से सडी-गली सब्जी खरीदने के स्थान पर कोई अन्य उपाय निकालना बेहतर समझा . अपनी माँ के साथ ग्रिष्म ऋतु मे बनाई बडी कि याद हो आई.बचपन से मेरे घर मे बडी बनाने कि एक प्रथा सी है और मै भी उसकी उपयोगिता समझकर व्यसतता के बीच भी बडी तन्मयता से अपनी बेटी के साथ उस प्रथा को निभाने का भरसक प्रयत्न करती हूँ.
           मूंग दाल,चना दाल,उडद दाल के साथ बनाई जाने वाली बडी अनेको प्रकार से बनाई जाती है.कोई सभी दालो को मिलाकर ,तो कोई अलग-अलग दालो मे कुछ सब्जियाँ आदी मिलाकर बनाते है तो कुछ केवल दालो के साथ.
         घर मे बचपन से मूंग एवं चना दाल कि बडी बनाई जाती है दाल को रातभर भिगो कर रखा जाता है. सुबह उसका पानी निथार कर पत्थर पे थोडा दरदरा पिसा जाता है बिल्कुल नाम मात्र के पानी के साथ पिसते वक्त उसमे अदरक ,जीरा ,मिर्च आदी मसाले मिलाये जाते है.पिसी दाल का घनापन इतना हो कि वह फैले नही. मेरी माँ बडी रचनात्मक एंव कलात्मक प्रवृती कि है जब हम बचपन मे बडी बनाते तो वे हम दोनो  बहनो के बीच एक प्रतियोगीता रख देती कि कौन आकार मे एक जैसी और उसके डालते वक्त सुंदर डिज़ाइन कि रचना करता है और हम दोनो बहने खेल-खेल मे बहूत सारी बडी चुटकी मे बना देते थे.
        आज मैने इन्ही बडी का उपयोग सब्जी बनाने किया .आलू तो सभी सब्जियों का सखा है.टमाटर कि ग्रेवी के साथ हरिमिर्च और धनिया पत्ती इसके स्वाद को दोगुना कर देती है.इस शुद्ध शाकाहारी सब्जी के आगे अनेको नामांकित सब्जीयाँ फिकी पड जाती है.साथ मे भूना पापड और गर्म-गर्म रोटियाँ वाह!!!! बारिश का आनंद दोगुना हो जाता है.
    उडद और चने की दाल के आटे से बने पापड के भी क्या कहने.वो तो किसी भी ॠतु मे कभी भी ,समारोह मे भी अपनी आमद दर्ज करता है.बचपन मे आस-पडौस कि चाची-मौसी के साथ इन्हे बनाने का अपना अलग मजा था.ये आस-पडौसी का मिलन समारोह भी हुआ करता था.उम्र मे छोटी हम बहने कडक गूंथे आटे से छोटे-छोटे पापड बनाती ,फिर माँ ,चाची मौसी उन्हे बडा आकार देती .हम बच्चे उन्हे सुखाने मे मदद करते.
     ऐसे अनेको संरक्षित खाद्द्य पदार्थ है जो गाहे- बगाहे ,परेशानियो मे हमारी मदद करते है हमारी रसोईमे.

शनिवार, 28 जुलाई 2012

 कुछ हायकू आज के मौसम पर-----
(1)नीले नभ में
    हे घटा घिर आयी
    मेह बरसे

(2)बरसे मेघ
   बूंद बनके गिरे
    धरा मुस्काई

(3)घुली फ़िजा में
    हल्कि सी ठंडक
    आत्मविभोर

(४) कागज की नैया
      बचपन की याद
      छप-छपाक

(५) मस्त मौसम
     झमाझम बारीश
     मिर्च पकौडे

बुधवार, 25 जुलाई 2012

मंद-मंद हवा का एक झोंका
अचानक आकर यू छू गया
दिल को मेरे बस बहला गया
यूं हौले से छू कर मन को
चुपके से कान में कह गया
जो आज है,वह कल नही होगा
वक्त हाथ से छुटने का गम नही होगा
पूरे कर अपने सपने निर्भयता से
वे आँसू कि बूँद बनकर ना रिसे
झोंके ने दिल का द्वार खडका दिया
एक खूबसूरत स्वप्न उभार दिया
बुरा वक्त भी बना सुंदर
संबल बढा दिल के अंदर
अब डर नही कुछ खोने का
बस विचारवंत कंचन होने का
अब सिर्फ
हुकूमत खुद पे करना होगी
सल्तनत दूनिया की मुठ्ठी में होगी

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

संरक्षित खाद्द्य पदार्थ भाग-१

 रविवार का दिन था कुछ छुट्टी का महौल ,हफ़्ते भर कि भागदौड- व्यस्तता के बाद आराम करने कि इच्छा लेकिन अचानक रसोई मे प्रवेश करते ही सामने रखा कच्चे आम का(कैरी) का ढेर देखकर मन उत्साह से भर जाता है और अचानक दादी की याद आने लगती है.मन ३०-३५ साल पिछे चला जाता है.जब जुन-जुलाई के माह में वर्षा कि एक बौछार के बाद दादी की तैयारी प्रारंभ हो जाती थी आम के अचार एवं मुरब्बे के लिये.उस वक्त अचार का मसाला रेडिमेड नही मिलता था.रविवार के दिन हमारा पुरा परिवार अचार बनाने के काम मे जुटता था मेरे छोटे बहन-भाई को कैरी धोकर पौंछने का काम करना होता था.कैरी को काटने मे ताकत लगती सो वह काम पिताजी किया करते.चूँकि तब सारे मसाले घर मे ही तैयार होते सो माँ और दादी मिलकर हल्दि,नमक कूटते, सौंफ़-मेथी साफ करते,मेरा काम होता था राई कि दाल बनाना.राई कि दाल बनाना बडे कौशल का काम था लेकिन माँ-दादी कि सख्त हिदायत कि ये काम मुझे सिखना हि है.राई कि दाल सिल-बट्टे पर तैयार करना होती.राई को सिल (बडा-आयताकार खुरदुरा पत्थर) रखकर बट्टे से हलके हाथों से गोल-गोल घुमाते हुऎ दो भागों मे पाटना होता था राई का छिलका भी निकले और वो बारिक भी ना टुटे एकदम मस्त दो पाटो मे बँटी दाल से अचार कि शोभा अलग ही होती है.फिर सूपे से उसे फटकारना भी दादी ने सिखाया क्योकि राई कि दाल और छिलका दोनों हल्के ,छिलका उडे एवं दाल सूपे मे बची रहे. माँ-दादी के मार्गदर्शन में अचार का मसाला तैयार होता लेकिन सभी के दिल (मन लगाकर किया काम) और प्यार के नमक कि एक चुटकी उसमे डलि होती.तैयार मसाले मे कैरी के टुकडो को डालने के बाद बारी आती तेल कि जिसे गरम करते वक्त उसमें हिंग डाला जाता उसकि खुश्बू से सारा घर यहाँ तक कि पडौस भी महक उठता था.उस आम के अचार मे अडौसी-पडौसी कि भी हिस्सेदारी होती थी.शाम को कटोरियो मे अचार भरकर लेन -देन होता,प्यार आपस मे बटँता था.अब कब घर मे अचार बनता है या रेडिमेड आता है पता नही.
                      फिर शाम को नये अचार के साथ (एक पैन केक) थालीपीठ-- जो बहूत सारे अनाज को धोकर-भूनकर बने आटे से बनाया जाता था.उसके स्वाद से आज के पिज्जा का कोई मुकाबला नहि और अगर शाम को बारिश हो रहि हो तो सोने मे सुहगा.बडे मस्त दिन थे.
                   साथ ही मुरब्बा भी साल भर के लिये तैयार किया जाता था.दोपहर मे ३-४ बजे भुख लगने पर थोडा मुरब्बा और रोटी मिलती थी.आज कि तरह पेस्ट्री-पेटीस तब नही थे ना.हालाँकि पेस्ट्री-पेटीस का अपना अलग स्वाद है बस सिर्फ वो घर मे थालीपीठ के समान फ़टाफट तैयार नहि हो सकता. थालीपीठ बहु अनाजी होने से सेहत के लिये भी ज्यादा ठीक है .हाँ संतृप्त वसा उसमे भी है किन्तु पेस्ट्री-पेटीस से कम.
                अचार-मुरब्बे के अलावा बहुत सारे संरक्षित खाद्य पदार्थ है हिन्दुस्तान में उनके बारे मे आगे फिर कभी लिखूँगी--------निरन्तर

मंगलवार, 12 जून 2012

वर्षा ऋतु

हे सर्व शक्तिमान !!
मुझमे इतनी शक्ति भर दो---
कि जब भरू बरसात का जल
अपनी अंजूली मे और
लगाऊँ उसे अपने लबो पर
मन की प्यास बुझाने के लिये
तो उसकी
एक बूँदभी ना रिसे
ना व्यर्थ जाये
वो बूँद हौले से धरती कि गोद मे समाएँ
नदी बन नाचे, गाऎ इठलाए
चरो और हरियली का आँचल फैलाये
बुझे धरती कि तृष्णा
नाचे उसका का मन मयूर
जैसे राधा संग श्रीकृष्णा