मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

संस्कार

नाट्य विद्यालय मे दोनो ने एक साथ प्रवेश लिया था.संवेदनशील अराधना के मन मे  बुद्धिमान अमर का एक अलग ही स्थान था.संवेदनशीलता और   बुद्धिमानी के मिलन से नाट्य विद्यालय मे नाटकों के   नये-नये आयाम रचना उनका शग़ल बन गया.
  एक रात एक नाटक के मंचन के लिये दोनो के बीच विचार-विमर्श चल रहा था.अराधना फाइनल ड्राफ़्ट की तैयार कर रही थी.रात बहुत गहरा चुकी थी.
अराधना के लिये अमर के मन मे जो कुछ था दिमाग से दिल पर हावी होने लगा.मन की तंरगे उठी  और उसने अराधना को खींचकर सिने से लगा लिया.
"पास आओ अराधना आज मे तुम्हें जी भर देखना चाहता हूँ."
तभी सुरुर भरा अहसास होश पर हावी हुआ और
"तडाक!!!! तडाक!!! तडाक!!!! ------ ये क्या है?
"मेरी संस्‍कार की दीवारें इतनी कच्‍ची नहीं हैं अमर।"

सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

पश्चाताप की ज्वाला

 माँ ने मेरा विवाह अपनी सहेली सुधा की बेटी "शारदा" से करा दिया था। वो  उसे बहुत चाहती थी।
साधारण नैन-नक्श ,यथोचित शिक्षण प्राप्त  शारदा अत्यंत सरल स्वभाव की थी.गाँव के ही आंगनबाडी में सहायिका के पद पर कार्य करती थी।
मैं हमेशा से सुंदर पत्नी की चाहर रखता था, लेकिन हर बार माँ मेरी बात गलत ठहरा मुझे समझाइश देती रहती थी। "बेटा व्यक्ति को उसके रुप से नही गुण से पहचानना चाहिए।"  लेकिन मैं कभी उनकी बात को महत्व ना देता।
मैं हरदम शारदा के रुप-गुण पर कटाक्ष करता रहता था। वो आखिर कब तक मेरे बाणो को सहती। उसने चुप्पी ओढ ली थी।  केवल आवश्यक संवाद था हमारे बीच,किंतु माँ से पुरी तरह जुड़ीं रही.
लेकिन इस बीच मेरी हवस के चलते प्रकृति और नियती अपनी लीला रचा चुकी थी। शारदा माँ बनने वाली थी।
       एक दिन मैने अचानक घोषणा कर दी  की माँ "मैं अपनी सहपाठी रुप सुंदरी प्रियंका के साथ विवाह रचाना चाहता हूँ।
"शारदा!! यह रहा तलाकनामा उसकी ओर  फेक कहा!! इस पर हस्ताक्षर कर दो."
      माँ ने बहुत आपत्ति उठाई कि शारदा माँ बनने ----- हार कर अंत मे घर छोड़ने का आदेश सुना दिया.
शारदा ने बीना कोई सवाल उठाए चुपचाप हस्ताक्षर कर दिए.सहमति से तलाक की कार्यवाही भी जल्द हो गई.
मैं स्वछंद हो गया,
जल्द प्रियंका से विवाह रचा उसके साथ दूसरे घर रहने लगा।
मन से टूटी शारदा शरीर से भी टूट गई। मुन्ने को जन्म दे वो हमेशा के लिये माँ का साथ छोड़ गई।
माँ भी बूढ़ी हो चुकी थी,मुन्ने को सम्हालना बस का ना था। हार कर  उन्होने हमे पुन:घर मे जगह दे दी।
   घर मे जगह मिलते ही प्रियंका ने एक-एक कर सारी डोर अपने हाथ थाम ली। घर,संपत्ति,खेत के कागज़ों पर हस्ताक्षर करवा अपने नाम कर लिया। उसके सिर्फ़ उसके रुप मे उलझा  कुछ ना समझ पाया।
    अंत मे एक दिन मुझे माँ और मुन्ने सहित घर के बाहर कर दिया।
 मैं माँ के चरणों मे गिर क्षमा मांगने लगा ।
"माँ!!!! काश मैने रुप की जगह शारदा के अंतर मन को समझा होता।"
आज मैं अपने किये कर्मो पर पश्चाताप की" ज्वाला " मे जल रहा हूँ.

  

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

"हौसला"


किसना के संग ब्याह कर जब भानपुर आई तो मैने कोई ज्यादा सपने नही देखे थे। वैसे भी खेतीहर मज़दूर की बेटी दो जून रोटी और दो जोड़ी कपड़े से ज्यादा क्या सोचती। मैं भी किसना के साथ खेतो मे जी - तोड़ मेहनत करती, लेकिन इन्द्र देवता की नाराज़गी के चलते हम ज्यादा काश्त ना निकाल पाते | और साहुकार का कर्ज चढ़ गया सो अलग।
थक हार कर किसना ने माई - बाबू को मना लिया मुंबई जा कर मजदूरी के लिए। मैं भी आ गई थी उसके संग। सारा-सारा दिन ईट-सिमेंट ढोते-ढोते थके हुए दो कौर हलक में उतार बस फ़ुटपाथ पर ही सो जाते हर रात !
अधिक मेहनत से जब किसना की तबियत गडबडाने लगी तो हम वापस गाँव लौट आए। दवा-दारु मे बैल भी चुक गए।
गाँव आते ही साहुकार भी रोज चक्कर काटने लगा वसूली के लिये। पैसा ना देने पर मुझे उठाने की बात ...
 अब तो सुबह रोटी खाओ तो शाम के निवाले की मुश्किल हम पर साया बन कर पीछा कर रही थी - भला कहाँ से कर्ज चूकते ?
 
इस वर्ष एक काश्त निकलने तक तो इंतजार .... पर साहुकार के कानों जू ना रेंगती !!
तभी एक दिन भोर होते ही अचानक हरिया चिल्लाते हुए आया "... भौजी .. भौजी ... किसना ने खेत में आम के पेड पर ...." .. मेरा किसना लड़ाई हार गया था .. अब मैं किसे बताऊँ कि ..?

     
तीन दिन का सोग (शोक) मनाने के बाद मैने हिम्मत बटोरी और माई से कहा - " .. माई बैल के लिए हमे किसी के आगे हाथ नही फैलाना है, चलो .. हम खुद खेत जोत लेगे, अब तो बुआई के दिन भी नज़दीक है " मेरे कोख मे भी एक बीज ... आँगन में एक पौधा जन्म ले रहा था ... उस दिन मैने फ़ैसला किया मैं हार नही मानूँगी .. मै लडूंगी नियती से .. आख़िरी दम तक ।

सोमवार, 19 अक्तूबर 2015


तुमने कहा !!माँ नई माला चाहिए
मैने दे दी मुट्ठी भर मोतियो से गुथी
तुमने कहा !! माँ ओढनी दे दो
मैने दे दी रंग-बिरंगी.
तुमने कहा!! मुझे छाँव चाहिये
मैने अपने आँचल मे ढक लिया
तुमने कहा!! मैं उड़ना चाहती हूँ
मैने सारा आकाश फैला दिया
तुम बडी खुश थी,तुम चाहती रही
मैं हमेशा देती रही.
अब तुम उन्मुक्त को उन्माद ना होने देना
तुम स्वतंत्र हो,पर स्वच्छंद ना होना
तुम श्रेष्ठ हो , सुंदर हो पर क्षणभंगुरता जानती हो
अब तुम बडी हो गयी हो

नयना (आरती) कानिटकर
२०/०१०/२०१४


सच्चा व्रत

साप्ताहिक शीर्षक आधारित लघु कथा
---सच्चा व्रत---

कमला आज काम आयी भी तो बडी अनमनी सी थी। साथ मे बेटी को भी लाई थ।
हमेशा चकर-चकर करने वाली वो और उसकी बेटी आज चुपचाप काम निपटा रही थी.
"क्या हुआ कमला।"
"कुछ ना।"
"अरे!!! तो आज तू इतनी चुप कैसे।."
अचानक सिसकियाँ उभरी वातावरण में।
"हुआ क्या ये तो बता"
"फूली ने मुझसे स्कूल फ़िस के पैसे माँगे,मैने उसे इंकार किया कि अगले हफ़्ते दे दूँगी।"
"अभी नवरात्रि के व्रत चल रहे है,तो मैने कुछ पैसे जोड रखे थे ,कन्याभोज के लिये।"
  "लेकिन वो मुआ मुझसे पैसे छिन शराब पी आया और फिर वही तमाशा.......।"
"अब मैने सोच लिया बाई जी बहुत हो गया ये व्रत और कन्याभोज।"
"अपनी फूली को पढा  मैं उसे अपने पैरो पर खड़ा करूँगीं।"
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शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

व्रत

 ज्योत्सना -अपनी बचपन की सहेली को अचानक सामने पाकर--
 "अरे!! निशा तुम यहाँ कैसे?"
"ओह जोतू!! तू उउउ -- खुशी के मारे चिल्ला पड़ती है।
 "निशा! चल देख वो सामने ही घर है मेरा . घर चल के बात करेंगे.हाथ खिचते ज्योत्सना उसे घर ले आयी।
 "अरे जोतू!! पहले ये बता तेरे बेटा-बेटी कैसे है।
"चल!! तुझे अपनी बेटी से मिलवती हूँ---वो घर मे ही एक प्रशिक्षण वर्ग चलाती है.
" वो देख!! -ये जो सफ़ेद परिधान मे जो तलवार बाजी सिखा रही है ना वो मेरी बेटी "ज्योतिका"।
"ओह!!"
"असल मे गाँव मे हुए एक आतंकवादी हमले मे अपने भाई,संबंधियों,परिचितों को खोने के बाद,इसने अपने व आस पडौस के गाँवों की स्त्रीयो  को आत्मरक्षा के गुर सिखाने का बिडा उठाया है।"
               "अब यही इसका व्रत है।"

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

तीसरी पीढ़ी

गहन चिकित्सा कक्ष के बाहर बैठे अनुपमा के आँखो के आगे विगत काल चलचित्र सा चल रहा था।
आदित्य २ वर्ष पूर्व ही सेना से अवकाश प्राप्त कर हैद्राबाद मे  बस गये थे।
अनुपमा ने बी.एस.एफ.मे पदस्थ अपने  बेटे मंगेश का विवाह उससे प्रेम करने वाली मधुरा के साथ बडी धुमधाम से किया था। यथा नाम तथा स्वभाव वाली मधुरा जल्दी ही घर मे घुलमिल गई।
हनिमून से लौटकर मंगेश-मधुरा मद्रास जहाँ सामुद्रिक सीमा पर मंगेश तैनात था ,लौट गये थे।
जिन्दगी हँसी-खुशी मे बितते हुए  ना जाने कब ३ साल गुजर गये,कि एक  दिन अचानक बदहवास सी अवस्था मे  मधुरा का फोन आया था। मंगेश के लापता होने की खबर के साथ।
वे भी आनन-फानन मे मद्रास पहुँच गये थे।
   एक माह के अथक प्रयास के बाद भी मंगेश के जीवन की  नाउम्मीदि की खबर उसकी कुछ चिजें लौटाकर सेना ने घटनाक्रम की इतिश्री कर ली थी।
   बुझे दुखी  मन से मधुरा के साथ वे लौट आए थे.मधुरा भी अभी सदमे से उबरी नही थी.की---
आज अचानक गश खाकर गिर पडी.जल्दी-जल्दी वे उसे अस्पताल ले आई।.अन्दर चिकित्सक उसका परिक्षण कर रहे थे।तभी---
   "बधाई हो अनुपमा जी आप दादी बनने वाली है।."   वे एकदम वर्तमान मे लौट आयी।
देश सेवा के लिये  तीसरी पीढ़ी के रुप मे एक नव-जीवन पुन: अंकुरित हो पल्लवित हो रहा है।