शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

"नीला आकाश"

सुन्दर वस्तुओ के प्रदर्शनी के एक स्टॉल पर एक हिरे-मोती का व्यापारी और एक सोने का व्यापारी आ पहुँचते है। दोनो भिन्न-भिन्न चीज़े देखते तभी उनकी नजर एक कोने मे पिंजरे मे रखी सफ़ेद मैना पर जाती है,दोनो का मन मोह उठता है उसपर।
" भाई तुम बाकी चीज़े तो रहने दो मुझे ये सफ़ेद मैना बेच दो मैं इसे रोज मोती के दाने चूगाऊँगा।"
"तुम इन्हे छोड़ मुझे बेच दो मैं इसके लिये सोने का पिंजरा बनवा दूँगा ये इस लोहे के पिंजरे मे शोभा नही देती।"
दोनो व्यापारी ही आपस मे उलझ पड़ते है उसे ख़रीदने को.
"नहीं-नहीं मैं इसे नहीं बेच सकता ये तो मेरी जान है।" इसे बेचकर मे------
दोनो बहुत दबाव डालते है उस पर मैना को बेच देने के लिये।
हार कर वो कहता है --"ये मैना इंसानी भाषा जानती व बोलती है।एक काम करता हूँ इसका पिंजरा खोल देता हूँ,ये जिसके भी कांधे पर बैठेगी ,उसी की हो जायेगी।
पिंजरा खुलते ही मैना फ़ुर्र्र्र्र्र्र्र से उड जाती है--"मुझे ना तो मोती चाहिए ना सोने का पिंजरा।"
" वो देखो नीला आकाश बाहे फ़ैलाए मेरा इंतजार कर रहा है।"
नयना(आरती) कानिटकर
२७/११/२०१५



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