बुधवार, 7 मार्च 2012

होली

आओ सबको प्यार का
सप्तरंगी रंग चढाए
प्रेम के गुलाल से
खुशियाँ हम खूब मनाए
  आओ होली मनाए
अपनत्व के गुलाल से
सबको हम खूब रंगाए
चाहे कोइ करे इंकार
एक बार फिर प्यार लुटाए
   आओ होली मनाए
नफरत को दूर भगा
प्रेम का ऎसा रंग चढाए
बुराई को मिलकर जला
सबको फिर गले लगाए 
  आओ होली मनाए




शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

नारी शक्ति

आने वाले महिला दिवस के लिये विशेष
मै भारत की नरी शक्ति
घर की चौखट से बोल रही हूँ
दबे जो  दर्द सीने मे मेरे
सबके आगे खोल रही हूँ
घर और समाज के बीच
अपने आप को तौल रही हूँ,
मै भारत की----

वादे तुमने बहूत किये है
चाँद-तारे तोड लाने के
मेरे अरमानो को हरदम
हथेली पर सहलाने के
उपर से मै हरी-भरी हूँ
घर-घर मे सौ बार मरी हूँ
मै भारत  -----

सोचा था इतिहास लिखूँगी
कुरीतियो से हरदम लडूगी
लेकिन मेरी हिम्मत का गला
घर-घर मे सबने घोट दिया है
कुरीतियो के संग जीने को
दूनिया ने मजबूर किया है
मै भारत की----

अपनी पीडा कभी ना बताई
हँसकर एक-एक ईंट चुनाई
सफलता पर कभी ना इठलाई
फिर हरदम क्यो मूँह दिखलाई
मै भारत की-----

रोशनी की चाह मे हरदम
दूर किया घर का अंधेरा
छोड दिया अमृत का प्याला
हरदम पिया जहर कसैला
मै भारत की-

स्त्रीत्व मे  मातृत्व का अभिमान
चुनकर ब्रम्हा ने दिया वरदान
किन्तु आज इस कोख पर
ये कैसा आघात हुआ है
अस्तित्व के साथ इस पर
ये कैसा प्रतिघात हुआ है
मै भारत की-----

जाने कब एहसास ये होगा
स्थान मेरा भी खास होगा
जाने कब जीवन व्यर्थ ना होगा
इस जीवन का कुछ अर्थ भी होगा
मै भारत की-----
लेकिन
चाहे अब पथ संकीर्ण हो मेरा
सत्य-पथ मे पथिक साथ ना हो मेरा
देनी पडे चाहे कोई परीक्षा
या फिर हो अग्नि का घेरा
इतिहास मे अब मेरी कहनी
स्त्री ही कहेगी स्त्री की जुबानी
मै भारत की नारी शक्ति
------------------------- continue










मागचे 3-4 दिवस मी "अरुणा ढेरे"ह्यांचे पुस्तक वाचते आहे अर्ध्यावाटेवर त्यातिल काहि वाक्य मझ्या मनात रुजली त्यांना मी कवितेत गुंफण्याचा प्रयत्न केला आहे.बघा आवडतो का?

शब्दांचा अलिकडे थांबणॆ आता शक्य नाही
पण तडफडून शब्दा जवळ जाता  ही येत नाही,
शब्द कधी खूप ताठर, कधी माऊ पणाने भरलेले
पुष्कळ यातना शब्दा मध्ये घर करुन बसलेले
क्षणा मागे दूर लांबवर शब्दांचा वास असतो
आणि आलेले सगळे क्षण आपण शब्दांत भरतो
स्वतःला आपण अज्ञात तरी आपल्या कडे पहातो
ते मर्मस्पर्शी अनुभव ,झगडण,कोसळ्णे शब्दांत भरतो
स्वतः मधले अभाव,अधिक पाझरण ही दूःख असते
सगळ्याची सांगड घालून लिहणारे शब्द म्हण्जे छळ असते
फूला भोवती काँटे खूप
पण सुगंधि फूलाचा वास दे
सरले ढग सगळे जरी
मंद पावसाचा मृदु वास दे
तुझा प्रेमळ साथ दे
उजाडत्या पोर्णिमे मधे
हातात मझ्या हात दे
मावळ्ता चंद्र असला तरी
जीवना चा नाद दे
तुझा प्रेमळ साथ दे
कवितेच्या वाटेवर मला
तुझा आनंदा चा साथ दे

सोमवार, 16 जनवरी 2012

कविता

लिहि म्हंटल की कविता कशी लिहायची,
शब्दांना काना,मात्रा,वेलांटी कशी द्यायची,
प्रेम कविता लिहीण्यास स्वप्नात तरी प्रेम करावे लागते,
विनोदी कविता करयला मनात हास्य अणावे लागते,
विरह गीत लिहीण्या साठी विरह जगायलाच पाहिजे,
मनात असलेल्या क्षणाला सार्थक शब्दच आला पाहिजे,
प्रयत्नांतरी विडंबन काही सगळ्यांना जमत नाही,
विडंबन करायला तर रेष ही कगदावर उमटत नाही,
कविता करायला मनात तसे भाव जगावे लागतात,
आणि तेव्हा कुठे शब्द -म्हणी कवितेत गुंफतात

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

ठंड के वो दिन

           वातावरण के तापमान ने करवट बदलना शुरू कर दिया है.हेमन्त ऋतु दरवाजे पर दस्तक दे चुकी है.गुलाबी सर्दी के साथ वातावरण खुशनुमा हो चुका है.कम्बल, लिहाफ,ऊनी वस्त्र संदूक से बाहर आ चुके है.घरो मे विभिन्न प्रकार के लड्डुओ की खुशबू कभी-कभार ही महसूस हो रही है,क्योंकी बच्चे अब इन पौष्टिक लड्डुओ पर कम  रूझान रखते है,उन्हे तो पिज्जा और पस्ता मे ज्यद आनंद आता है.वो मेथी के लड्डू ,गाजार का हलवा कही खो गये है,मोटापे का डर दिखाकर.बच्चे ये समझने को तैयार हई नहिं कि मेथी के लड्डू ठंड मे हड्डीयों मे कितनी ताकत भरते है जो साल भर हड्डीयों मे ग्रीसिंग (machin ke lubrication) का काम करती है
                          सबसे बुरा हाल तो ऊन के गोले और सलाइयों का है जो चूपचाप एक कोने मे पडे हुऎ है.रेडिमेड के जमाने ने नानी-दादी और माँ से उनकी रचनात्मक खूबियाँ छिन ली है.मुझे याद हे ठंड के आते ही १०-१२-१४ नंबर की सलाइयों कि आपसी कशमकश ,ऊन की लच्छीओ क गोले मे बदलना और फिर सलाइयों से ज्यामितीय य फूल पत्ती के डिजाइन बनाना.इक दूसरे से मानो होड सी लगी रहती थी कि कौन सबसे अच्छा  और नया(unique) डिजाइन तैयार करता है.बुनाई करते-करते दसो बार उसकि नप्ती करना ये एहसास दिलाता था कि बुनने वाला कितनी प्यार से उसके लिये बुनाई कर रह है.वाकई स्वेटर कि वो गर्माहट अब महसूस हि नहीं होती.सलाइयों कि वो आपसी टकराहट जो प्यार कि गर्मी पैदा करती थी कहि खो गई है.वो प्यार का एहसास हम खो चुके हैं.

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

जीवन

नमन शब्दग्राम!
मीनाक्षी मोहन 'मीता' जी के आह्वान पर 💐💐💐

पंक्ति_आधारित_काव्य_सृजन



जीवन मृत्यु का यह खेल अजीब,
इस खेल से न कोई बच पाया है.
जीवन वैभव के उन्माद को अब तक
मृत्यु  सन्मुख  नतमस्तक ही पाया है
इसलिए तो----
जीवन सिर्फ इक सीप नहीं है
इसके हर मोती को चुन लो,
गिर कर उठकर बारबार तुम,
जीवन का रस पूरा चख लो,
बूंद-बूंद जोड मधु जीवन का
इस अमृत घट को प्यार से पीलो
खुशियों का ढेर भर अंजुरी में,
सुंदर जीवन का रस पीलो
मदमस्त हो जीवन जीलो

मदमस्त हो जीवन जीलो