गुरुवार, 25 जुलाई 2013

वो बचपन


मैं
फिर महसूसना चाहती हूँ
वो गाँव कि पगडंडियाँ
जिन पर बचपन में
भरी बारिश मे भी
छपाक-छपाक के साथ
तेजी से दौड़ लगाती थी
माँ से छुप कर स्कूल जाते वक्त :)

फिर महसूसना चाहती हूँ
अपनी दादी के संग
माँ से छूपकर धीरे से
उनकी चाय से एक घूंट का भरना
और तारों का वह समूह जिसे देख
अचूक समय का अंदाज़ करना सिखाती थी
बेर के पेड पर आये चाँदनी के झुरमुट मे

फिर महसूस ना चाहती हूँ
आम और आँवले के वृक्षो संग
खेतो की वो हरियाली जिसके
बागड पर लगे बबूल के पेड
उन पर लगे पिले-पिले फूल
उन  फूलों को कानों मे कुंडल की तरह पहन
इतरया करती थी आईने के सामने

फिर महसूसना चाहती हूँ
अपनी माँ के संग
कपड़ों का वह रंग-बिरंगी ढेर जिसे
सुघडता से खूबसूरती मे ढाल
बिछौना बनया करती थी माँ
उन बची रंग-बिरंगी कतरनो से हम
गेंद और गुड़िया बना खेला करते
अपने भाई-बहन,सखी सहेलियो के साथ

फिर महसूसना चाहती हूँ
अपने पिता के साथ
कगजो और किताबों के ढेर की
वो अनोखी विशिष्ट खूशबू
जिनके सहारे वे
तैयार करते थे मुझे अपनी
वक्तृत्व स्पर्धा के लिये
मुझ मे आत्मविश्वास और हिम्मत भरने के लिये

फिर महसूसना चाहती हूँ 


नयना(आरती)कानिटकर
२४/०७/२०१३


सोमवार, 17 जून 2013

वह



रुकी हुई वो पथ पर
पदचाप के नाद से
प्रित मे बंधी सी वो
अनुराग था कही वो---

 बयार की वो ठंढक
म्लान सी वो साँसे
कुहाँसे की सुबह में
कही दूर जा रही ----

वीरान मेरे घर मे
प्रश्नों का अंबार सा था
अंत रंग भेद गयी हो
जैसे स्याह रात मेरी--

अलभोर उस सुबह को
मौन,स्तब्ध सी मैं
आँगन मे एकाकी जैसे
तुलसी भी निस्तब्ध सी हो

गुरुवार, 30 मई 2013

जिन्दगी के रंग


जिंदगी के सारे रंग चुन लाई थी
सपनों के सतरंगी इन्द्रधनूष के साथ
फूलों से लदी  डाली बनकर
और कूद पडी थी होली से इस
अग्निकुंड मे
बडी उम्मीद और आरजु के साथ
फिर तुम भी तो आये थे मेरे साथ
रंग-बिरंगी फूलों कि बहार और
ख़ूबसूरत रंगों की बौछार बनकर
इस अग्निकुंड में शितलता देने
तुमने
सागर सा समेट लिया था मुझे
अपने आगोश मे दृढ़ बंधन के साथ
फिर मैने भी कभी कोशिश नही की
तुम्हारे इस आगोश से छूटने की
कि  ये सिलसिला सदा बना रहे
और आज                                                      
रंग-बिरंगी फूलों कि बगियाँ बन
इठला रहे है खूशबु बिखेरे चारो ओर
सपनों के ये इन्द्रधनूषी रंग
विस्तृत हो चुके है आकाश भर
सदा एकरुप होकर अपनी आभा बिखेरने

नयना(आरती) कानिटकर
३०/०५/२०१३

गुरुवार, 23 मई 2013

तुम मुझसी ही तो दिखती हो

प्रिय बेटी,अभिलाषा
आज तुम्हारा जन्मदिन है और मे तुमसे दूर यहाँ सिर्फ़ "बधाईयाँ "इतना ही  कह पा रही हूँ।
किंतु सुनो!!!!

तुम मुझ सी ही तो दिखती हो
सतत कर्मनिष्ठा,
अथक प्रयास
जुझारू प्रवृत्ति
मर्यादा का भान
सब कुछ पिछे छोड
आगे बढने के गुण
तुम मेरा प्रतिबिम्ब हो
तुम मुझ मे और मैं तुमसे हूँ
तुम मुझ सी ही तो दिखती हो

गुरुवार, 9 मई 2013

प्रसव वेदना


  आसाँ नहीं है माँ होना

 जब उठी है प्रसव वेदना
माँ तुम बहुत याद आई
तैर गयी नैनो में मनको सी
तुम्हारे मुख  की वे सब भंगिमाएँ
.
याद आ गये वो सारे क्षण
जब हमने समझा आपको
अनगढ, अनपढ इस नई पीढ़ी मे
रुखेपन से किया था मुल्यांकन भी
.
क्रोधित होकर मन की खीज
निकालते रहे सदा तुम पर
अपमानित कर पद दलित सा
सदा किया तुम्हें अधोरेखित
.
तहाकर रख दिया था हमने
तुम्हें रसोई की चार दिवारी में
सिर्फ़ बनाने खिलाने तक सीमित कर
उपेक्षित सी जहाँ तुम
अविरल सहलाती रही
स्वंय के हाथों के छालो को
.
घसिटते रहे सदा चौके-चुल्हे में
फिर भी अधिकार जता सारा तुम पर
लेकर ममत्व के ताने बाने का आधार
पकड़ा सदा तुम्हारे आँचल का छोर
.
मेरे आसपास तुम्हारा मंडराना
सह नही पाती थी मैं
तुम्हारी सीधी सपाट बात भी
टोकना लगता था मुझे
.
याद आती है तुम्हारी
भोली सी मधुर मुस्कान
जब तुम चिन्तातुर होकर कहती
"जल्दी लौट आना बेटी"
.
तुम्हारे काम की हरदम
तल्लीन उठा पटक को
हमने कोई मान नही दिया
ये तो हर माँ ,नारी करती है
वनों मे भी तो फलते-फुलते है पेड-पौधे
बिना किसी अतिरिक्त संरक्षण के
फिर भी तुमने अपना सारा स्नेह
उडेल दिया था हम पर चुपचाप
बीना किसी अपेक्षा के
.
पेट मे उस जीव की गती से भी
पूर्ण शरीर वेदना से भर उठता है
फिर याद आता है तुम्हारा
वो म्लान,थका,उपेक्षित
किंतु मुस्कुराता चेहरा
.
समझ सकती हुँ मैं
तुम्हारी व्यथा को,पीडा को
इसीलिये इतना आसान नही है
माँ की पदवी से विभूषित होना

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

युद्ध भूमि

तुम्हें विश्वास ही नही था
मेरी उन बातों का
चल पडे थे तुम ,हाथ मे
शस्त्र उठाये
जीवन के उस मैदान में
जहाँ चहू और ढेर था
बाधाओं का ,चट्टानों का
काँटेदार वृक्षो का,धूल का
उनसे कैसे सामना करते 
तुम उन शस्त्रो से
वहाँ तो चाहिये थी
अनुभवों कि गठरी जो
हौले-हौले काँटो को भी
चुनकर हटाती और
आँखो मे चुभने वाली
धूल को भी साथ ही
मस्तक पर लगने वाले
पत्थरों को इकट्ठा कर हटाती
तुम्हारी उस युद्ध भूमि से

फिर तुम विजयी बनकर लौटते
पूरे सालिम चन्द्र गुप्त या

सिकंदर बनकर

नयना(आरती)कानिटकर
२९/०३/२०१३

मंगलवार, 26 मार्च 2013

होली

                               
पिली सरसों,संग गु्लमोहर
अबीर गुलाल,फागुन कि बहार

                    इन्द्रधानुषी रंगो से सजा द्वार
                    ये निराला प्यार का त्योहार
                          
 द्वेष कोई मन मे ना पाले                          
स्नेह  मे सबको रंग डाले
                                खुशी से ढोल,मृदंग बजाले
                               प्यार से सबको गले लगाले

सबको प्रीति का रंग चढाना है
शब्दों के संग होली मनाना है


नयना(आरती) कानिटकर
२६/०३/२०१३