शनिवार, 5 जुलाई 2014

याद हे तुम्हें
मैने तुमसे पूछा था
कभी बहुत पहले
तुम क्या बनना पसंद करोगे
समुद्र या की पर्वत
तब बात को टाल गये थे तुम
आज अचानक बोले
बताओ तुम मेरा
क्या बनना पसंद करो गी
गर मे समुद्र बन जाऊँ
किनारा हे ना उसमे
आश्रय मे आने वाले को
समाहित कर लेगा
या की पर्वत
जो अविचल और उदात्त है
स्थिर है गहरे से
आश्रय मे आने वालो को
अपनी तलहटी से शीर्ष तक
आसरा दे सकता है
मैं फिर सभ्रम मे हूँ
क्या चाहती हूँ
समाहित हो जाना
समुद्र मे
या की
उदात्त शीर्ष के साथ
तुम्हारे संग खडे होना
पर्वत की तरह


नयना(आरती)कानिटकर
०५/०७/२०१४

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

विश्वासघात

बहुत खुश थी अनु आज.आदिश भी तो कई दिनों के बाद इतना खिलखिला कर हँस रहे थे.सच तो है
उनके जिगरी दोस्त अनिल आये थे कई सालों बाद.अनिल और आदिश  बचपन से साथ पढे,खेले थे .यहाँ तक की दोनो से लगभग-लगभग साथ ही अपना करियर शुरु किया और विवाह भी मात्र २०-२५ दिनों के अंतराल से.हनीमून मनाने भी वे चारों साथ-साथ गये थे "मुन्नार" केरल मे.वापस आकर दोनो अपने-अपने काम मे व्यस्त हो गये.मेरी और अनिल की पत्नी रुचा की फोन पर बात होती रहती थी .वह भी इंजीनियरिंग कर चुकी थी सो कुछ ही दिनो मे उसने भी एक कम्पनी का पदभार ग्रहण कर लिया और वे हमसे दूर अमेरिका जा बसे.
इधर मैने भी अपना
कंपनी सचिव का अध्ययन पूर्ण कर लिया .  एक छोटी सी राज कुमारी की माँ भी बन गयी थी.कब साल बिता पता ही नही चला .मैने भी अपने घर से व्यवसाय करने का सोचा लेकिन तब आदिश ने बेटी का वास्ता देकर मेरे बढते क़दमों को रोक लिया.वे नही चाहते थे कि बेटी झुलाघर मे बडी हो.लाख कोशिश के बावजूद मैं घर से अपने व्यवसाय को चला नही पाई कोई न कोई  घरेलू रुकावट मेरा रास्ता रोक लेती.
आदिश से किसी प्रकार के सहयोग की उम्मीद मैने छोड दी थी वे भी  तो अतिव्यस्त हो चले थे इन दिनों. .धीरे-धीरे मैं घर मे ही रम गई.बेटी की पढ़ाई ,घर की व्यवस्थित देखभाल,रिश्तेदारों का आना-जाना,माँ-बाबा की देखभाल मे कोई कसर नही छोडी.
ये सब सोचते-सोचते मैं नाश्ता-चाय तैयार कर रही थी दोनो दोस्तों के लिये. ख़ुश थी कि चलो बहुत दिनो बाद आदिश आज दिल खोलकर हँसरहे है.नाश्ता-चाय तैयार कर मे जैसे ही बालकनी के पास पहुँचती हूँ अपना नाम आदिश  के मुँह से सुनकर वही ठिठक जाती हूँ.नारी सुलभ विचार मन मे कौंध जाते है दिल उछ्लने लगता  कि----
ज़रूर आदिश मेरी तारीफ़ कर रहे होंगे कि किस तरह मैने उनके घर को सम्हाल कर उन्हें इन सब तनावो से मुक्त रखा है. मगर ये क्या---  :(  अनिल के ये कहने पर कि चलो हम भी हाथ बँटा देते है भाभी का वरना उन्हे आँफिस मे देर हो जायेगी  आदिश तुरंत बोल उठते है --नही यार मैने उसे कुछ करने ही नही दिया वरना वो मुझसे आगे निकल जाती और मैं यही का यही रह जाता.अनु  ज्यादा सशक्त और होशियार थी मुझसे.
हाथ से ट्रे गिरते-गिरते बच जाती है मानो सब कुछ लूट गया हो उसका.
फिर सारी शक्ति एकत्रित कर  वो एक निर्णय लेकर ही आगे बढती है कि आज के बाद उसे खुद को भी अपने आप को आदिश और परिवार के सामने  सिद्ध करना है कि वो नारी तो है लेकिन दुर्गा ,लक्ष्मी,चंडिका भी है.


शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

एक अदद--- "खिड़की" शीर्षक पर दो अलग-अलग सोच भिन्न मानसिकता को दर्शाती हुई
नयना (आरती) कानिटकर                                    वैभव सामरे
    घर की एक ------------------------                  बिजली के कड़कने से जब नींद टूटी                        
    अदद खिड़की से-------------------                     सामने थी मेरे शयनकक्ष की खिड़की
    झाँकती हूँ ------------------------                      बिजली की चमक
    जब  बाहर-------------------------                     और उडती हुई धूल
    कि ओर---------------------------                     खिड़की से पार ना आ पा रहे थे
    सुंदर रम्य निसर्ग सौंदर्य------------                   सोच बैठा काश इंसान भी ऐसे होते
    मन मे एक जगह बना लेता है--------                गलत भावनाओं को अन्तर्मन से दूर ही रखते
    बाहर झाँकते ही पुर्णत्व प्राप्त होता है--------       जरा सी खिड़की खुली
    इसी लिये तो मैं झाँकती हूँ--------------------     और अन्दर आ गयी
    उस खिड़की कि चौखट से बाहर जब----------     वो मिटटी की महक
    देखती हूँ हरियाली चारों ओर-----------------    बारिश की हलकी बूंदे 
     रास्ते दूर-दूर तक कभी न खत्म होने वाले----- सोच बैठा काश इंसान भी ऐसे होते
    न खत्म होने वाला उनका अस्तित्व----------- अपनी खुशियाँ पूरे जगत में बाँटते
    लेकिन मन अचानक------------------------   बारिश बढ़ गयी 
    अस्तित्वहीन हो जाता है-------------------    और हवा भी तेज़ हो गयी थी
    वो खिड़की संकुचित लगने लगती है---------   खिड़की लगी थी अब खडखडाने 
    चारों ओर से आने वाले तेज हवा के झोंके-------सोच बैठा काश इंसान भी ऐसे होते
    बारिश के थपेडे-----------------------          वैमनस्य न बनाकर, दुःख दर्द जाहिर कर देते
    झेलने पड़ते है ना चाहते हुए भी---------         और उस खडाक की आवाज़ से 
    फिर मन की खिड़की कपकंपाने लगती है------मेरी सोच और खिड़की 
    बंद करना चाहती हूँ उस खिड़की को------------दोनों टूट गए
    लेकिन उसमे दरवाज़े तो है हि नही------------वो खिड़की और इंसान में एक सामानता तो थी
    होता है सिर्फ एक अदद चौखट----------------बुरे वक़्त में दोनों साथ छोड़ गए। 
    फिर सहना पडता है उन थपेडों को
    जीवन भर  निरंतर लगातार
    फिर वो समय भी कटता है
    भरता है मन के घाँव भी
    सब झेल कर फिर भी लगता है
    एक खिड़की तो हो ही
    घर मे भी और मन की भी
    जब चाहो बंद करो ,चाहो खोल दो
    एकसार हो जाओ पुन:
    रम्य निसर्ग के साथ भी
    खूबसूरत जीवन के साथ भी

    

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

साथ

चाँद तो मेरे साथ है,
चाँदनी तुझे पुकार लू

लौ सी तू मेरे साथ है
रोशनी क्यो उधार लू

हर लम्हा मेरे साथ है
पलकों से निहार लू

 झिझक जो मेरे साथ है
तेरे कदमों मे उतार लू

तेरा साथ मेरे साथ है
"नयन" ज़िंदग़ी सवार लू

नयना (आरती) कानिटकर
३०/०८/२०१३


गुरुवार, 25 जुलाई 2013

वो बचपन


मैं
फिर महसूसना चाहती हूँ
वो गाँव कि पगडंडियाँ
जिन पर बचपन में
भरी बारिश मे भी
छपाक-छपाक के साथ
तेजी से दौड़ लगाती थी
माँ से छुप कर स्कूल जाते वक्त :)

फिर महसूसना चाहती हूँ
अपनी दादी के संग
माँ से छूपकर धीरे से
उनकी चाय से एक घूंट का भरना
और तारों का वह समूह जिसे देख
अचूक समय का अंदाज़ करना सिखाती थी
बेर के पेड पर आये चाँदनी के झुरमुट मे

फिर महसूस ना चाहती हूँ
आम और आँवले के वृक्षो संग
खेतो की वो हरियाली जिसके
बागड पर लगे बबूल के पेड
उन पर लगे पिले-पिले फूल
उन  फूलों को कानों मे कुंडल की तरह पहन
इतरया करती थी आईने के सामने

फिर महसूसना चाहती हूँ
अपनी माँ के संग
कपड़ों का वह रंग-बिरंगी ढेर जिसे
सुघडता से खूबसूरती मे ढाल
बिछौना बनया करती थी माँ
उन बची रंग-बिरंगी कतरनो से हम
गेंद और गुड़िया बना खेला करते
अपने भाई-बहन,सखी सहेलियो के साथ

फिर महसूसना चाहती हूँ
अपने पिता के साथ
कगजो और किताबों के ढेर की
वो अनोखी विशिष्ट खूशबू
जिनके सहारे वे
तैयार करते थे मुझे अपनी
वक्तृत्व स्पर्धा के लिये
मुझ मे आत्मविश्वास और हिम्मत भरने के लिये

फिर महसूसना चाहती हूँ 


नयना(आरती)कानिटकर
२४/०७/२०१३


सोमवार, 17 जून 2013

वह



रुकी हुई वो पथ पर
पदचाप के नाद से
प्रित मे बंधी सी वो
अनुराग था कही वो---

 बयार की वो ठंढक
म्लान सी वो साँसे
कुहाँसे की सुबह में
कही दूर जा रही ----

वीरान मेरे घर मे
प्रश्नों का अंबार सा था
अंत रंग भेद गयी हो
जैसे स्याह रात मेरी--

अलभोर उस सुबह को
मौन,स्तब्ध सी मैं
आँगन मे एकाकी जैसे
तुलसी भी निस्तब्ध सी हो

गुरुवार, 30 मई 2013

जिन्दगी के रंग


जिंदगी के सारे रंग चुन लाई थी
सपनों के सतरंगी इन्द्रधनूष के साथ
फूलों से लदी  डाली बनकर
और कूद पडी थी होली से इस
अग्निकुंड मे
बडी उम्मीद और आरजु के साथ
फिर तुम भी तो आये थे मेरे साथ
रंग-बिरंगी फूलों कि बहार और
ख़ूबसूरत रंगों की बौछार बनकर
इस अग्निकुंड में शितलता देने
तुमने
सागर सा समेट लिया था मुझे
अपने आगोश मे दृढ़ बंधन के साथ
फिर मैने भी कभी कोशिश नही की
तुम्हारे इस आगोश से छूटने की
कि  ये सिलसिला सदा बना रहे
और आज                                                      
रंग-बिरंगी फूलों कि बगियाँ बन
इठला रहे है खूशबु बिखेरे चारो ओर
सपनों के ये इन्द्रधनूषी रंग
विस्तृत हो चुके है आकाश भर
सदा एकरुप होकर अपनी आभा बिखेरने

नयना(आरती) कानिटकर
३०/०५/२०१३