सोमवार, 28 सितंबर 2015

पितर श्राद्ध

  घर मे कोहराम मचा हुआ है.घर की इकलौती सुंदर-शिक्षित कन्या  ने  अपने सहपाठी प्रेमी से विवाह रचाने का निर्णय लिया है.
सासू माँ चिल्ला-चिल्ला कर जता  रही है.यह सब हमारी करनी का फल है.
कई बार कहाँ दादा परदादा  का पितर श्राद्ध एक बार" गया " या "नासिक" जाकर करवा  लो.उनका आशिर्वाद ले लो  वरना हमे मुश्किलें झेलनी पड़ेगी अगर पितृ-दोष लग गया तो .मगर मेरी सुनो तब नाSSSSS"
अब पछताओ भोगो अब" लेखा" की करनी को.
"दादी आप भी कौन सी बात को कहाँ ले जा रही है" मैने तो सिर्फ़ अपनी पसंद----"
         "तुम चुप करो लेखा"------
        
 "माँ पितर श्राद्ध का लेखा के निर्णय से क्या लेना देना." बीच मे टॊकते बहू ने बोला.
  "है !! जो पितृ-दोष लगा है ना इसकी कुंडली मे इससे इसका मनमाना विवाह  जल्द टूट जाएगा.हम समाज मे मुँ दिखाने के काबिल ना होगे."
  "माँ!!!क्या कोई अपनी वंश  की संतति को आशीर्वाद से अछूता रखेगा.? ऎसा कुछ ना होगा-- पितृ-दोष वगैरा कुछ नहीं होता"
" मगर सासु माँ  तो बोलती ही जा रही थी----"


"लेखा का हाथ थाम वह कमरे से बाहर निकल गई"
नयना(आरती) कानिटकर
२८/०९/२०१५


शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

उम्मीदे

ना उम्मीदी के इन दिनो में भी
जब झाँकती हूँ,खिडकी से बाहर
दो हँसती आँखे पिछा करती है
फिर ख्वाब की जंजीर बनती है
सौदा कर लेती हूँ लूढकी बूँदो से
उम्मीदो के नये सपने बुनने का

इबादत

      शाजिया को  पुलिस के कडे सुरक्षा घेरे  के बीच उसे  न्यायालय  परिसर मे लाया गया था.
बिरादरी और आम लोगो की  नज़रों से बचने  के लिये वह अपना मुँह ढाक पिता के पिछे-पिछे चली आई थी. उसे अपने किये का  जरा भी रंज नही था.
कल रात सेना और आतंकी मुठभेड़ मे एक आतंकी उनके घर मे घुस आया था.तब डर के मारे उन्होने उसे पनाह दी थी मगर----
अल भोर  सुबह के धुंदलके   मे  उसे अचानक अपने शरीर पर किसी का स्पर्श महसूस हुआ था . तब उसने
बडी  हिम्मत से काम ले अपने सिरहाने रखी दराती (हँसिया) उठा अचानक उसके दोनो हाथों पर ज़बरदस्त वार कर दिया.
आतंकी  चिखते हुए भागने की कोशिश मे उसके पिता के हाथ पड गया  और अंत में वही हुआ ------
अब्बा  को  भी अपने किये का ना कोई दुख ,ना कोई   शिकन ---
.ईद के मौके पर आज उनकी बेटी ने बिरादरी पर लगे कलंक की बलि देकर  अल्लाह की सच्ची इबादत की है.

सोमवार, 21 सितंबर 2015

----नियती--


रुपकुँवर की उम्र मात्र १५-१६ बरस की है.उसके रुप-सौंदर्य का डंका चारों ओर बज रहा है.
कोमल मना नृत्य-संगीत की शिक्षा मे भी पारंगत हो चूँकि है.
  तभी केसर बाई घोषणा करती  है कि आज से ठिक १५ दिन बाद हमारे विधिवत विधान के अनुसार रुपकुँवर को--------.
वो दिन आ पहुँचता है और रुपकुँवर को विधीवत संस्कार कर "-----" के पास पहुँचा दिया जाता है.
       इधर केसर बाई की रात भी आँखो मे गुज़र जाती है कि तभी.
अचानक कोमल मना रुपकुँवर भाग कर आती है और केसर बाई की गोद मे समा कर फूट-फूट कर रोने लगती है.रोते-रोते बोलती जाती है---
   केसर बाई उसकी बाते सुनते हुए उसे जी भर-भरकर रोने देती है.
अपनी गोद से हौले से उसका सिर उठाकर कहती है ,मजबूत हो जा मेरी जान हमारी नियती यही है "रात गयी- बात गयी."

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

संस्कृती---(पहचान-१)

         बालकनी की गुनगुनी धूप में बैठी नाजुक स्वेटर की बुनाई करती आभा के हाथ ,बहू की आवाज से अचानक थम जाते है.
ओहो !!!!! माँ आप ये सब क्यो करती रहती है,वो भी बालकनी मे बैठकर.आप जानती है ना कालोनी मे आपके बेटे की पहचान एक नामचिन रईस के रुप मे है.सब क्या सोचते होगे कि----------
   आभा मन ही मन सोचती है कि इन फंदो की तरह ही तो हमने अपने रिश्ते बूने है मजबूत और सुंदर. हाथ से बनेइस  स्वेटर की अहमियत को तुम क्या जानो कितने प्यार और अपनेपन की गरमाहट है
इनमे.  !!!!!यही तो हमारे संस्कार और संस्कृती की पहचान है.   
      डर है तो ये की अंतरजाल की दुनिया  मे अपनी पहचान ढूँढते-ढूँढते  कही यह नई पिढी  --------????

नदी का छोर

 ---- नदी का छोर----( प्रतियोगिता के लिए )

 आठवीं पास होते ही आ गई थी  ब्याह कर इस गाँव में,आगे  पढने की इच्छा को भी बाबा ने विदाई दे दी थी.
    एक वर्ष बितते ना बितते तुम आ गई थी मेरी गोद मे और फिर मेरी ईच्छाए,स्वप्न पुन: मुखरित हो तुम मे निहित होने लगे थे.
अब तुम  मेरे जीवन का केन्द्र बिंदु थी ,बाकी दुनिया इसके चारों ओर---.

    ६ वर्ष की होते ना होते मैने तुम्हें स्कूल मे भर्ती करा दिया था.उमा रमा के साथ नदी के उस पार वाले स्कूल मे तुम भी जाने लगी थी.
   नदी के पाट के इस किनारे तक रोज छोड़ने आती थी मैं तुम्हें.तब तुम कागज़ की २-३ तरह की नाँव मुझसे रोज बनवाती और नदी पार करते वक्त उसके प्रवाह मे उन्हें छोड देती थी.
     फिर!!! चिल्ला-चिल्लालर कहती माँ मैं भी एक दिन नाँव में बैठकर नदी के उस दूसरे छोर तक दूररर--तक जाऊँगी,तुम भी चलो गी ना मेरे साथ.
    आशा अब बडी हो रही थी और  बडे उसके सपने भी.----
 पढ़ाई के ख़ातिर हम गाँव छोड शहर आ बसे थे,मगर!!! उसके बाबा नही आ पाये हमारे साथ.
उनकी जडे गाँव से ही जुड़ीं रही.

    दोनो के सपनों ने कुलाचे भरे,तुम पढते-पढते बहुत बडी हो गई और फिर  ब्याह कर विदेश जा बसी.
              मैं वापस लौट आयी तुम्हारे बाबा के पास अपने गाँव मे.
   "अब सिकुडी नदी के इस पाट तक तुम्हारे बाबा संग रोज जाती हूँ तुम्हारा बचपन जीने,."
    अब तुम्हारे बाबा रोज नाव बनाकर ले जाते है कि कोई कहे बाबा-ताऊ, माँ ये नाव हमे दो मगर????-----
              कुछ देर रुककर फिर लौट आते है.
  नदी के उस छोर पर भी अब स्कूल की जगह---------
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 ---- नदी का छोर----( प्रतियोगिता के लिए )

 आठवीं पास होते ही  वह आ गई थी. ब्याह कर इस गाँव में, उसकी आगे  पढने की इच्छा को भी बाबा ने विदाई दे दी थी.
 वर्ष बीता होगा बिटिया आ गई थी  गोद में और फिर सारी  ईच्छाए,स्वप्न पुन: मुखरित हो उसमें निहित होने लगे थे.
अब वह उसके  जीवन का केन्द्र बिंदु थी ,बाकी दुनिया इसके चारों ओर---.  
६ वर्ष की होते ना होते उसे  स्कूल मे भर्ती करा दिया था. उमा ,रमा के साथ नदी के उस पार वाले स्कूल में .
नदी के पाट के इस किनारे तक रोज छोड़ने जाती. तब  कागज़ की २-३ तरह की नाँव उससे रोज बनवाती और नदी पार करते वक्त उसके प्रवाह मे उन्हें छोड देती थी.
     फिर!!! चिल्ला-चिल्लालर कहती माँ मैं भी एक दिन नाँव में बैठकर नदी के उस दूसरे छोर तक दूररर--तक जाऊँगी, तुम भी चलो गी ना मेरे साथ.
आशा अब बडी हो रही थी और  बडे उसके सपने भी.----
 पढ़ाई के ख़ातिर  गाँव छोड शहर आ बसे थे, मगर!!! उसके बाबा नही आ पाये  साथ में.उनकी जडे गाँव से ही जुड़ीं रही.  

दोनो  माँ-बेटी के सपनों ने कुलाचे भरे, बिटिया  पढते-पढते बहुत बडी हो गई और फिर  ब्याह कर विदेश जा बसी  
वह वापस लौट आयी  उसके  बाबा के पास अपने गाँव में.
अब भी  सिकुडी नदी के इस पाट तक उसके  बाबा  रोज आते हैं,  उसका बचपन जीने. कुछ देर रुककर फिर लौट आते है.रोज नाव बनाकर भी  ले जाते  है कि कोई कहे बाबा-ताऊ, ये नाव हमे दो मगर ,????---  
 गाँव में अब ना कोइ युवा रहे  ना ही बच्चे   सब जा बसे शहर में और नदी के उस छोर पर भी अब स्कूल की जगह-------






मंगलवार, 15 सितंबर 2015

पानी वाली----(पहचान) २

मुंबई पश्चिम इलाके के एक छोटे से आवास मे वे अपनी बहू और पोती के साथ निवास करती है.आराम से कट रही है. जिंदगी फिर भी थोड़ा सा भी गलत  उन्हे बर्दाश्त नही.
बहुत देर तक बाथरुम से पानी कि आवाज आते रहने पर वे अपनी जगह बैठे बैठे ही चिल्लाती है.
" बंद करो वो नल कब से बहा रही हो ,पता नही तुम पानी की इतनी बर्बादी क्यो करती हो."
"क्या है दादी बंबई की इतनी उमस भरी गर्मी मे काम से लौटने के  बाद  आप ठिक से नहाने भी नही देती." पैर पटकते हुए निशी अंदर चली जाती है.
" जानती हो ना तुम पहले यहाँ पीने का पानी भी नसीब नही था. हमने "मृणालिनी "के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लडी है.तब तुम्हें ये पानी नसीब हुआ है.
"पता नही दादी आप किस "मृणालिनी" की बात कर रही है.मुझे कुछ नही सुनना."
"ओह!!!!पता नही क्या होगा तुम्हारी  पीढी का"
"पानी वाली बाई" के नाम से उनकी पहचान कही धीरे-धीरे-----------