शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

जमीर जाग उठा -- नया लेखन-नए दस्तखत/लघुकथा के परिंदे-५वी


मरते-मारते आख़िरअब वह थक गया था।  हद तो तब हो गई जब उसके अन्य साथियों को मकसद पूरा होने पर कि कही वे क़ौम से दगा न कर बैठे  इसलिये ज़िन्दा जला दिया गया
ये सारा मंजर देख उसका ज़मीर जाग उठा। उसे अपनी ज़मीन, अपना गाँव याद आ गया
उसने अपने दोस्तों से ही सुना था कि उसके पिता भी सेना के सिपाही थेवो जब भी माँ से अपने पिता के बारे मे पूछता वो अपने पल्लू से आँखो कि कोरो को पोछती  और कोई जवाब ना देती। माँ को कुछ कागज़ात लिये हमेशा दर-दर भटकते देखा मगर माँ ने कभी कोई तकलीफ़  साझा नहीं की
वो  धीरे-धीरे तंगहाली,अशिक्षा और बेरोज़गारी   के बीच  बडा होता रहा .फिर ऐसे ही अचानक सब कुछ छोड एक अन्जानी राह की गिरफ़्त मे आ गया था  एक ऐसे संगठन से जुड गया जहाँ सिर्फ़ बदला, खून-ख़राबा,षडयंत्र और  ना जाने क्या क्या...
आखिर स्वंय से ही तर्क-वितर्क के बीच  तिरंगे के आगे घुटनो पर बैठ नतमस्तक हो उसने समर्पण कर दिया. अब बंदूक उठाएगा तो सिर्फ़ माँ के लिये.
क्या माँ उसके इस अपराध को क्षमा...

नयना (आरती)कानिटकर

हस्तक्षेप-शिकायत का स्पर्श-लघुकथा के परिंदे

 नवविवाहित सोना जब पहली बार मायके आयी तो  पापा सुनील और माँ सुनयना के आगे शिकायतों का पुलिंदा खोलकर बैठ गई
" पापा सच बोल रही हूँ ससुर जी तो महा निकम्मे आदमी हर चीज के लिये आवाज़ लगाते रहते है बहू ये कर दो ,बहू वैसा खाना चाहिये ...सच शोभित तो पूरे हेकडी ,जिद्दी  और सासू माँ तो पूरी ..."
पापा की आँखें लाल-लाल और माँ का सिर्फ़ हूSSSS.
 "देखो ना पापा माँ सिर्फ़ हूँSSS  किये जा रही है"
"सोना! शुरुआती दिन है धीरे-धीरे सब ठिक हो जायेगा."
"सुनयना! सुनो तुम समघन से बात करो, ऎसा नही चलेगा। हमने अपनी बेटी को बडे नाजो से पाला है। उसकी कोई तकलीफ़ हमे बर्दाश्त नहीं"
"नहीं जी हमसे ये ना हो सकेगा"
"क्यो ना हो सकेगा कैसी माँ हो तुम."--सुनील नाराज़ होते हुए बोले
"सोना के पापा ! एक बात बताईये..."
मेरी माँ का  हस्तक्षेप तुम्हें स्वीकार्य होगा

नयना(आरती) कानिटकर

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

खंज़र

खंज़र

चहूँ ओर नफ़रत
नाहक ग़ैरो पर वार
क्रोधाग्नि के घाव
प्रतिशोध की चिंगारी
निंदा और धिक्कार
व्यर्थ की उलझन
तेजाब छिड़कते
मटमैले मन
दौलत का लालच
बिकने को तैयार
सब बैठे
अंगार बिछा कर
जिस ओर देखो
द्वेष,घृणा के खंज़र

मौलिक एंव अप्रकाशित

"विभाजन" नया लेखन नये दस्तखत

शहर की दस मंजिल इमारत के आफ़िस खिडकी से झांकते हुए अनंत ने कहा---
"वो देखो अनन्या! वो दो रास्ते देख रही हो ना ,अलग-अलग दिशाओ से आकर यहाँ एक हो गये है . . आखिर इस स्थान पर अब हमारी मंज़िल एक हो गयी है। भूल जाओ उन पुरानी बातों को। "
"हा अंनत! देख रही हूँ , किंतु उन कड़वी यादों से बाहर ..."
"ओहो! कब तक उन्हें..."
" एक होती सडक के बीच की वो सफ़ेद विभाजन रेखा भी देख रहे हो ना अंनत! वो भी अंनत से ही चली आ रही है।"
उसे कभी एकाकार करना ...
नयना(आरती) कानिटकर

"दो बूंद" नया लेखन नये दस्तखत --हवा का रुख

आनंदधाम के हरे-भरे परिसर मे एक  अन्य नयी तीन मंज़िली इमारत बनकर तैयार हो गयी थी। वहाँ के प्रबंधक कृष्णलाल ने बडे समर्पण भाव से पूरे कार्य की देखभाल कि थी।  वे बडे तन-मन से इस कार्य को समर्पित थे
छोटे सा किंतु गरिमामय समारोह आयोजित कर उस इमारत  को जनता को समर्पित करने का आयोजन रखा गया था। शहर के कलेक्टर मुख्य अतिथि के रुप मे पधारे थे। सेठ कृष्ण मोहन ने इस कार्य के लिये आर्थिक मदद की थी वे पास की कुर्सी पर विराजमान थे। सभी औपचारिकता के बाद कलेक्टर साहब ने अपना उदबोधन प्रारंभ किया
"आप इस परिसर की जिस इमारत को जनता को सौंप रहे है उसका पूरा-पूरा श्रेय  श्री कृष्ण..."
तभी एक अर्दली उनके पास एक पर्ची थमा जाता है
"क्षमा किजीए पूरा-पूरा श्रेय सेठ कृष्ण मोहन जी  को जाता है जिनकी..."
तालियों के आवाज़ के बीच...
कृष्णलाल जी कि आँखो से दो बूंद पानी धरती माँ को ...

नयना(आरती)कानिटकर


सोमवार, 18 जनवरी 2016

बच्चे मे भगवान

घर मे सत्य नारायण की पूजा होने से घर के अतिरिक्त बर्तन साफ़ करने और बाहरी बुहारी (स्वच्छता) आदि के लिए महरी को रोक लिया था. पूजा-पाठ समाप्त होने के बाद प्रसाद भोजन निपट जाने पर महरी ने घर जाने कि इजाज़त चाही तो स्नेहलता देवी बोल पडी रुको तुम भी प्रसाद भोजन कर के जाना.
 महरी अपना खाना ले आँगन के एक कोने मे जा बैठी . बब्बू भी उनकी थाली से खाने को मचल उठा .स्नेहलता देवी पोते को खींचकर जाने लगी मगर बब्बू हे कि माना ही नही और महरी कि थाली से ही खाने लगा. स्नेहलता देवी अनापशनाप बकते हुए  छुआछात के चलते पूजा के खंडित होने का दोष महरी पर मढती...
इधर मासूम बब्बू मे बसे ईश्वर महरी की  थाली से सच्चा प्रसाद ग्रहण करते रहे.

नयना(आरती)कानिटकर

शनिवार, 16 जनवरी 2016

" हम सात"

"कलावती" बेटे के इंतजार में कम अंतराल से ७ बेटियों को जन्म देकर सासू माँ के ताने सुनते हुए मन के साथ-साथ तन से भी हार गई थी . किशनलाल जी स्कूल मे प्रधानाचार्य थे ,थोड़ी बहुत ज़मीन भी थी पुश्तैनी उसका काम भी देखते सदा व्यस्त रहते.अपनी  माँ के आगे ज्यादा ना बोलते लेकिन  सब बच्चियों को कभी कोई दिल  दुखाने वाली बात ना कहते.
बेटियों  के नाम भी बडे सोच समझकर रखे थे.स्नेहा, ममता, आस्था, सत्या, नीति, आकांक्षा और  मुक्ता.यथा नाम तथा स्वभाव की बहने जान छिड़कती थी एक दूसरे पर. गुणों के आगे धीरे-धीरे दादी का ताने मारना बंद हो गया
 पास के गाँव से स्नेहा  के लिये रिश्ता आया था.घर-भर ने  तैयारी की थी.आखिर बात तय होकर लेन-देन पर आकर चल रही थी .
"बांकेजी" के पिता ज़मीन मे बहनों के हिस्से की बात पर आकर अड गये .  सभी बहने विरोध जताने के लिये एक साथ बाहर निकली  ही थी  कि...
 बाँके जी  पसिना-पसिना...शायद  गाँव के  मेले  में खेले  गए नाटक "दुर्गा" का दृश्य याद आ गया.

नयना(आरती) कानिटकर