मंगलवार, 21 जून 2016

" हलवे का घी"

" हलवे का घी"

माँ से बिछडने का गम उसे अन्दर तक साल रहा थाI  उन्हें बरसों से तरह-तरह की बीमारियों ने जकड़ रखा थाI लेकिन साथ ही  कहीं ना कहीं उसे इस बात का संतोष  भी  था कि अंतत: उन्हे कष्टों से छुटकारा मिल गयाI
उनके कमरे के सामने से गुजरते बरबस आँखें भर आई I अब उसके लिए  गठरिया कौन सहेजेगा ,मकई का आटा,मूँग बडी,नींबू अचार ,कितना कुछ होता  था उसमें. अपने आँचल से कोरों को पोछने हुई  कि भाभी ने आवाज लगाई
"आ जाओ  बहना! खाना तैयार है. दामाद जी भी  वापसी की  जल्दी मचा रहे है। आओ! आज सब कुछ तुम्हारी पसंद का बनाया हैं. पुलाव, भरमा बैंगन, आटे-गुड का तर घी हलवा"
किंतु उसकी जिव्हा तो चिरपरिचित स्वाद के लिये व्याकुल थी
" अरे!चलो भी देर हो रही है , मुझे दफ़्तर भी  तो जाना है."रितेश ने  रोष में आवाज लगाते हुए बोला
बेमन से कुछ कौर उसने हलक से नीचे उतारे, पानी का घूट भरा और तुरंत सामान उठा बाहर को निकल पडी.
देहरी पार कर कार मे बैठने को हुई तो   भैया ने कुछ कागज हस्ताक्षर के लिये  आगे कर दिए
 

" ये क्या है भैया"

" वो जायदाद के...." हकलाते हुए भैया ने कहा
 उनके हाथों से कागज लेकर हस्ताक्षर के स्थान पर भरे नेत्रो से बस "स्नेह" ही लिख पाई कि...
कार अपने मंज़िल को निकल पडी

नयना(आरती)कानिटकर

 

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