मंगलवार, 21 जून 2016

"छल" लघुकथा के परिंदे---निर्जन पगडंडी १ ली प्रस्तुति.



एक कथानक के तीन रूप
१-----
तेरह दिन का शोक और श्राद्ध करके सारे रिश्तेदार जा चुके थे. "कैसी औरत है मांग का सिंदूर पुछ गया,मजाल जो एक आँसू भी बाहर निकला हो ." सब के खुसफ़ुस ताने, तिरस्कार,धिक्कार, समझ कर भी अंजान बनी रही थी .जिंदा लाश बनी वह सब कुछ देखती,सुनती,सहती रही थी.

घर की व्यवस्था को ठिक करने के लिये उसने छुट्टी ले  रखी थी.बेटे को स्कूल भेज अस्तव्यस्त सामान को समेटने लगी थी कि उनके  अलमारी  की चाबी हाथ लग गई . खोली तो देखा बेतरतीब  भरी पड़ी थी. वो कभी उसके सामने उसे नही खोलते थे  और चाबियाँ सदा पास रखते थे. वैसे भी वो उनकी केवल पत्नी थी,राजदार  थी ही कहाँ कि अचानक  डायरी हाथ लग गई. पेज पलटती गई उसी के साथ रंग स्याह पडता गया था उसका . जीवन के १० वर्ष सामने थे उसके. पढते-पढते वह तिल मिला उठी.
"मैं पुरुष हूँ  ही कहाँ और पति धर्म ..  यह राज मेरे और अखिलेश के सीवा कोई नही जानता."
इतना बडा छल , धोखा , . तो क्या मधुयामिनी की रात अचानक रोशनी का चले जाना एक जान-बूझकर किया गया षडयंत्र  था . क्या दाम्पत्य की बुनियाद केवल सेक्स पर ही...जो अंधेरे का फ़ायदा उठा उनके दोस्त ने..
सब कुछ जान चुकी थी, अब डायरी में पढने को बचा ही क्या था. डायरी के हर पृष्ठ पर उनकी बेचारगी थी. निर्जन पगडंडी पर अकेले  चलते रहे थे आदित्य. अपनी पौरुष हिनता को छिपाने का ऐसा दिखावा कि शक होने लगे कि वे किसी अन्य को  चाहते है. उनके दुख के सामने अदिती का दु:ख बौना हो गया था.
उसने डायरी  हाथों मे भींच ली.
इसे आग लगानी होगी,अभी इसी वक्त अनुज के स्कूल लौटने से पहले ताकि उसके हदय मे पिता स्मृति आत्मिक और पावन बनी रहे.

नयना(आरती) कनिटकर
१०/०६/२०१६



 २---
तेरह दिन का शोक और श्राद्ध करके सारे रिश्तेदार जा चुके थे"कैसी औरत है मांग का सिंदूर पुछ गया,मजाल जो एक आँसू भी बाहर निकला हो |" सब के खुसफ़ुस ताने, तिरस्कार,धिक्कार, समझ कर भी अंजान बनी रही थी .जिंदा लाश बनी वह सब कुछ देखती,सुनती,सहती रही थी|
 माँ की बिमारी के चलते विवाह भी तो कोर्ट मे ही हुआ था.
  वो भी क्या करती प्रथम रात्री के पश्चात आदित्य उससे दूर रहने के सैकडो बहाने   ढूँढ लाते थे.कभी सासू माँ की बिमारी, कभी आफ़िस का दौरा...फ़िर कभी वो उनके स्नेह का स्पर्श महसूस नही कर सकी थी|
प्रकृति ने भी  तो उस रात्री मे ही अपनी रासलिला रचा ली थीउसका भाग्य  मातृत्व की और कदम बढा गया था|
बाद मे वह घर,बच्चा,सासू माँ और कालेज की नौकरी  मे ही व्यस्त हो गई|
वो तिल-तिल जलती रही उनके सानिध्य के लिये.ये तो भला था कि विवाह से पूर्व से ही कामकाजी थी.

घर की व्यवस्था को ठिक करने के लिये उसने छुट्टी ले  रखी थी.बेटे को स्कूल भेज अस्तव्यस्त सामान को समेटने लगी थी कि उनके  अलमारी  की चाबी हाथ लग गई . खोली तो देखा बेतरतीब  भरी पड़ी थी. वो कभी उसके सामने उसे नही खोलते थे  और चाबियाँ सदा पास रखते थे. वैसे भी वो उनकी केवल पत्नी थी,राजदार  थी ही कहाँ कि अचानक  डायरी हाथ लग गई. पेज पलटती गई उसी के साथ रंग स्याह पडता गया था उसका . जीवन के १० वर्ष सामने थे उसके. पढते-पढते वह तिल मिला उठी.

"मैं पुरुष हूँ  ही कहाँ और पति धर्म ..  यह राज मेरे और अखिलेश के सीवा कोई नही जानता."
इतना बडा छल , धोखा , . तो क्या मेरे साथ... मधुयामिनी की रात अचानक रोशनी का चले जाना एक जान-बूझकर किया गया षडयंत्र  था . क्या दाम्पत्य की बुनियाद केवल सेक्स पर ही...जो अंधेरे का फ़ायदा उठा उनके दोस्त ने..
सब कुछ जान चुकी थी, अब डायरी में पढने को बचा ही क्या था. डायरी के हर पृष्ठ पर उनकी बेचारगी थी. निर्जन पगडंडी पर अकेले  चलते रहे थे आदित्य. अपनी पौरुष हिनता को छिपाने का ऐसा दिखावा कि शक होने लगे कि वे किसी अन्य को  चाहते है. उनके दुख के सामने अदिती का दु:ख बौना हो गया था. मगर वह उनकी तरह डरपोक नहीं थी, उसने  प्रण कर लिया  नये रास्ते पर चलकर अनुज  को उसके असली पिता का हक दिलाने का.

डायरी  को अपने हाथो से आग के हवाले कर   भस्म कर  दिया.

"छल"


३---
तेरह दिन का शोक और श्राद्ध करके सारे रिश्तेदार जा चुके थे "कैसी औरत है मांग का सिंदूर पुछ गया,मजाल जो एक आँसू भी बाहर निकला हो " सब के खुसफ़ुस ताने, तिरस्कार,धिक्कार, समझ कर भी अंजान बनी रही थी। जिंदा लाश बनी वह सब कुछ देखती,सुनती,सहती रही थी
याद है उस दिन बेटे को स्कूल भेज अस्तव्यस्त सामान को समेटने लगी थी कि उनके  अलमारी  की चाबी हाथ लग गई उनके  अलमारी  की चाबी सदा कौतुहल का  विषय  रहा था  अचानक  डायरी हाथ लग गई पेज पलटती गई उसी के साथ रंग स्याह पडता गया था उसका
"मैं पुरुष हूँ  ही कहाँ और पति धर्म ..  यह राज मेरे और अखिलेश के सीवा कोई नही जानता"
इतना बडा छल , धोखा , . तो क्या मधुयामिनी की रात अचानक रोशनी का चले जाना एक जान-बूझकर किया गया षडयंत्र  था  निर्जन पगडंडी पर अकेले थे आदित्य  अपनी पौरुष हिनता को छिपाने का ऐसा दिखावा कि शक होने लगे कि वे किसी अन्य को  चाहते है। उनके दुख के सामने अदिती का दु:ख बौना हो गया था। मगर वह उनकी तरह डरपोक नहीं थी, उसने  प्रण कर लिया  नये रास्ते पर चलकर अनुज  को उसके असली पिता का हक दिलाने का

नयना(आरती) कनिटकर
१०/०६/२०१६



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